ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी साहित्य के चर्चित लेखक हैं। इनका जन्म 30 जून 1950 को उत्तरप्रदेश के जिले मुजफ्फरनगर के बरला गांव में हुआ था। ओमप्रकाश एक अछूत वाल्मीकि परिवार से थे। उनका बचपन सामाजिक और आर्थिक कठिनाईयों में बीता था।
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ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने जीवन में जो मानसिक कष्ट और आर्थिक परेशानियों का सामना किया था उसका प्रभाव उनकी रचना में भी देखने को मिलता है। हिंदी में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज हम अपने इस लेख में ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्यतिथि के दिन उनके जीवन और दलित साहित्य के प्रति उनके योगदान के बारे में जानेंगे।
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गरीब परिवार:
ओमप्रकाश वाल्मीकि गरीब परिवार से थे। उनके घर की स्थिति काफी दयनीय थी। उनके घर के हालात ऐसे थे कि उन्हें दो जून की रोटी भी ठीक समय पर नहीं मिल पाती थी। इस पर वाल्मीकि जी लिखते हैं कि “पांच भाई, एक बहन, दो चाचा और एक ताऊ का परिवार। चाचा और ताऊ अलग रहते थे। घर के सभी कोई न कोई काम करते थे। फिर भी दो जून की रोटी ठीक ढंग से नहीं चल पाती थी।’’
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सोच में नई चेतना का विकास:
ओमप्रकाश वाल्मीकि को शिक्षित करने में उनके परिवार ने उनकी सहायता की थी। वाल्मीकि के पिता भले ही अनपढ़ थे इसके बाद भी वह शिक्षा के महत्व को जानते थे। उनका एक उद्देश्य था कि पढ़ लिखकर जाति सुधारनी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को पढ़ाया और एक काबिल इंसान बनाया।
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ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रारंभिक शिक्षा बरला गांव में हुई थी। घर की आर्थिक तंगी से जूझते हुए वाल्मीकि ने अपनी शिक्षा पूरी की। उनके जीवन में बदलाव तब आया जब वह देहरादून के डी.ए.वी कॉलेज गए थे। यहां पर उनका परिचय अंबेडकर और गांधी की पुस्तकों से हुआ था । इन पुस्तकों के अध्ययन से वाल्मीकि की सोच में नई चेतना विकसित हुई।
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वंचित वर्गों पर ध्यान केंद्रित किया:
ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य के प्रति झुकाव था। उनका यह गुण उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग बनाता है। उनका मानना था कि साहित्य वही है जो सभी को समान नज़र से देखता है। वे साहित्य को नई दिशा और नया आयाम देना चाहते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अस्सी के दशक से लिखना शुरु किया था।
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1997 में वाल्मीकि जी की आत्मकथा “जूठन” प्रकाशित हुई थी। आत्मकथा जूठन की वजह से वह काफी चर्चित हुए थे। वाल्मीकि का मानना था कि दलितों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। उनका कहना था कि एक दलित ही दूसरे दलित की पीड़ा को सही ढंग से समझ सकता है और उसे अभिव्यक्त कर सकता है। इसलिए वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा जूठन में वंचित वर्गों पर ध्यान केंद्रित किया है।
दलित चेतना की अभिव्यक्ति:
वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन से यह पता चलता है कि किस तरह उत्पीड़न के बीच एक दलित रचनाकार की चेतना का विकास और निर्माण होता है। इस आत्मकथा के आधार पर यह भी पता लगता है कि किस तरह एक “चूहड़ा जाति” का बालक संवर्णो से मिली ठोकरों के बीच परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए दलित आंदोलन का क्रांतिकारी योद्धा ओमप्रकाश वाल्मीकि बनता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” दलित चेतना को अभिव्यक्त करती है।
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प्रमुख रचनाएं:
• कविता संग्रह:-सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (डॉ॰ रामचंद्र)
• कहानी संग्रह:- सलाम, घुसपैठिए, अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी
• आत्मकथा:- जूठन (अनेक भाषाओँ में अनुवाद)
• आलोचना:- दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य, सफाई देवता ।
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• नाटक:- दो चेहरे, उसे वीर चक्र मिला था।
• अनुवाद:– सायरन का शहर (अरुण काले) कविता-संग्रह का मराठी से हिंदी में अनुवाद, मैं हिन्दू क्यों नहीं (कांचा एलैया) लो अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद, लोकनाथ यशवंत की मराठी कविताओं का हिंदी अनुवाद।
• अन्य:- 60 से अधिक नाटकों में अभिनय, मंचन एवं निर्देशन, अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों में भागीदारी।
सम्मान:
- 1993 में उसे डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरुस्कार
- 1995 में परिवेश सम्मान
- 1996 में जय श्री सम्मान
- 2001 में कथाक्रम पुरुस्कार
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- 2004 में न्यू इंडिया बुक पुरुस्कार
- 2006 में उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा साहित्य भूषण सम्मान।
7 2007 में 8वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मानित किया गया।
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हिंदी दलित साहित्य के लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता। उनकी आत्मकथा जूठन आज भी दलित समाज की व्यथा के प्रति अपनी प्रासंगिकता व्यक्त करती है। दलित साहित्य के रचनाकार वाल्मीकि का निधन 2013 में आज के दिन 17 नवंबर को हुआ था। दलित साहित्य के योगदान के लिए उन्हें सदैव याद रखा जाएगा।
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