वरिष्ठ लेखक प्रेमकुमार मणि की टिप्पणी
Ravidas Jayanti Special : बैशाख, जेठ और माघ पूर्णिमा भारत के तीन संतों के जन्मदिन हैं। बैशाख और जेठ की पूर्णिमा बुद्ध और कबीर के, तथा माघ -पूर्णिमा रैदास के। पता नहीं, ये उनके सचमुच के जन्मदिन हैं, या लोकस्वीकृत; लेकिन हैं, तो हैं। इस बहाने हमें उन्हें याद करने का अवसर मिलता है, इसलिए मुझे भी यह अच्छा लगता है।
तो आज माघ मास की यह पूर्णिमा है -गुरु रैदासजी का जन्मदिन है। सबसे पहले हम उनके नाम का प्रणाम करते हैं, इसलिए कि हमारे पास उनके नाम के सिवा और क्या है। उनके जो विचार हैं, उन्हीं के नाम के हिस्सा बन गए हैं।
कबीर और रैदास दोनों बनारस में जन्मे। यही शहर उनकी कर्मभूमि भी था। दोनों आसपास या लगभग एक समय में रहे। अनेक किंवदंतियां दोनों की है। दोनों के विचार भी मिलते-जुलते हैं। दोनों एक ही सांस्कृतिक आंदोलन, भक्ति आंदोलन – के महान संत-विचारक थे।
रैदास और कबीर मध्यकाल के थे। उस समय के समाज की अपनी समस्याएं थीं। तुर्क आक्रमणकारियों और शासन ने बौद्धों और उनके शिक्षा केंद्रों को विनष्ट कर दिया था, जिससे कई तरह की सांस्कृतिक जटिलताएं उभरी थीं। वर्णाश्रम व्यवस्था सामंतवादी (आज कह सकता हूँ पूंजीवादी भी) सामाजिक ढाँचे केलिए काम की चीज थी। इसलिए पूरे देश में सामंतवाद ने इसे संरक्षण दिया हुआ था। यह सामंती-पुरोहिती गठजोड़ था, जिसमें दोनों फलफूल रहे थे, लेकिन इस व्यवस्था ने मेहनतक़श किसानों और दस्तकारों के लिए अत्यंत अपमानजनक सामाजिक स्थितियां बनाई हुई थी।
श्रमशील लोग ज्ञान और आध्यात्मिकता के लिए अयोग्य करार दिए गए थे। सामंती ढाँचे को महसूस होता था इन मेहनतक़श लोगों के आध्यात्मिक और ज्ञानी होने से उत्पादन व्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा और उनके स्वार्थ प्रभावित होंगे। यह उनकी अपनी व्याख्या थी। जनतंत्र नहीं था कि विमर्श की कोई सामूहिक प्रणाली विकसित होती। भारत में इस्लाम आया तब पहले चरण में तो उसने इस ब्राह्मणवादी वर्णाश्रम व्यवस्था की आलोचना की, लेकिन जल्दी ही उसका हिस्सा बन गयी। खुद मुस्लिम समाज में अशरफ ,अरजाल और अजलाफ श्रेणियां बन गयीं। नवाबों ने सामंती ढाँचे को पूर्व की अपेक्षाकृत अधिक शोषणकारी बना दिया।
कबीर और रैदास ने ऐसे ही जटिल समाज को सम्बोधित किया था। वह किसान नहीं, दस्तकार थे। मोची और बुनकर। जूते गांठने और चादर बुनने का पेशा था उनका। वर्णाश्रम प्रधान समाज में दस्तकारों की कोई इज्जत नहीं थी। वे अन्य थे। बाजार और संचार के साधन विकसित नहीं होने से उत्पादन के दाम उन दिनों कम मिलते थे। ग्रामीण दस्तकारों और नगरीय दस्तकारों में इसी कारण बहुत अंतर होता था। कुशल कारीगर शहरों में खिंचे चले आते थे।
निश्चित ही कबीर और रैदास के परिवार वाले कुशल कारीगर रहे होंगे, तभी बनारस में टिकना संभव हुआ होगा। नगर के बाजार बडे और समृद्ध थे। यहाँ इनके उत्पादन के वाजिब दाम मिलने से इनके जीवन में थोड़ा अवकाश भी सृजित हुआ होगा। इसी कारण इन्हे चिंतन का अवसर भी मिला। इनके पास अध्ययन का अभाव जरूर था। धर्मग्रन्थ तो इन्हें छूने की भी मनाही थी, लेकिन इनलोगों ने परवाह नहीं की। जिन धर्मग्रंथों ने इन्हे अछूत घोषित किया था, उन्हें ही इन लोगों ने अछूत घोषित कर दिया।
चिंतन की गहराइयों में पहुँच कर ज्ञान के मोती निकाले और उसे अपनी जनता को समर्पित किया। भक्तिआंदोलन के तमाम कवियों ने अपने पेशे और अपनी जाति पर गर्व किया। द्विजों ने उन्हें अछूत-नीच घोषित किया हुआ था। इसे उन्होंने चुनौतीपूर्ण रूप में स्वीकार लिया और इसे लिए दिए गैरबराबरी वाली अन्यायमूलक वर्णाश्रम-व्यवस्था पर हल्ला बोल दिया। ईश्वर का नाम लेकर जातिवाद पर आक्रमण करने वाला यह अद्भुत आंदोलन था। जाति-पाती पूछे नहीं कोई; हरी को भजै सो हरी का होई।
रैदास चामवाला थे (चायवाला नहीं)। चमार थे। उनकी जाति को समाज में कोई ऊँचा स्थान नहीं मिला था। इसे उन्होंने स्वीकार किया है, लेकिन अपनी सामाजिक श्रेणी को उन्होंने अपनी आध्यात्मिकता के लिए कहीं से बाधक नहीं माना। इसकी उपेक्षा की। उन्हें ही देखा जाय –
जाति ओछी, पाती ओछी, ओछा जनमु हमारा ।
रामनाम की सेवन किन्ही, कही रैदास चमारा ।।
कोई ब्राह्मण पूरी सृष्टि को शब्दमय देखता है। अक्षर ही उसका ब्रम्ह है। ॐ है उसकी दुनिया। रैदास अपनी पूरी सृष्टि को चाममय देखते हैं, ऐसा है उनका दर्प। —
जहां देखो वहां चामहि चाम
चाम के मंदिर बोलत राम
चाम की गौ, चाम का बछड़ा
चाम का हाती, चाम का राजा
चाम के ऊंट पर, चाम का बाज़ा
सुनो रैदास, सुनो कबीर भाई
चाम बिना देह किनकी बनाई .
(कमलेश वर्मा की किताब’ जाति के प्रश्न पर कबीर’ से उद्धृत)
रैदास और कबीर दोनों ने वर्णाश्रमवाद के विकल्प में एक नए समाज की प्रस्तावना और खाका पेश किया था। कबीर का लोक अमरदेस था और रैदास का बेगमपुरा। बेगमपुरा का अर्थ उल्लास की नगरी है। जाति-पाँति विहीन, वेद -पुराण के पाखंड से रहित कामगारों की यह दुनिया ऐसी है जिसमे बैठ कर खानेवाले गपोड़ों केलिए कोई जगह नहीं है। कार्ल मार्क्स का कम्युनिस्ट समाज भी यही तो है, लेकिन कुछ ही समय बाद तुलसीदास ने बेगमपुरा और अमरदेस को ख़ारिज करते हुए ” गौ -द्विज हितकारी ” रामराज की अवधारणा रखी।
अफ़सोस की बात कि हमारे साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी ने इसे उसका हिस्सा बना लिया। आंबेडकर और कई दूसरे लोग विरोध करते रहे, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन पर समाज के ऊँचे तबके का ऐसा दबदबा था कि कबीर और रैदास के विचार दरकिनार कर दिए गए। अब जब राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत लगभग खत्म हो चुकी है तब रामराज और राममंदिर के प्रश्न उभर कर राष्ट्रीय प्रश्न बन गए हैं। संसदीय लोकतंत्र मंदीरीय लोकतंत्र में परिवर्तित होने ही वाला है। यह लोकतंत्र मनुष्यों को जोड़ने वाला नहीं ,तोड़ने वाला होगा। जातिवाद और वर्णधर्म का उच्छेद संसदीय लोकतंत्र की आवश्यक शर्त है। यही समावेशी जनतंत्र होगा। रैदास ने इसे समझ लिया था कि जातिवाद के खात्मे के बगैर मानव समाज एक नहीं होगा।
जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पात ।
रैदास मानुस ना जुड़ सके, जबतक जाति न जात।।
ऐसे माहौल में हमें रैदास और कबीर की कुछ अधिक ही याद आती है। रैदास के जमाने में राजस्थान के राणा राजघराने की एक बहू मीरा ने रैदास की वाणी को सुना; बुद्ध की भाँति गृहत्याग किया और बनारस आकर उनकी शिष्या हो गयी।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहि जासु की।
संदेह-ग्रन्थ खंडन -निपन बानी विमल रैदास की।।
वेद-पुराणादि संदेह ग्रंथों का निपुणता से खंडन करने वाले गुरु रैदास को उनके जन्मदिन पर मीरा के शब्द उधार लेकर मैं भी बंदन करता हूँ।