दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में दलित मतदाता एक बार फिर निर्णायक भूमिका निभाएंगे। 12 आरक्षित सीटों और 17% दलित आबादी का वोट सत्ता का रास्ता तय करेगा। जाटव और वाल्मीकि समुदाय का प्रभाव कई सीटों पर निर्णायक है। राजनीतिक दल वादों और योजनाओं से उन्हें लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब दलित मतदाता केवल काम पर वोट देने को तैयार हैं। उनके समर्थन के बिना दिल्ली की सत्ता की कहानी अधूरी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर रहा है कि क्या इस बार भी दलित मतदाता सत्ता की चाबी तय करेंगे। दिल्ली में 70 विधानसभा सीटों में से 12 अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित हैं, और करीब 17% दलित मतदाता हैं। इनमें 38% जाटव और 21% वाल्मीकि समुदाय के लोग शामिल हैं, जो दिल्ली की राजनीति को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। इतिहास गवाह है कि दिल्ली की सत्ता पर वही पार्टी काबिज हुई है जिसने इन 12 आरक्षित सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया। 2020 और 2015 के चुनावों में आम आदमी पार्टी (AAP) ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज कर यह साबित कर दिया था कि इन सीटों का जीतना सत्ता की कुंजी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन आरक्षित सीटों के मतदाता केवल एक “चुनावी हथियार” बनकर रह गए हैं?
आप, बीजेपी और कांग्रेस: दलित हितों के वादे या छलावा?
2025 के चुनावों में हर पार्टी ने दलितों को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे किए हैं।
आप (AAP) ने अंबेडकर स्कॉलरशिप योजना, विदेश में पढ़ाई के इच्छुक दलित छात्रों की शिक्षा का खर्च उठाने का वादा, और सफाईकर्मियों के लिए हाउसिंग स्कीम जैसे कई घोषणाएं की हैं। लेकिन पिछले 10 वर्षों के शासन में क्या यह वादे पूरे हुए? हकीकत यह है कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले सफाईकर्मी आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। दिल्ली सरकार के कई मोहल्ला क्लीनिक दलित बस्तियों में अभी भी अधूरे पड़े हैं।
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बीजेपी (BJP) ने इस बार 14 दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है और 5 रुपये में भोजन उपलब्ध कराने की “अटल कैंटीन योजना” जैसी योजनाओं का वादा किया है। लेकिन भाजपा के लिए यह चुनाव “खोई हुई जमीन” को वापस पाने की चुनौती है, क्योंकि पिछले दो चुनावों में पार्टी एक भी आरक्षित सीट नहीं जीत सकी। 1993 में 8 सीटें जीतने वाली बीजेपी का प्रदर्शन धीरे-धीरे गिरता गया। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले दलितों के लिए वादे तो किए गए, लेकिन उनके लिए कोई ठोस नीति लागू नहीं की गई।
कांग्रेस ने अपने 15 साल के शासन में दिल्ली को विकास की राह पर तो जरूर लाया, लेकिन दलित बस्तियों के लिए स्थायी रोजगार, शिक्षा और स्वच्छता के मामलों में विफल रही। 2020 और 2015 में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई, और दलित समुदाय का उससे मोहभंग हो गया।
दलित बहुल इलाकों की अनदेखी
दिल्ली के 18 दलित बहुल विधानसभा क्षेत्रों में आज भी सफाई, पानी, और रोजगार की समस्याएं बनी हुई हैं। त्रिलोकपुरी, बवाना, सीमापुरी जैसे इलाकों में लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं। राजनीतिक दल चुनावी साल में यहां बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद इन इलाकों की सुध नहीं लेते।
“हमारा वोट सिर्फ वादों के लिए नहीं”: दलित समुदाय का रुख
त्रिलोकपुरी की सुनीता देवी कहती हैं, “हमारे घरों में पानी नहीं है, सफाईकर्मी आज भी सीवर में अपनी जान गंवा रहे हैं, और सरकार केवल वादे करती है। वोट मांगने आते हैं, लेकिन काम कोई नहीं करता।” घडोली के रामप्रसाद कहते हैं, “हर चुनाव में सिर्फ वादे सुनते हैं। हमें अब वह नेता चाहिए जो हमारी बस्तियों को बेहतर बनाए।”
क्या दलित सिर्फ ‘वोट बैंक’ बनकर रह गए हैं?
दिल्ली की राजनीति में दलित मतदाता का महत्व सिर्फ चुनावी साल में दिखता है। आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस सभी पार्टियां इन इलाकों में वादों की बौछार करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनके हालात जस के तस हैं। दलितों के लिए रोजगार, शिक्षा, और सामाजिक समानता की दिशा में ठोस कदम उठाने की बजाय उन्हें केवल वोट बैंक समझा जाता है। दिल्ली की आरक्षित सीटों और दलित बहुल इलाकों में आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
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2025 का चुनाव: क्या दलित करेंगे बड़ा फैसला?
2025 के चुनाव में दलित समुदाय की भूमिका निर्णायक होगी। लेकिन इस बार वे वादों पर नहीं, काम पर वोट करेंगे। अगर राजनीतिक दल अपनी रणनीतियों में बदलाव नहीं करते और दलित समुदाय के मुद्दों को गंभीरता से नहीं लेते, तो यह संभव है कि दलित मतदाता इन पार्टियों को सबक सिखाएं। दिल्ली की सत्ता की चाबी भले ही उनके हाथ में हो, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि वह किसे इसे सौंपते हैं।
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