आज़ादी के बाद दलितों के साथ हुआ पहला नरसंहार, जिसमें “44 दलितों को ज़मींदारों ने ज़िंदा जलाया था”

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हर साल 25 दिसंबर को विश्वभर में क्रिसमस का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। भारत में भी क्रिसमस की खासी रौनक देखने को मिलती है। लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि तमिलनाडु के कीझवेनमनी में रहने वाले दलितों के लिए ये दिन कड़वी यादों से भरा हुआ है। जिन यादों में सिर्फ चीत्कार है, गर्म खून से लथपथ हाथ हैं और ऊंची ऊंची आग की लपटों में झुलसती एक झोपड़ी और उस झोपड़ी में राख होते 44 दलित हैं।

बात आज़ादी के महज़ 21 साल बाद कि है। जब तमिलनाडु में ज़मींदारों ने 44 दलितों को मौत के घाट उतार दिया था। इन 44 लोगो में 8 से 10 साल के बच्चे भी थे। लेकिन ज़मींदारों को किसी पर रहम नहीं आया। यह आज़ादी के बाद दलितों के साथ हुआ पहला सबसे बड़ा नरसंहार था जिसे दलितों के क्रिसमस डे नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है।

जब जमीदारों ने 44 दलितों का नरसंहार किया:

तमिलनाडु का कीझवेनमनी इलाका जिसमे देवेंद्र कुला वेल्लर और पेरियार समुदाय रहता था। 25 दिसंबर 1968 की रात गोपालकृष्ण नायडू के साथ 21 सामंती जमींदारों और सैकड़ों उपद्रवियों ने गांव को अचानक घेर लिया। इस वक्त दलित पुरुष गांव से दूर थे। घरों में केवल महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग ही थे। जमींदारों ने सबसे पहले घरों से बाहर निकलने के सभी रास्ते बंद किये और फिर दलितों के घरों पर गोलियों की बौछार करना शुरू कर दिया।

कीझवेनमनी की तस्वीर जहां 1968 में 44 दलितों को ज़िंदा जला दिया गया ( image: thesouthfirst.com

जान बचाने के लिए लोग तितर-बितर होने लगे। लगभग 44 दलित पास की एक झोपड़ी में जाकर छिप गए। इनमें महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग ही थे। सभी को झोपड़ी में पाकर नायडू ने झोपड़ी का दरवाजा बंद कर दिया और मिट्टी का तेल डाल कर झोपड़ी में आग लगा दी।

बच्चों को झुलसती झोपड़ी में फेंक दिया:

आग से झुलसती झोपड़ी में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग सभी अंदर फंस गए थे।  कुछ महिलाओं ने अपने बच्चों को आग से बचाने के लिए खिड़की से बाहर फेंक दिया, तो जमींदारों ने बच्चों को पकड़ लिया और उन्हें वापस आग में फेंक दिया। दलित उस झोपड़ी से निकलकर न भाग पाए इसलिए तेज धार वाले औजारों और तीरों से बेधना शुरू कर दिया। जिन बच्चों ने भागने की कोशिश की उन्हें मार डाला गया। thesouthfirst.com की रिपोर्ट के मुताबिक दलितों के नरसंहार के लिए पहले तो जमींदार गोपालकृष्ण नायडू को दोषी माना गया लेकिन बाद में उसे बरी कर दिया गया।

ज़मींदारों ने दलितों को क्यों मार डाला:

1960 का दशक था, देश भर में हरित क्रांति की लहर थी।
अब तक वो दलित मज़दूर  जो न्यूनतम से बहुत कम वेतन में मजदूरी किया करते थे उन्हें वेतन में वृद्धि का अवसर दिखाई दिया। उनकी मांग केवल आधा बर्तन अधिक चावल जितनी थी।

कीझवेनमनी स्मारक जिसपर नरसंहार में मरने वाले 44 दलितों के नाम दर्ज हैं ( image: thesouthfirst.com)

मज़दूरों और ज़मीदारों के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता किया गया था, लेकिन भूस्वामियों ने वादे के अनुसार वेतन नहीं दिया। इसलिए मजदूरों ने सीपीएम के साथ मिलकर आंदोलन शुरू कर दिया। आंदोलन में करो या मरो का नारा दिया गया क्योंकि दलित मज़दूरों के लिए ये आंदोलन वेतन से अधिक उनकी गरिमा का था।

दलितों ने जमींदारों से सम्मान की मांग की।  उन्होंने मांग की कि उन्हें इंसान माना जाए न कि जानवर।  उन्होंने समानता की मांग की।  उन्होंने मांग की कि उनके शारीरिक श्रम का शोषण बंद हो।

दलित मज़दूरों ने महसूस किया कि उनको मिलने वाला वेतन उनकी जाति के आधार पर होता है न कि काम के आधार पर। इसके बाद दलित मज़दूरों ने ज़मीदारों के सामने ये मांग रखी कि उनका वेतन उनके काम के आधार पर दिया जाए न कि जाति के आधार पर। खुद के ख़िलाफ़ बगावत होते देख जमींदार संघ ने नवंबर 1968 में प्रमुख गोपालकृष्ण नायडू के नेतृत्व में बैठक की और उनके खिलाफ विद्रोह करने वाले दलितों के नरसंहार की योजना बनाई। जिसे 25 दिसंबर 1968 को अंजाम दिया गया।

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