देश के कितने राज्यों की कमान दलितों के हाथ में हैं ??

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बीते 15 जनवरी को राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्ननाथ पहाड़िया की जयंती थी। इस दौरान कई मीडिया वेबसइट ने उन पर आर्टिकल लिखे तो सोशल मीडिया पर राजस्थान के पहले दलित मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। राजस्थान में अब तक रही सरकारों में जगन्नाथ पहाड़िया पहले दलित नेता थे जो मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद से लेकर आज तक राजस्थान में कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना है।
यहाँ से एक सवाल मन में ये आता है कि राजस्थान जहाँ दलितों और आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा है वहाँ आज़ादी से लेकर अब तक सिर्फ एक ही दलित मुख्यमंत्री क्यों बना ? एक सवाल ये भी उठता है कि अब तक देश के कितने राज्यों की कमान दलितों ने संभाली है ? और वर्तमान में दलितों को क्यों सत्ता से महरूम रखा जा रहा है ?
इन सभी सवालों के जवाब के लिए बात सबसे पहले राजस्थान की कर लेते हैं..

राजस्थान में पहले और आखिरी दलित मुख्यमंत्री: जगन्ननाथ पहाड़िया

सबसे अधिक आबादी के लिहाज़ से राजस्थान देश का सातवा राज्य है, यहाँ 8 करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या रहती है। 8 करोड़ लोगो में भी सबसे ज्यादा आबादी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में दलितों की जनसंख्या 1 करोड़ 22 लाख 21 हजार 593 है, जो कि राज्य की कुल आबादी का 17.83 प्रतिशत है। वहीं राजस्थान में राजपूत और ब्राह्मण कुल आबादी का क्रमशः 9 और 7 प्रतिशत हैं।

जीतन राम मांझी, भोला पासवान शास्त्री और जगन्नाथ पहाड़िया

6 जून 1980 को जगन्नाथ पहाड़िया राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे हालांकि सिर्फ 13 महिने की सरकार चलाकर कांग्रेस आलाकामान ने 14 जुलाई 1981 को जगन्नाथ पहाड़िया को मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया था। साल 1949 से लेकर अब तक राजस्थान में 28 मुख्यमंत्री बन चुकें हैं। इनमें 1 बार जनता पार्टी, 4 बार बीजेपी औऱ 20 बार कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे हैं। वहीं 4 बार राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लग चुका हैं। इन 28 मुख्यमंत्रियों में एकलौते दलित मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया थे।

देश के इन राज्यों में एक बार बने हैं दलित मुख्यमंत्री:

भारत की आज़ादी के बाद आंध्र प्रदेश में दामोदरम संजिवैय्या पहले दलित मुख्यमंत्री थे। दामोदरम संजिवैय्या ने 11 जनवरी 1960 से लेकर 12 मार्च 1962 तक आंध्र प्रदेश की कमान संभाली थी। इसी के साथ 1962 में दामोदरम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले दलित अध्यक्ष भी बने थे।
वहीं भोला पासवान शास्त्री बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री थें। इन्होंने बिहार की तीन बार कमान संभाली थी। हालांकि तीनों बार उनका कार्यकाल बहुत छोटा रहा था। पहली बार साल 1967 में, दूसरी बार 1969 में 13 दिन के सीएम रहे थे, वहीं तीसरी बार जून 1971 से लेकर जनवरी 1972 तक बिहार में 222 दिन की सरकार चलाई थी। वहीं
रामसुंदर दास भी बिहार में दलित मुख्यमंत्री थे। जनता पार्टी में रहते हुए उन्होंने 1979 से 1980 तक बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला था। इसके बाद जीतनराम मांझी जदयू के नेता के तौर पर बिहार के 23वें मुख्यमंत्री रहें। वहीं दलित समुदाय से तीसरे मुख्यमंत्री थे। इन्हें केवल 10 महिने की सरकार चलाने का मौका मिला था।
महाराष्ट्र की बात करें तो सुशील कुमार शिंदे महाराष्ट्र में एकमात्र दलित मुख्यमंत्री रहें हैं। वहीं मायावती ने देश की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री के तौर पर उत्तरप्रदेश की चार बार कमान संभाली हैं। इसके अलावा पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी पहले दलित मुख्यमंत्री बने थे।

देश के किसी राज्य में नहीं हैं दलित सीएम:

वर्तमान में देखा जाए तो देश के किसी भी राज्य में कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं है। झारखंड छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए तो देश के किसी भी राज्य में आदिवासी और पिछड़े वर्ग से आने वाला मुख्यमंत्री भी नहीं है। झारखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी समुदाय से आते हैं तो वहीं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पिछड़ा वर्ग से आते हैं। बीते कई सालों का इतिहास उठाकर देखा जाए तो हम पाएंगे कि जितने भी राज्यों में दलित मुख्यमंत्री हुए हैं वह या तो कांग्रेस की सरकार में हुए हैं या किसी क्षेत्रीय दल में रहते हुए मुख्यमंत्री बने हैं।

लेकिन सवाल जस का तस की आखिर भारत के किसी भी राज्य में दलित मुख्यमंत्री क्यों नहीं?
इसका पहला कारण ये हैं जितने भी राज्यों में आज तक दलित मुख्यमंत्री हुए हैं उन्होंने कभी अपना कार्यकाल पूरा नही किया। इसे इस तरह से भी कहा जा सकता है कि कार्यकाल पूरा नहीं होने दिया गया। हालांकि मायावती के संदर्भ में ये बात 3 बार सही साबित होती है और चौथी बार में फैल क्योंकि मायावती जब चौथी बार मुख्यमंत्री बनी थी तब उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया था। वहीं वहीं एक कारण ये भी गिना जाना चाहिए कि राजनीति में दलितों की भागीदारी आज भी कम है। दलितों के पास उतने संसाधन नहीं है जिसके बुते वो राजनीति के समंदर में कूद सके। वहीं पूरे भारत में बीएसपी के अलावा कोई ऐसी पार्टी नहीं है जिसका पूरा फोकस दलित उत्थान के लिए हो और जिसमे भारी संख्या में दलितों की उपस्थिति हो।

इसका एक कारण 2022 में हुए पंजाब के विधानसभा चुनावों को लिया जा सकता है। 2022 के विधानसभा चुनावों में पंजाब पहला ऐसा राज्य था जहां पहली बार चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत से जीत मिली वहीं कांग्रेस और बीजेपी कुछ सीटों पर सिमट कर रह गई। कांग्रेस ने इस चुनाव में दलित दलित का ढोल खूब पीटा था। और पूरा चुनाव दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी के चेहरे पर लड़ा था हालांकि पंजाब में कॉंग्रेस कमाल ना दिखा सकी। इसलिए अब पार्टी सिर्फ दलित अत्याचार पर बात करेगी लेकिन दलित मुख्यमंत्री का चेहरा लेकर चुनाव में नहीं उतरेगी?

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