केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान एक लंबे भाषण के छोटे से अंश ने इस तथ्य को उजागर कर दिया कि भाजपा केवल “समावेशी राजनीति” का दिखावा करती है. यह पार्टी प्रतीकात्मक राजनीति में विश्वास करती है, जहां वंचित वर्गों को केवल चुनावी समीकरण साधने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पढ़िए सविता आनंद, लेखिका और चिंतक , पूर्व (निजी सचिव, अनुसूचित जाति/जनजाति मंत्रालय, दिल्ली सरकार का यह लेख
जिस बाबा साहब के संविधान की शपथ लेकर अमित शाह जी संसद के अंदर बैठे हैं उसी संविधान निर्माता के लिए इस तरह की भावना भाजपा के दोहरे चरित्र और ढोंग को दर्शाती है। जबकि संविधान की मूल भावना में ही हर नागरिक के लिए स्वर्ग निहित है, बशर्ते हम उस मूल भावना का आदर, सम्मान और समान रूप से पालन करें।
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने ऐसे समाज की संकल्पना की थी जहां जातीयता और जातिवाद के बंधन समाप्त हों और हर व्यक्ति समानता और गरिमा के साथ जीवन जी सके. उन्होंने संविधान को ऐसा आधार बनाया, जो भारत को सामाजिक न्याय और समावेशिता की दिशा में ले जाए. लेकिन आज के राजनीतिक परिदृश्य में उनकी इस सोच को राजनीति की चालबाजियों ने बौना बना दिया है।
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डॉ. आंबेडकर ने जातीयता और जातिवाद को समाज के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में देखा. उनका मानना था कि एक सशक्त समाज तभी बन सकता है, जब सभी नागरिकों को समान अधिकार, गरिमा और अवसर मिलें। उनके द्वारा रचित संविधान का हर अनुच्छेद इस सोच को दर्शाता है।
अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता और हर नागरिक को समान संरक्षण।
अनुच्छेद 15 और 17: किसी भी प्रकार के भेदभाव और अस्पृश्यता का निषेध।
अनुच्छेद 46: वंचित वर्गों के लिए विशेष प्रावधान।
आंबेडकर ने इन सिद्धांतों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया कि जाति, लिंग या धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति को भेदभाव का सामना न करना पड़े।
आरएसएस और भाजपा में भी अंतर:
आरएसएस में जातीयता स्पष्ट रूप से दिखती है. संघ के इतिहास में एक भी अवर्ण व्यक्ति सरसंघचालक नहीं बना. यह संगठन जातीयता की संरचना को बनाए रखता है. वहीं, भाजपा में जातीयता नहीं, बल्कि जातिवाद है. यह दलितों और वंचितों को प्रतीकात्मक पदों पर बैठाकर खुद को समावेशी दिखाने की कोशिश करती है. लेकिन यह दिखावा वास्तविकता से कोसों दूर है. भाजपा ने 2017 में रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर खुद को दलित समर्थक दिखाने की कोशिश की. हालांकि, यह केवल एक प्रतीकात्मक कदम था. 2020 में जब राम मंदिर का भूमि पूजन हुआ, तो तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को आमंत्रित तक नहीं किया गया।
यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भाजपा दलितों को केवल “सांकेतिक चेहरे” के रूप में देखती है, न कि उन्हें वास्तविक अधिकार या सम्मान देने के लिए।
अमित शाह ने संसद में डॉ. आंबेडकर पर जो टिप्पणी की, वह न केवल डॉ. आंबेडकर का अपमान है, बल्कि उनके द्वारा रचित संविधान और समतामूलक समाज के विचार का भी अपमान है.
भाजपा जानती है कि उसने प्रगतिशील और उदारवादी वोटरों का भरोसा खो दिया है. अब वह केवल रूढ़िवादी वोटरों को साधने की कोशिश कर रही है।
“वन नेशन, वन इलेक्शन” जैसी योजनाएं, “वक़्फ बोर्ड” पर सवाल उठाना, “बटोगे तो कटोगे” जैसे नारे,
यह सब भाजपा की रणनीति का हिस्सा हैं, ताकि वह अपने रूढ़िवादी वोट बैंक को बचा सके. भाजपा का “समावेशी चेहरा” केवल चुनावी फायदे तक सीमित है।
डॉ. आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को तोड़ने की बात की, जबकि भाजपा इसे बनाए रखने की राजनीति करती है. डॉ. आंबेडकर का संविधान भारत के लिए एक ऐसा मार्गदर्शक है, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की नींव पर टिका है. भाजपा और संघ की राजनीति उस सपने के ठीक उलट है. उनकी प्रतीकात्मक राजनीति और जातिवाद ने साबित कर दिया है कि वे डॉ. आंबेडकर के विचारों को केवल एक औजार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
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