क्या मायावती राजनीति में अकेली हो गयी हैं?

mayawati
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एक वो दौर था,एक ये दौर है…

ये एक शेर का हिस्सा है पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व सांसद,पूर्व विधायक और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्षा सुश्री मायावती पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। बहन जी राजनीति में एक ऐसे दौर में रही हैं जब 2007 में उन्होनें देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत लाकर तमाम राजनीतिक पंडितों और विश्लेषकों को चौंका कर रख दिया था। लेकिन एक दौर अब है जब मायावती की पार्टी उत्तर प्रदेश में सिर्फ 1 विधायक की पार्टी रह गई हैं।

आज स्थिति ये हो गयी है कि खुद मायावती जी अपने दम पर राज्यसभा तक भी नहीं पहुंच पाने की स्थिति में हैं। दलितों और पिछड़ों की राजनीति की समझ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आस मो. कैफ अपने एक ट्वीट में लिखते हैं कि “काश मायावती भी राज्यसभा में होती” क्योंकि वो इस सीनियर और झुझारू नेता की महत्वता को समझते हैं और पिछले 20 सालों से मायावती और बसपा की राजनीति को देख रहे हैं।

2007 से लेकर अब तक हुए विधानसभा से लेकर लोकसभा के चुनावों में लगातार बसपा का ग्राफ गिरा है। 2014 में शून्य सीट जीतकर बसपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा के साथ गठबंधन करते हुए 10 सांसद जीत लिए थे लेकिन अब 2022 में पिछले 42 सालों की राजनीति में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई हैं।

ऐसा क्यों हो रहा है,क्यों हुआ है आइये इस पर गौर कर करते हैं।

बड़े बड़े नेताओं का बसपा से मोहभंग..

आज ये ऑपिनियन लिखते हुए एक ब्रेकिंग न्यूज़ आ रही है कि पूर्व में बसपा सरकार में कैबिनेट मंत्री और कद्दावर ब्राह्मण नेता नकुल दुबे ने बसपा छोड़ दी है और वो कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। इनके अलावा मान्यवर कांशीराम के समय के पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राज बहादुर, आरके चौधरी, दीनानाथ भास्कर, मसूद अहमद, बरखूराम वर्मा, दद्दू प्रसाद, जंगबहादुर पटेल और सोनेलाल पटेल जैसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त हुआ करती थी।

स्वामी प्रसाद मौर्य, जुगुल किशोर, सतीश चंद्र मिश्र, रामवीर उपाध्याय, सुखदेव राजभर, जयवीर सिंह, ब्रजेश पाठक, रामअचल राजभर, इंद्रजीत सरोज, मुनकाद अली और लालजी वर्मा भी बसपा की रीति-नीति के सहभागी बने। मगर अब स्थिति ये है कि सतीश चंद्र मिश्रा ही एक बड़े नेता के तौर पार्टी में रह गए हैं और बाकी सभी ने बसपा से अलग राह अपना ली है।

यहां गौर करने वाली बात एक और है,मायावती या तो नेताओं को पार्टी से निकाल देती हैं या वो खुद पार्टी का दामन छोड़ देते हैं लेकिन ऐसा कभी नहीं होता है कि अपने नेताओं को मनाने या लुभाने का काम पार्टी या उनके नेता करते हुए नज़र भी आते हो।

लगातार जनता से नहीं जुड़े रहना

मायावती देश की राजनीति में एक बड़ा नाम हैं लेकिन क्या उन्हें युवा अपने नेता के तौर पर देखता है? क्या उन्हें दलित, पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज के युवा वर्ग अपनी समस्याओं में साथ खड़ा पाते हैं? तो फिर उन्हें किन वजहों से जनता वोट देगी या? समर्थन करेगी?

अब स्थिति ये है कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में बलात्कार पीड़िता की खबर पूरे देश मे फैल गयी थी। हाल ये था कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेता भी हाथरस पहुंच गए थे। युवा दलित नेता के तौर पर चमक रहें चंद्रशेखर भी वहां पहुंचें लेकिन मायावती वहां नहीं पहुँची थी.

अब जब मायावती ऐसी जगह तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिस समाज को वो अपना समाज कहती हैं उनके दुख और सुख में वो शामिल नहीं हो रही हैं तो क्या वो समाज चुनावों में उन्हें वोट देगा ? इस सवाल का जवाब आपको चुनावी रिज़ल्ट के बाद खुद ही समझ जाना चाहिए।

बड़े चेहरों का नहीं होना।

मायावती देश की राजनीति में बड़ा नाम हैं वो बड़े पदों पर रही हैं लेकिन क्या आप एक ऐसे बड़े चेहरे का नाम बता सकते हैं जो बसपा का दिग्गज नेता हो? या मध्यप्रदेश,राजस्थान ,पंजाब या बिहार जहां बसपा कुछ न कुछ सीट जीतती रही है वहां कोई एक बड़ा चेहरा हो जो बसपा का नेतृव करे या प्रचार या प्रसार करता हो? ऐसे चेहरों की बहुजन समाज पार्टी में बहुत बड़ी कमी है या यूं कहें कि अकाल है।

मायावती जिस मुद्दे की महत्वत्ता समझती हैं तो खुद प्रेस रिलीज़ आकर पढ़ती हैं और ज़्यादातर मीडिया के सवालों का जवाब नहीं देती हैं। इससे उनके कार्यकर्ताओं और प्रत्याशियों के मनोबल टूटता है और वो जो नीला झंडा हाथ मे उठाये हुए रहते हैं उस पर से उनकी पकड़ कमज़ोर होती है। जिसे मज़बूत करने वाला फ़िलहाल कोई नज़र नहीं आता है।

अब आगे क्या…

किसी भी राजनीतिक दल को मजबूत होने के लिए अपनी विचारधारा को जन जन तक पहुंचाना होता है और जनता का यक़ीन जीतना होता है लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है बसपा लगातार अपने पुराने कार्यकर्ता और वोटरों का यकीन खो रही है जिसका असर चुनावी नतीजों में भी दिख रहा है।

अगर बसपा को फिर से उठ खड़ा होना है जिसके लिए फिर से उन्हें अपनी ज़मीनी मेहनत शुरू करनी होगी। जो मान्यवर कांशीराम ने की थी और एक मूवमेंट खड़ा करके दिखाया था। अगर ऐसा नहीं हो सका तो बाबा साहब का की सोच का ये बहुजन समाज पार्टी वाला पेड़ जिसे कांशीराम जी ने लगाया था शायद अपनी जड़ों को और ज़्यादा कमज़ोर कर लेगा।

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