दुनिया में चल रहे भू-राजनीतिक संघर्षों को देखते हुए जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केन्द्रित रखना बेहद महत्वपूर्ण है। इस काम में ग्लोबल साउथ की भूमिका बहुत अहम है। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले साल भारत में जी20 के बाद अगली जी21 की अध्यक्षता भी ग्लोबल साउथ के पास ही है। ऐसे में वह एजेंडा निर्धारित कर सकता है। आखिरकार तीन दशकों की चर्चा के बाद सीओपी28 में स्वीकार किया गया कि समस्या की जड़ जीवाश्म ईंधन है और हमें उससे दूर जाने की आवश्यकता है। अगले दो साल महत्वपूर्ण होंगे। एक सफल सीओपी30 के लिए सीओपी29 का कामयाब होना ज़रूरी है। इसके लिए हमें इस वर्ष एक सफल जी20 की जरूरत है।
इस वर्ष, सरकारों, व्यवसायों और नागरिक समाज से अपेक्षा है कि वे दुनिया के जलवायु से जुड़े समाधान सुनिश्चित करने के लिए अपने सहयोग को व्यापक बनाएं ताकि साल 2025 तक जलवायु से जुड़ी सशक्त कार्रवाई योजनाएं तैयार की जा सकें जो ग्लोबल स्टॉकटेक के अनुरूप है, जिसे पिछले दिसंबर में आयोजित सीओपी28 में हुई चर्चाओं का परिणाम माना जाता है।
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए जी7, सीओपी29 और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जी20 में बहुपक्षीय मंचों से समाधान और अंतर्दृष्टि हासिल होने की उम्मीद है। इनमें वैश्विक उत्सर्जन, अनुकूलन से जुड़ी कमियों को दूर करना और 2030 तक सततता बढ़ाना भी शामिल है। जलवायु थिंक टैंक ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ ने 2024 में बहुपक्षीय बातचीत से पहले संदर्भ निर्धारित करने के लिए ग्लोबल साउथ के विशेषज्ञों के साथ एक वेबिनार का आयोजन किया।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के महासचिव श्री भरत लाल ने वेबिनार में अपने विचार रखते हुए जलवायु कार्यवाही को पटरी पर रखने में ग्लोबल साउथ की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया और कहा, “मुझे लगता है कि ग्लोबल साउथ के अपनी अहमियत जताने और एकजुट रहने का वक्त आ गया है। अच्छी बात यह है कि पिछले साल भारत में जी20 के बाद अगली जी21 की अध्यक्षता भी ग्लोबल साउथ के पास ही है। इसका मतलब यह है कि हम एजेंडा निर्धारित कर सकते हैं। अगर आप बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुझाए जा रहे सुधारों को देखें तो जाहिर है कि प्रक्रिया अब जारी है और इसकी रफ्तार को बनाए रखने की जरूरत है।’’
उन्होंने कहा, ‘विकसित दुनिया को उत्सर्जन कम करने और अपनी जिम्मेदारी उठाने की ज़रूरत है। दुनिया पहले ही कार्बन बजट के 80 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल कर चुकी है जिससे विकास के उत्सर्जनकारी रास्तों के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है। मैं यह देखकर हैरान हूं कि कई विकसित देश 2050 के लिए नेट ज़ीरो प्रतिबद्धताएं बना रहे हैं जबकि उन्हें 2025 तक डीकार्बनाइजेशन हासिल करने का लक्ष्य रखना चाहिए। मिसाल के तौर पर जर्मनी को लें। उसने 2045 तक नेट ज़ीरो के लिए प्रतिबद्धता जताई है लेकिन उसे यह लक्ष्य 2030 तक हासिल करना चाहिए। इसी तरह शेष यूरोप को यह लक्ष्य 2050 के बजाय 2031 में ही हासिल कर लेना चाहिए।’
स्टॉकटेक ने आगाह किया है कि पैरिस समझौते के तहत ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्यों को पूरा करने के मामले में दुनिया पटरी से उतर गई है। ऐसे वर्ष में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है जब 60 से अधिक देशों में चुनाव हो रहे हैं जिससे वैश्विक जलवायु नीतियों में निरंतरता के लिए भू-राजनीतिक जोखिम बढ़ने की आशंका है। खास तौर से इस साल यूक्रेन और गाजा में चल रहे संघर्षों के वित्तीय और सुरक्षा सम्बन्धी परिणामों पर नजर रहेगी।
क्लाइमेट ऑब्जर्वेटरी, ब्राजील की प्रतिनिधि स्टेला हर्शमैन ने जलवायु संरक्षण की कार्यवाही में विभिन्न महत्वपूर्ण शिखर बैठकों के महत्व और उनके परस्पर सम्बन्धों का जिक्र करते हुए कहा, ‘जी20, सीओपी29 और सीओपी30, इन सभी का आपस में कुछ न कुछ जुड़ाव है। जी20 और सीओपी28 खासे अहम थे। दोनों में ही इस बात को समझा गया कि हमारे लिए आवश्यक वित्त के आकार और ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिये हमें किस विज्ञान को बनाए रखने की जरूरत है। आखिरकार तीन दशकों की चर्चा के बाद हमने सीओपी28 में स्वीकार किया कि समस्या की जड़ जीवाश्म ईंधन है और हमें उससे दूर जाने की आवश्यकता है। अगले दो साल महत्वपूर्ण होंगे। एक सफल सीओपी30 के लिए सीओपी29 का कामयाब होना ज़रूरी है। इसके लिए हमें इस वर्ष एक सफल जी20 की जरूरत है।’
उन्होंने कहा कि अगले सीओपी में लक्ष्यों का एक नया चक्र बनाना होगा, जिन्हें इस सदी में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के कार्य के साथ जोड़ना होगा। लेकिन अगर हमारे पर वित्तीय संसाधन नहीं होंगे तो ऐसा करना नामुमकिन है। अमीर देशों ने हमेशा वादा किया है लेकिन कभी भी जलवायु वित्त से जुड़े अपने वादे को पूरा नहीं किया। इनमें प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर का वादा भी शामिल है। सीओपी29 में वित्त का जो नया लक्ष्य अपनाया जाना है वह कोई आसान काम नहीं है और जलवायु वार्ता की व्यवस्था करने में सक्षम होने के लिए हमारे पास बहुत कम समय है।
उन्होंने कहा, ‘अमीर देशों को सदियों से बनाए गए कार्बन बजट के इस दुरुपयोग की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। इसका मुद्रीकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके द्वारा बनाए गए नियम इसकी अनुमति नहीं देते हैं। यही वह बदलाव है जिसे करने का जी20 के पास अवसर है। जी20 इस समझौते के लिए राजनीतिक माहौल तैयार कर सकता है जिसे हमें सीओपी29 तक पहुंचाना है और सीओपी 30 में सफलता के लिए रास्ता खोलना है जो ब्राजील में आयोजित किया जाएगा।’
भारतीय प्रबंधन संस्थान, कोलकाता के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर रूना सरकार ने कहा कि जी20 अध्यक्ष के रूप में भारत की सबसे बड़ी जीत यह थी कि उसने जी21 हासिल किया और अफ्रीकी संघ को शामिल किया। परिवर्तन और विचारों को सतत विकास लक्ष्यों पर हुई वास्तविक प्रगति से जोड़ना जी20 के अध्यक्ष के रूप में भारत द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण काम है। दूसरा अहम कार्य ग्रीन डेवलपमेंट पैक था जो समावेशिता की समान भावना के साथ लाया गया था। इसमें कहा गया था कि सभी को एनडीसी में योगदान करने की जरूरत है। इस प्रक्रिया में दो चीजों यानी वित्त और प्रौद्योगिकी तक पहुंच को प्रमुखता दी गयी है। इस संदर्भ में, इसमें सुधार और बहुपक्षीय विकास बैंकों के विस्तार के बारे में बात की गई है ताकि एक तंत्र के रूप में काम किया जा सके जिसके माध्यम से यह वित्तपोषण किया जा सके।
एमडीबी सुधारों और वित्त के मुद्दे पर उन्होंने कहा, ‘कम से कम दो युद्धों और कई चुनावों के कारण दुनिया के एक बड़े हिस्से की व्यस्तता को देखते हुए मैं इस साल एमडीबी सुधारों को लेकर बहुत आशान्वित नहीं हूं। लेकिन बीज बोए जा चुके हैं और इस जी20 (ब्राजील) का उद्देश्य इसे सुदृढ़ करना और उन विशिष्ट तंत्रों पर चर्चा करना होना चाहिए जिनके माध्यम से यह किया जा सकता है।’
डीकार्बनाइजेशन की चुनौतियों का जिक्र करते हुए सरकार ने कहा, ‘‘मुझे हाल ही में पता चला कि अक्षय ऊर्जा से जुड़ी एक बड़ी परियोजना के लिए स्थानीय लोगों से जमीन छीन ली गई। यह प्रक्रिया उतनी ही अन्यायपूर्ण थी जितनी कि जब हमने जीवाश्म ईंधन संयंत्र स्थापित किए थे। केवल ऊर्जा परिवर्तन लाने का विचार इस बात की पहचान करना था कि हम ऐतिहासिक रूप से जो थे उसकी तुलना में अब अधिक सभ्य हैं इसलिए हमारा मानना है कि न्याय और मानवीय रूख के साथ बदलाव करना जरूरी है।
ट्रेंड एशिया, इंडोनेशिया में कार्यक्रम निदेशक अहमद अशोव बिर्री ने कहा, ‘ऊर्जा रूपांतरण किसी एक नहीं बल्कि अनेक सन्दर्भों में हो रहा है। पहले संदर्भ की बात करें तो यह जाहिर तौर पर राजनीतिक परिणाम और सार्वजनिक हित है, और यह जीवाश्म ईंधन के लिए भी सच है। ऊर्जा रूपांतरण का दूसरा पहलू अत्यधिक केंद्रीकरण है। हमने यह भी देखा कि अत्यधिक केंद्रीकरण के कारण इंडोनेशिया में पर्यावरण और श्रम सुरक्षा के मानक काफी निचले स्तर के थे जिसके कारण जोखिम में रहने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई।’
इंडोनेशियाई जेट-पी का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने कहा कि 2020 में जब हमने इंडोनेशिया में एक न्यायसंगत और उचित ऊर्जा प्रणाली के सिद्धांत बनाए तो ऐसे पांच सिद्धांत थे जिन पर हमने काम किया। सबसे पहले जवाबदेही और भागीदारी होगी। उसके बाद मानवाधिकारों का सम्मान और सुरक्षा होनी चाहिए। तीसरा, इसमें पारिस्थितिकीय और आर्थिक न्याय भी शामिल होना चाहिए। हमने इस परिवर्तन में तेजी लाने में मदद के लिए इंडोनेशियाई सरकार और निगमों द्वारा रणनीतिक कदम उठाये जाने की भी सिफारिश की है।
उन्होंने कहा, ‘इंडोनेशिया में जेटपी का मूल्यांकन करने में कई प्रक्रियात्मक समस्याएं हैं। जैसे कि उसमें कोई सार्थक जनभागीदारी नहीं है। सार्वजनिक इनपुट के लिए केवल दो सप्ताह का समय दिया गया था और बहासा सत्र सिर्फ तीन दिनों तक ही जनता के लिए खुला था। कोई निर्णायक और ठोस जानकारी भी नहीं थी और सार्वजनिक परामर्श के संदर्भ में प्रतिनिधित्व की समस्या थी। ये सभी प्रक्रियात्मक मुद्दे थे।’
ई3जी, दक्षिण अफ्रीका में वरिष्ठ एसोसिएट जे सी बर्टन ने जेटपी की व्याख्या, प्रमुख बाधाओं, चुनौतियां और अवसरों का जिक्र करते हुए कहा कि दक्षिण अफ्रीका ने दो साल पहले अपनी निवेश योजना जारी की थी। हालांकि प्रस्ताव 8.5 बिलियन का था लेकिन निवेश योजना लगभग 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर की है। इसे देखते हुए कि वास्तव में बिजली, ग्रीन हाइड्रोजन, नई ऊर्जा वाहनों और क्षेत्रीय परिवर्तन के लिए दानदाताओं ने आंशिक रूप से कदम बढ़ाया है लेकिन पिछले दो वर्षों में प्रतिबद्ध अनुदान लगभग दोगुना हो गया है, लेकिन घरेलू राजनीति समेत कई समस्याएं भी हैं।
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा है कि जेटपी विफल हो गए हैं, लेकिन दरअसल इस बात में कोई दम नहीं है। कम से कम दक्षिण अफ़्रीका के मामले में तो नहीं। मैं जेटपी को रूपांतरण को व्यवस्थित करने के लिए एक तंत्र और दानदाताओं, दाता सरकार और दक्षिण अफ्रीका के बीच एक समन्वय तंत्र के रूप में देखता हूं। हालांकि मुझे नहीं लगता कि जेटपी के बारे में यह सोचना सही है कि यह दुनिया के हर वित्तपोषण विकास और डीकार्बनाइजेशन और समाज से जुड़ी चुनौतियों को हल कर रहा है। वित्तपोषण और ज़मीनी स्तर पर परियोजनाओं का मिलान करना एक जटिल काम है जिसमें विभिन्न चरणों में कई अलग-अलग बाधाएं आती हैं। जेटपी कमियों की पहचान करने और उन्हें दूर करने के साथ-साथ कार्यान्वयन और शासन की जटिल राजनीतिक प्रक्रियाएं हैं। इसलिए, जेटपी का एक तंत्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि कई अलग-अलग तंत्र हैं जिन्हें एक साथ और धीरे-धीरे काम करने की जरूरत है।
क्रिश्चियन एड, अफ्रीका में सीनियर एडवोकेसी एडवाइजर जोआब ओकांडा ने जेटपी से जुड़े विभिन्न पहलुओं का जिक्र करते हुए कहा, ‘जेईटीपी की चुनौतियों के साथ-साथ अगर उन्हें अच्छी तरह से गढ़ा जाए और बेहतर ढंग से वित्त पोषित किया जाए तो इसमें बहुत सारे अवसर भी हैं। जी20 की मेज पर एयू खुद को और ग्लोबल साउथ को कैसे व्यवस्थित करता है, वह अपने एजेंडे में क्या रखता है और अगर उसे एजेंडे में स्वीकार किया जाता है तो यही बात पिछले साल भारत की अध्यक्षता की सफलता को निर्धारित करेगी। मैं महाद्वीप की वर्तमान आर्थिक स्थिति को देखते हुए ऐसा कह रहा हूं। अफ्रीकी देशों के पास परिवर्तन में निवेश करने के लिए कोई राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। उदाहरण के लिए, नाइजीरिया के लिए रूपांतरण का मतलब राजस्व, नौकरियों और आजीविका के साधनों का नुकसान करना है। इस समस्या के समाधान के लिए अकेले वित्तपोषण ही काफी नहीं है। प्रौद्योगिकी की जरूरत है, न कि दक्षिण को अप्रचलित प्रौद्योगिकी के डंपिंग ग्राउंड के रूप में इस्तेमाल करने की।’
उन्होंने कहा कि हमें जीवन रक्षक प्रौद्योगिकियों की जरूरत है, जिनका इस्तेमाल करके हम उन घटकों के निर्माण के लिए करते हैं जिनकी हमें रूपांतरण कार्य में जरूरत होती है। चूंकि इससे ग्लोबल साउथ को अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करके औद्योगिकीकरण करने में मदद मिलती है इसलिये यह बाकी दुनिया के लिए भी रूपांतरण को रफ्तार देगा।
डीकार्बनाइजेशन की चुनौतियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि डीकार्बनाइजेशन की प्रमुख चुनौती यह है कि हम एक ऐसी प्रणाली में काम करते हैं जिसे डीकोलोनाइज्ड घोषित नहीं किया गया है। आप डीकोलोनाइज किये बगैर डीकार्बनाइजेशन नहीं कर सकते। आप एक ऐसी प्रणाली में काम करते हैं जहां एक देश के पास बाकी दुनिया के वास्ते लिये जाने वाले लगभग सभी महत्वपूर्ण निर्णयों पर वीटो शक्ति होती है। सीबीएएम से अफ्रीका को सालाना 25 अरब डॉलर का नुकसान होने वाला है। यह आपको यह पूछने पर मजबूर करता है कि क्या सीबीएएम जलवायु कार्रवाई के लिए है या यह व्यापार का एक हथियार है। ग्लोबल साउथ को एक साथ आना चाहिए और यूरोपीय संघ और इंडोनेशिया मामले के संदर्भ में सीबीएएम के बारे में सोचना चाहिए।
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