बहुजन समाज पार्टी के प्रति मीडिया और बुद्धजीवी वर्ग के दोहरे मापदंड

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उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर एक बात बहुत ही तेजी से फैलाई जा रही है कि बहुजन समाज पार्टी भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से हटाने में असक्षम है। यह धारणा किस आधार पर बनाई जा रही है? तो इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं है। शायद ऐसी बातें इस आधार पर उठ रही हैं कि बीएसपी की राजनीतिक गतिविधि या चुनावी समीकरण और तैयारियाँ जमीन पर बहुत कम दिखती है। अगर यही मान लिया जाय। तो सवाल यह उठता है कि किसी पार्टी के अच्छे बुरे कामों को जन जन तक पहुंचाने व उसकी आलोचना करने का तंत्र और व्यवस्था किसके हाथ में है? एक लोकतान्त्रिक देश में यह ज़िम्मेदारी किसकी है? तो पाया यह जाता है कि यह काम मीडिया और देश के बुद्धजीवी वर्ग का है। क्या समाज में धारणा बनाने और उसे आमजन तक पहुंचाने के तंत्र और व्यवस्था पर क़ाबिज़ लोग अपने कर्तव्य के प्रति वफादार हैं? क्या भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में मुख्यधारा की मीडिया सही को सही और गलत को गलत कहने की क्षमता रखती है? इसके आलावा क्या यहाँ का बुद्धजीवी वर्ग अपने जिम्मेदारिओं को पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निभाता है? क्या बीएसपी के शासन में हुये जनहित कार्यों और नीतियों की आलोचना की अपेक्षा कभी सराहना हुई है? जवाब है नहीं क्योंकि बीएसपी के शासन में बुद्धजीवी वर्ग और मीडिया का जातिवादी प्रभुत्व खतरे में आ जाता है। बल्कि बीएसपी के विचारधारा और इसके नीतियों की आलोचना के समय आलोचकों के आवाज में जातीय घृणा और द्वेष भरा होता है। इस संदर्भ में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम की बात और भी प्रासांगिक हो जाती है जब उन्होने बहुजन समाज को मीडिया की धूर्तबाजी और चालाकी से सावधान रहने के लिए आगाह किया था।

हालाँकि इस प्रकार की धारणा बीएसपी के लिए बनना कोई नई बात नहीं है। बीएसपी के स्थापना के समय से ही तरह तरह की धारणा बनती रही है। हद तो तब हो जाती है जब 2007 के चुनाव में बीएसपी को लड़ाई में दूर दूर तक नहीं दिखाया गया। ये धारणा बनाई गयी कि बीएसपी का चुनाव जीतना तो दूर की बात लड़ाई में ही कहीं नहीं है। परंतु चुनाव परिणाम ने बीएसपी को चुनाव की लड़ाई से बाहर दिखाने वालों के मुँह पर तमाचा जड़ दिया। ऐसी धारणा बनाने वालों के षड्यंत्र और उसके उदेश्य को समझना है तो दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में होने वाले छात्रसंघ चुनाओं के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है। वहाँ पर बिरसा अंबेडकर फूले छात्र संगठन (BAPSA) (फूले, शाहू और अंबेडकर की विचारधारा में विश्वास करने वालों का संगठन) के खिलाफ़ भी ऐसी ही धारणा फैलाई जाती है कि बापसा को वोट न दें नहीं तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) (दक्षिणपंथी, आरएसएस की विचारधारा वाले छात्रों का संगठन) आ जाएगी। इस धारणा के आगे शोषित और वंचित समाज से आने वाले छात्रों के मुददे, सवाल, संघर्ष, विचारक और विचारधारा गौण हो जाती या नकार दिया जाता है। इस तरह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को हराना राष्ट्रहित और दुनिया का सबसे बड़ा मुद्दा हो जाता है, और बापसा जैसे संगठनों के संघर्ष को और उसके अस्तित्व को खतम करने का प्रयास किया जाता है। इस शृंखला में बापसा अकेला नहीं है, बल्कि पूरे भारत में इसके जैसे छत्र संगठनों चाहे वो केंदीय विश्वविद्याल हो या राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय या कालेजों और राजनीतिक दलों के साथ इसी प्रकार का षड्यंत्र रचा जाता है। इसलिए यह कहना कत्तयी अनुचित नहीं है कि बीएसपी के प्रति ऐसी धारणा बनाना कोई नई बात नहीं है।

दूसरा महत्वपूर्ण आरोप बीएसपी पर तब लग जाता है जब इसका शीर्ष नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए सम्मान सूचक शब्द प्रयोग करता है जैसे श्री, आदरणीय और मान्यनीय। प्रधानमंत्री के लिए या सरकार में शामिल दूसरे नेताओं के लिए सम्मान सूचक शब्द उपयोग करने से बीएसपी और उसके नेतृत्व पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप लगाया जाता है। सवाल यह बनता है कि क्या किसी लोकतान्त्रिक देश में जनता द्वारा चुनी गयी पार्टी और उसके  नेतृत्व के लिए सम्मान जनक शब्द का उपयोग करना गलत है? जबकि बीएसपी अपने पार्टी में शासन और अनुशासन के संस्कारपर बल देती रही है। बजाय उसके अनुसरण के उसकी बेबुनयादी आलोचना करना ओछी मानसिकता नहीं तो और क्या है? बीएसपी को बीजेपी का बी टीम होने के लिए एक और निराधार आरोप लगाया जाता रहा है। तर्क यह दिया जाता है कि बीएसपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष कु. मायावती बीजेपी सरकार के फैसले और नीतियों का स्वागत करती हैं। जबकि ध्यान दिया जाय तो मायावती उन नीतियों का स्वागत से ज्यादा समालोचना करती हैं। अर्थात किसी नीति और फैसले के नाकारात्मक और साकारात्मक दोनों पहलू पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करतीं हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो फैसलों और नीतियों के दुष्परिणाम और क्रियान्यवन पर ध्यान दिलाने पर बल देतीं हैं। परंतु घोर जातिवादी मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग बीएसपी और उसके नेतृत्व की कमियाँ गिनाने में ही अपनी सारी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता का उपयोग करतें हैं।

हालहि में बीएसपी राष्ट्रीय अध्यक्ष कु. मायावती की लखनऊ में आयोजित प्रबुद्ध वर्ग या ब्राह्मण सम्मेलन में इस बात की आलोचना हुई कि वो अब सरकार में आने पर सारा ध्यान दूसरे महत्वपूर्ण विकास कार्यों पर केन्द्रित करेंगी बजाय पार्क व मूर्ति बनवाने के। हालाँकि उस सम्मेलन में ही उन्होने तर्क दे दिया था कि मूर्ति और पार्क बनवाने के उनके कार्य लगभग पूरे हो चुके हैं, और वो अब प्रदेश में विकास के दूसरे महत्वपूर्ण कामों पर अमल करेंगी। परन्तु घोर जातिवादी और दोहरी मानसिकता के लोग अपने पारंपरिक कार्यों में लग गए। और बेबुनयादी आलोचना करने से पीछे नहीं हटे।     हास्यास्पद तो तब लगता है कि पार्क और महापुरुषों की मूर्तियाँ बनवाने के बजाय उनकी प्राथमिकता अन्य महत्वपूर्ण विकास कार्य पर होगी, वाली बात का उन लोगों ने भी जमकर आलोचना की जो लोग महापुरुषों की मूर्तियाँ लगवाने और पार्क बनवाने को जनता के पैसों की फ़िजूल खर्ची बता रहे थे। ये अनुमान लगाना मुश्किल हो रहा है कि इसकी आलोचना करने वाले अब सही बोल रहे है या पहले सही बोल रहे थे?

बीएसपी के ऊपर यह भी आरोप लगता है कि इसका नेतृत्व किसी आंदोलन में भाग नहीं लेते, अर्थात सड़क की लड़ाई लड़ने से बचते हैं। इस संदर्भ में आजाद समाज पार्टी के मुखिया चन्द्रशेखर की काफी सराहना होती है कि चन्द्रशेखर आज़ाद हर घटना के समय पीड़ित परिवार से मिलते है और उनको साहस देते है। हर मुद्दे को लेकर आंदोलन करते हैं। परंतु मायावती और बीएसपी ऐसे मामलों से दूर रहती है। तो सवाल यह उठता है कि क्या चंद्रशेखर आज़ाद का पीड़ित परिवार से मिलने मात्र से उस परिवार को न्याय मिल जाता है? क्या किसी पीड़ित परिवार से मिलने और सड़क पर आंदोलन मात्र से उस समाज पर अगली घटित होने वाली घटना रुक जाती है? तो जवाब है नहीं। क्योंकि प्रतिक्रियावादी आंदोलन का असर क्षणिक ही होता है। प्रतिक्रियावादी आंदोलन से व्यापक बदलाव व परिवर्तन की आशा निरर्थक है। इसके विपरीत बीएसपी क्रियावादी व रचनात्मक राजनीति व आंदोलन में विश्वास करती है। जिसकी नीव बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के द्वारा ही डाली गई थी। यहाँ तक कि उन्होने अपने परिवार के ही सदस्य के मरने की सूचना पाने के बावजूद भी अपने घर नहीं गए। अत: बीएसपी के नेता दूसरे नेताओं की तरह किसी मुद्दे को लेकर सड़क पर नहीं उतरते हैं और न ही समाज में घटित घटना के समय पीड़ित परिवार से नहीं मिलते हैं, इस प्रकार की आलोचना करने वालों को सर्वप्रथम क्रियावादी और प्रतिक्रियावादी आंदोलन और राजनीति का फर्क समझना होगा। इस फर्क को जानते हुये भी अगर इस आधार पर बीएसपी की आलोचना होती है तो वह व्यक्तिगत हित के लिए और किसी ओछी राजनीति से प्रेरित है।

अब बात करते हैं क्या सच में बसपा चुनावी रणनीति और तैयारियों में बिल्कुल पीछे है? तो बसपा के राष्ट्रीय सचिव और राजसभा सदस्य सतिश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में पूरे उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण वर्ग सम्मेलनों और संगोष्ठियों के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को बसपा के सुशासन और नीतियों के बारे में बताकर बसपा में जोड़ने का प्रयास क्या चुनावी रणनीति व चुनाव की तैयारी नही है?  इसी प्रकार बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भीमराजभर पूरे पिछड़े समाज के लोगों को बसपा से जोड़ने का मुहिम चला रहे हैं क्या यह भी चुनावी रणनीति और तैयारी नही है?  इस शृंखला में फेहरिस्त काफी लंबी है जिसमें प्रत्येक समाज से आने वाले नेता अपने अपने समाज के साथ साथ सर्व समाज को बसपा क नीतियों में विश्वास दिलाकर पाँचवी बार सरकार बनाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इसलिए यह कहना अनुचित नही है बसपा की आलोचना करने वाले ओछी मानसिकता ग्रस्त हैं और जातिवादी राजनीति से प्रेरित है।

डॉ. हवलदार भारती

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