इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने धीरेंद्र शास्त्री की सनातन हिंदू एकता पदयात्रा पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह यात्रा तभी सार्थक होगी जब दलितों और आदिवासियों से रोटी-बेटी का व्यवहार किया जाएगा और उन्हें मठ-मंदिरों में पुजारी बनने का अधिकार मिलेगा।
धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की सनातन हिंदू एकता पदयात्रा इन दिनों चर्चा का विषय बनी हुई है। इस यात्रा के उद्देश्य को लेकर जहां एक तरफ हिंदू समाज में एकता और समरसता लाने का दावा किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और राजनीतिक आलोचकों ने इसे खोखले वादों से भरा बताया है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने इस यात्रा का स्वागत तो किया, लेकिन साथ ही तीखे सवाल भी खड़े कर दिए। लीग के नेताओं ने कहा, “हम सनातन धर्म की एकता की बातों का सम्मान करते हैं, लेकिन क्या यह यात्रा तब तक सार्थक मानी जाएगी, जब तक दलितों और आदिवासियों से वास्तविक रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होगा?” लीग ने धीरेंद्र शास्त्री और उनके समर्थकों से पूछा कि क्या वे अपने मठों और मंदिरों में दलितों को पुजारी बनाने का साहस दिखाएंगे? क्या वे हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाएंगे?
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सनातन धर्म में समरसता के मुद्दे पर विवाद
धीरेंद्र शास्त्री के समर्थकों का कहना है कि उनकी पदयात्रा का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को एकजुट करना है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह एकता सिर्फ नारों और धार्मिक उत्सवों तक सीमित है। दलित और आदिवासी समाज के नेताओं ने भी सवाल उठाए हैं कि अगर समाज में वाकई समानता लाई जा रही है, तो दलितों के मंदिर प्रवेश, मठों में भूमिका और शादी-ब्याह जैसे मसलों पर चुप्पी क्यों है? कई जगहों पर आज भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं है, और रोटी-बेटी का व्यवहार तो दूर की बात है।
धीरेंद्र शास्त्री का जवाब: ‘ज्ञान न बघारें, प्रेम बांटें’
धीरेंद्र शास्त्री ने इन आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि सनातन धर्म हमेशा से समरसता का प्रतीक रहा है। उन्होंने मुस्लिम लीग को नसीहत देते हुए कहा, “जो लोग हमारे धर्म पर सवाल उठा रहे हैं, वे पहले अपने गिरेबान में झांकें। हिंदू धर्म में सुधार के प्रयास चल रहे हैं, लेकिन इसे राजनीतिक मुद्दा बनाना सही नहीं है।” इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सनातन धर्म में जाति की कोई जगह नहीं है, और उनकी यात्रा का उद्देश्य समाज में प्रेम और विश्वास का संदेश देना है।
दलित और आदिवासी समुदाय की प्रतिक्रिया: ‘बदलाव का इंतजार’
दलित और आदिवासी समुदाय के कई नेताओं ने धीरेंद्र शास्त्री की इस यात्रा पर अपने विचार साझा किए। उनका कहना है कि ऐसे आयोजनों से ज्यादा महत्व धरातल पर बदलाव लाने का है। समुदाय के लोगों ने मांग की कि मंदिरों और मठों में दलित पुजारियों को नियुक्त किया जाए, ताकि समाज को एक स्पष्ट संदेश दिया जा सके। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि रोटी-बेटी का व्यवहार केवल वादों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे वास्तविक जीवन में अपनाने की जरूरत है।
समरसता के नारों से आगे क्या?
धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की सनातन हिंदू एकता पदयात्रा एक अच्छा प्रयास हो सकता है, लेकिन इसके प्रभाव को आंकने के लिए जमीन पर बदलाव दिखना जरूरी है। जब तक दलितों और आदिवासियों के साथ वास्तविक समानता और सम्मान का व्यवहार नहीं होता, तब तक ऐसी यात्राओं का उद्देश्य अधूरा रहेगा। केवल भाषणों और नारों से समाज नहीं बदलेगा; इसके लिए मठों और मंदिरों को भी अपने द्वार खोलने होंगे, और समाज को जातिगत भेदभाव की बेड़ियों को तोड़ना होगा। सवाल यह है कि क्या सनातन धर्म के मठाधीश और धर्मगुरु इस चुनौती को स्वीकार करेंगे?
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