दिल्ली: प्रतिबंध के 10 साल बाद भी हाथ से मैला उठाने पर मजबूर है दलित

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कुछ साल पहले दिल्ली सरकार द्वारा एक दावा किया गया. दावा था की दिल्ली में एक भी हाथ से मैला ढोने वाला व्यक्ति नहीं हैं. इसलिए ऐसे लोगों के पुनर्वास के लिए कोई विशिष्ट कार्यक्रम भी नहीं है. जिसके लिए अरविंद केजरीवाल सरकार ने तीन साल पहले सीवेज की सफाई के काम का जिम्मा उठाते हुए सफाई के लिए 200 मशीनें भी खरीदी थीं. हर एक मशीन की कीमत थी 40 लाख…..
लेकिन आज भी स्तिथि ज्यों कि त्यों है, हाथ से मैला ढोने की यह प्रथा लगातार जारी है. साल 2013 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए एक निर्देश भी जारी किया था जिसके अनुसार बड़ी धूमधाम के साथ हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त कर दिया. या यूं कहे कि कागजों में इसे खत्म कर दिया गया. साथ ही राज्यों को भी ऐसा करने का निर्देश दिया गया.

Workers clean drains with bare hands (image: the Hans India)

5 सालों में 50 से अधिक मौतें

लेकिन कानूनों के बनने और लागू होने के बीच हमेशा से ही एक बड़ा अंतराल रहा है. जो कि दिल्ली में पिछले 5 सालों में हाथ से मैला ढोने के कारण हुई मौतो के आंकड़े से साफ देखा जा सकता है. न्यूज लॉन्डरी की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीते 5 सालों में हाथ से मैला ढोने वाले करीब 50 से अधिक कर्मचारियों की मौत हो चुकी है.

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बिना सुरक्षा उपकरण के सीवर की सफाई

एक ताजा मामला गणेश नगर से सामने आया है. जो बताता है कि सरकार के दावों और कार्यों में गरीबों और मजदूरों की क्या जगह है? प्रशासन के लिए उनकी सुरक्षा कितने मायने रखती है? 23 मार्च को नई दिल्ली के गणेश नगर मार्केट के सफाई कर्मचारियों को बिना किसी सुरक्षा उपकरण के सीवर की सफाई करने में लगा दिया गया.

सवाल यह है कि प्रस्ताव के 10 साल बीत जाने पर भी कुछ क्यों नहीं बदला? आखिर राजधानी ने इस प्रथा को समाप्त करने के लिए क्या किया?

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1993 के बाद से कुल 971 मौतें

भारत में हाथ से मैला ढोने पर “प्रतिबंध” को पूरे 10 साल बीत चुके हैं. लेकिन आज भी हाथ से मैला ढोने के दौरान कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते है. केंद्र सरकार हाथ से मैला ढोने से होने वाली मौतों को केवल शौचालयों मामलों में ही स्वीकार करती है. मतलब साफ है कि यदि गिनती ही नहीं होगी तो समस्या कहां से दिखेगी. हद तो तब हो गई जब बीते साल सरकार ने कहा कि भारत में 1993 के बाद से “हाथ से मैला ढोने के कारण एक भी मौत नहीं हुई, लेकिन सच तो कुछ और ही है. न्यूज लॉन्डरी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1993 के बाद से कुल 971 लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे.

Hunker
(image: Hunker)

पहले नं. पर उत्तर प्रदेश

रिपोर्ट के मुताबिक “सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान” हुई मौतों में उत्तर प्रदेश पहले नं पर, तमिलनाडु दूसरे और इसके बाद तीसरे नं राजधानी दिल्ली का है.
इसका कारण है राजधानी में एक सुनियोजित अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली का अभाव. एक ऐसी समस्या है जो सरकारी एजेंसियों की लापरवाहियों की वजह से जटिल हो चुकी है. हर साल नालियां जाम हो जाती हैं और सीवर लाइनें ओवर फ्लो होकर बहने लगती हैं.

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90 प्रतिशत लोग दलित समुदाय से

जानने की कोशिश करते है कि आखिर ये कौन लोग है जो कि प्रस्ताव पारित होने के 10 साल बीत जाने के बावजूद भी यह काम करने को मजबूर है? दिल्ली में लगभग 30,000 सफाई कर्मचारी हैं, जो सीवर, सेप्टिक टैंक, सार्वजनिक शौचालय और दूसरी चीजों की सफाई करते हैं. अधिकारियों के अनुसार इनमें से 90 प्रतिशत लोग वाल्मीकि समुदाय से आते हैं जो कि एक दलित उपजाति है. और विकास के अभाव और सामाजिक शोषण के चलते हाथ से मैला ढोने के लिए मजबूर है.
आखिर कब तक प्रशासन यू ही बस कागजों में देश के विकास को बताता रहेगा?

Note: लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े new laundry की एक रिपोर्ट से लिए गए है.

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