जीवाश्म ईंधनों से जुड़ी कंपनियां उपभोक्ताओं को फंसाने के लिए तमाम सरकारों के साथ मिलकर बुन रही हैं जाल

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कार्बन मेजर्स डाटाबेस के संस्थापक रिचर्ड हीडे के अनुसार जीवाश्म ईंधनों से जुड़ी कम्पनियां अपना उत्पादन यह कहकर बढाती हैं कि उपभोक्ताओं की मांग बढ़ रही है, पर यह एक गलत तथ्य है….

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Despite tall claims on emission reduction, major fossil fuel and cement industries are increasing production as well as emission of greenhouse gases. वर्ष 2016 के बाद से दुनिया में पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, कोयला और सीमेंट से सम्बंधित सबसे बड़ी 57 कंपनियों से जितना ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया गया है, वह वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधनों से सम्बंधित कुल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का 80 प्रतिशत से अधिक है। इन 57 कंपनियों में भारत के दो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम – कोल इंडिया लिमिटेड और ओएनजीसी – भी शामिल हैं। इन्फ्लुएंस मैप नामक संस्था ने कार्बन मेजर्स डाटाबेस पर उपलब्ध जानकारी के विश्लेषण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है।

इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में जलवायु परिवर्तन को रोकने से सम्बंधित पेरिस समझौते के समय हरेक देश और बड़ी उत्सर्जक कंपनियों ने जलवायु परिवर्तन को रोकने की प्रतिबद्धता जाहिर की थी, पर इसके बाद यह प्रतिबद्धता कहीं नजर नहीं आ रही है। जीवाश्म ईंधन से जुड़ी कंपनियों का उत्पादन और उत्सर्जन पेरिस समझौते के बाद के वर्षों में इससे पहले के वर्षों की तुलना में बहुत बढ़ता जा रहा है।

कार्बन मेजर्स डाटाबेस पर जीवाश्म ईंधनों से जुड़ी सबसे अधिक ग्रीनहाउस के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार 122 कंपनियों के उत्पादन और उत्सर्जन का ब्यौरा दिया गया है। इन कंपनियों में सरकारी और निजी, दोनों तरह की कंपनिया हैं। इन 122 कंपनियों में भारत से कोल इंडिया लिमिटेड (दसवें स्थान पर) और ओएनजीसी (46वें स्थान पर) के अतिरिक्त सिंगरेनी कोल फ़ील्ड्स (61वें स्थान पर) और अडानी इंटरप्राइजेज (118वें स्थान पर) के नाम भी शामिल हैं। इन कंपनियों में 82 पेट्रोलियम, 81 प्राकृतिक गैस, 49 कोयला और 6 सीमेंट उत्पादन से सम्बंधित हैं। ये सभी कम्पनियां अब तक 1421 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर चुकी हैं, जो वैश्विक स्तर पर इस क्षेत्र से कुल उत्सर्जन का 72 प्रतिशत है।

वर्ष 2022 में कार्बन ट्रैकर नामक संस्था ने दुनिया की जीवाश्म ईंधनों से सम्बंधित 25 सबसे बड़ी कंपनियों को पेरिस समझौते के तहत उत्सर्जन में कटौती से सम्बंधित निर्धारित लक्ष्य के आधार पर वर्गीकृत किया था। इसमें कंपनियों को ए से एच के पैमाने पर वर्गीकृत किया गया था। ए वर्ग में लक्ष्य के सबसे पास वाली कम्पनियां थीं जबकी एच वर्ग में लक्ष्य से सबसे दूर वाली कम्पनियां थीं। इस वर्गीकरण में ए, बी और सी वर्ग में कोई भी कंपनी नहीं थी, जबकि डी वर्ग में केवल एक कंपनी थी।

कार्बन मेजर्स डाटाबेस के संस्थापक रिचर्ड हीडे के अनुसार जीवाश्म ईंधनों से जुड़ी कम्पनियां अपना उत्पादन यह कहकर बढाती हैं कि उपभोक्ताओं की मांग बढ़ रही है, पर यह एक गलत तथ्य है। बड़ी कम्पनियां तमाम सरकारों के साथ मिलकर एक जाल बुन रही हैं, जिसके कारण उपभोक्ताओं को एकमात्र यही विकल्प नजर आ रहा है।पूरी दुनिया में बाढ़, चक्रवात, जंगलों में आग और भीषण जानलेवा गर्मी का प्रकोप भी बढ़ रहा है, पर दुनिया के सभी देश इन आपदाओं पर खामोश हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं का कारण वैज्ञानिक तापमान वृबृद्धि और जलवायु परिवर्तन बता रहे हैं और तापमान बृद्धि का मुख्य कारण जीवाष्म ईंधनों की बढ़ती खपत है। जीवाष्म ईंधनों में संलग्न कंपनियों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता जा रहा है और अब वे तेजी से नए क्षेत्रों में पेट्रोलियम पदार्थों की खोज और इसके उत्खनन की योजनायें बना रही हैं। वैज्ञानिक ऐसी परियोजनाओं को कार्बन बम का नाम दे रहे हैं क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों कार्बन डाइऑक्साइड और मीथेन का भरपूर उत्सर्जन होगा। बेहद खतरनाक माने जाने वाले परमाणु बम के तरह इसका असर केवल एक देश या क्षेत्र पर नहीं होगा, बल्कि इस उत्सर्जन का असर पूरी दुनिया झेल रही है।

वर्ष 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ था कि दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम कम्पनियां अपने कारोबार के विस्तार के लिए अगले एक दशक तक हरेक दिन औसतन 10.3 करोड़ डॉलर का निवेश कर रही हैं। इन योजनाओं से होने वाला कार्बन उत्सर्जन चीन द्वारा पिछले पूरे दशक के दौरान किये जाने वाले उत्सर्जन से भी अधिक होगा। चीन दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। दुनिया की बड़ी पेट्रोलियम उत्पादक कम्पनियां इस समय कम से कम 200 नई परियोजनाओं पर काम कर रही हैं, इनमें से 60 प्रतिशत से अधिक परियोजनाएं शुरू की जा चुकी हैं।

इन परियोजनाओं के पूरे जीवन चक्र के दौरान सम्मिलित तौर पर 1 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होगा, उत्सर्जन की यह मात्रा पूरी दुनिया द्वारा वार्षिक उत्सर्जन की मात्रा का 18 गुना है। इस सन्दर्भ में बड़ा तथ्य यह भी है कि पेट्रोलियम कंपनियों के विस्तार की योजनायें मध्य-पूर्व या रूस जैसे देशों में नहीं बल्कि तापमान वृद्धि पर प्रवचन देने वाले अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में शुरू की जा रही हैं।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार यदि दुनिया को तापमान वृद्धि की भयानक मार से बचाना है तब वर्ष 2030 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत की कटौती करनी पड़ेगी, पर इस चेतावनी से परे मानो उत्सर्जन को दुगुना करने की तैयारी चल रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार यदि वर्ष 2050 तक दुनिया को कार्बन-न्यूट्रल बनाना है तो वर्ष 2022 के शुरू से जीवाश्म ईंधनों की किसी भी नई परियोजना को शुरू नहीं करने के जरूरत है।

वर्ष 2015 में जब तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था तब वैज्ञानिकों ने बताया था कि पृथ्वी के नीचे दबे पेट्रोलियम पदार्थों के आधे, प्राकृतिक गैस के एक-तिहाई और कोयले के 80 प्रतिशत भण्डार को भूमि के नीचे ही रखना होगा। इसके बाद जब 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य पर चर्चा की जाने लगी, तब वैज्ञानिकों ने बताया था कि पेट्रोलियम पदार्थों के 60 प्रतिशत और कोयले के 90 प्रतिशत भंडारों को जमीन के नीचे ही रखना होगा। इस चेतावनी के बाद भी कंपनियों में नए भंडारों को खोजकर उनके उत्खनन की होड़ लगी है और दुनिया तमाशा देख रही है।

संयुक्त राष्ट्र के सेक्रेटरी जनरल बार-बार कहते रहे हैं कि जीवाश्म ईंधनों की नई परियोजनाओं में निवेश नैतिक और आर्थिक तौर पर पागलपन से अधिक कुछ नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि दुनियाभर में पर्यावरण कार्यकर्ताओं को सनकी कहा जाता है, उनकी हत्याएं कर दी जाती हैं, पर सही मायने में सनकी जीवाश्म ईंधनों का कारोबार करने वाली कम्पनियां हैं। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के मुखिया ने कहा है कि जीवाश्म ईंधनों की नई परियोजनाओं से न तो वैश्विक उर्जा संकट पर और न ही कीमतों पर कोई असर पड़ेगा, इन परियोजनाओं से बस पृथ्वी का विनाश होगा।

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