बढ़ता वैश्विक तापमान विभिन्न तंत्रों के माध्यम से डीएनए को प्रभावित कर सकता है और संभावित रूप से अजन्मे और नवजात शिशुओं में विकलांगता में योगदान कर सकता है….
दीपमाला पाण्डेय की टिप्पणी
साल 2023 में पृथ्वी की औसत भूमि और महासागर की सतह का तापमान 20वीं सदी से 2.12 डिग्री फ़ारेनहाइट (1.18 डिग्री सेल्सियस) अधिक था। यह आंकड़ा साल 1850 से अब तक रिकॉर्ड किया गया उच्चतम वैश्विक तापमान है। इसने, इससे पहले अब तक के सबसे गर्म वर्ष, 2016 को 0.27 डिग्री फ़ारेनहाइट (0.15 डिग्री सेल्सियस) के अंतर से पीछे छोड़ दिया है। इस साल भी गर्मी बढ्ने की ही संभावना है।
डर लगता है ना ये पढ़कर? एसी, कूलर, पंखा, और पानी भी याद आ गया ना? लेकिन क्या गर्मी सिर्फ पसीना और थकान ही है? क्या आपने कभी सोचा है कि बढ़ता तापमान हमारे शरीर की संरचना तक को प्रभावित कर सकता है?
जी हाँ। बढ़ता तापमान सिर्फ गर्मी का बढ़ता एहसास ले कर नहीं आता। बढ़ता तापमान कुछ और भी बताता है। ऐसा कुछ बताता है जिसे सुनने और समझने के लिए हमें अपनी सोच को विस्तार देना होगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो बढ़ते तापमान ने जहां एक ने न सिर्फ जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है, वहीं इसने इंसानों के जीवन पर भी गहरा असर डाला है। इतना असर की हमारी सोच से भी परे इसके आयाम हैं।
आपको जान कर हैरानी होगी कि बढ़ता तापमान हमारे डीएनए को भी नुकसान पहुंचा रहा है! और यह नुकसान जन्मजात दोष और दिव्यांगता का खतरा बन रहा है।
बढ़ती गर्मी और दिव्यांगता
साल 2018 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि गर्मी के संपर्क में आने से गर्भपात, समय से पहले जन्म और कम जन्म वजन का खतरा बढ़ जाता है। वहीं साल 2020 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि गर्मी के संपर्क में आने से बच्चे में जन्मजात दोष, विकासात्मक देरी और सीखने में कठिनाई का खतरा बढ़ जाता है।
साल 2021 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि दिव्यांग लोग जलवायु परिवर्तन से होने वाले मानसिक स्वास्थ्य प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। इतना ही नहीं, साल 2019 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिव्यांग लोग जलवायु परिवर्तन से होने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जैसे कि आवास, भोजन, और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में कमी।
हाल ही में, साल 2022 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन से दिव्यांग लोगों की सामाजिक समावेश और भागीदारी में बाधा आ सकती है।
जलवायु और जीन
जलवायु परिवर्तन का असर गर्भवती महिलाओं और उनके गर्भस्थ बच्चों के जेनेटिक स्वास्थ्य पर पड़ सकता है। गर्भवती महिलाओं को गर्मी से अधिक संघर्ष करना पड़ सकता है, क्योंकि उनका शरीर तापमान को अच्छी तरह से नियंत्रित नहीं कर पाता है। इससे गर्भपात, बच्चे का ठीक से विकास न होना, बहुत छोटा पैदा होना, बहुत जल्दी बच्चे का जन्म होना या जन्म के समय समस्याएं होना जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
जब गर्भवती महिलाएं बहुत अधिक गर्मी के संपर्क में आती हैं, तो यह उनके और उनके बच्चों दोनों के लिए जन्मदोष और अन्य बुरे परिणाम पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए, इससे शिशु का विकास बहुत धीमी गति से हो सकता है, जन्म के समय उसे सांस लेने में परेशानी हो सकती है, उच्च रक्तचाप हो सकता है, या शिशु का जन्म बहुत जल्दी हो सकता है। गर्मी शिशु के मस्तिष्क के विकास को भी प्रभावित कर सकती है, जिससे संभवतः ऑटिज़्म जैसी स्थितियाँ हो सकती हैं।
जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी आनुवंशिक विविधता इस बात तक को प्रभावित कर सकती है कि किसी आबादी में कितने बच्चे पैदा होते हैं। इसलिए यह समझना वास्तव में महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन, आनुवंशिकी और गर्भावस्था कैसे जुड़े हुए हैं। हमें इन परिवर्तनों से निपटने के तरीके खोजने होंगे। हमें जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने वाली चीजों को कम करने पर काम करना चाहिए, डॉक्टरों और लोगों को इसके बारे में अधिक जानने में मदद करनी चाहिए, सुनिश्चित करना चाहिए कि हर किसी को अच्छी जानकारी हो, खासकर उन जगहों पर जहां संसाधन सीमित हैं, और यह समझने के लिए और अधिक शोध करना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन गर्भधारण को कैसे प्रभावित करता है।
बात विज्ञान की
वैज्ञानिक मानते हैं कि बढ़ते वैश्विक तापमान और हीटवेव जीवों में बांझपन और मनुष्यों सहित प्रजातियों के विकलांगता का खतरा बढ़ाने में योगदान दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त, ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाली अत्यधिक गर्मी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ख़राब कर सकती है, मृत्यु दर में वृद्धि कर सकती है और हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकती है।
इसके अलावा, आनुवांशिक अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी कि बढ़ती तीव्रता सेल डेथ एपोप्टोसिस से संबंधित जीन में संभावित परिवर्तन हो सकते हैं। ये परिवर्तन न केवल वर्तमान पीढ़ियों को प्रभावित कर सकते हैं बल्कि भविष्य की संतानों पर भी प्रभाव डाल सकते हैं।
सरल शब्दों में कहें तो उपलब्ध वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर, इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ता वैश्विक तापमान विभिन्न तंत्रों के माध्यम से डीएनए को प्रभावित कर सकता है और संभावित रूप से अजन्मे और नवजात शिशुओं में विकलांगता में योगदान कर सकता है।
(लेखिका बरेली के एक सरकारी विद्यालय में प्रधानाचार्या हैं और दिव्यांग बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा में लाने के अपने प्रयासों के चलते माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम में भी शामिल हो चुकी हैं।)
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