भीमाकोरे गाँव शौर्य दिवस, मुट्ठी भर महारो की है शौर्य गाथा

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आज का दिन 1 जनवरी 2022  को हम  1818  में भीमा नदी के किनारे स्थित भीमा कोरेगांव में हुए उन शूरवीर  वीर, महार (दलित ) योद्धाओं की याद में मानते है जिन्हो ने तत्कालीन पेशवा शासको को एक शौर्यता की ललकार व आगाज़ दी थी. हम उनकी वीरता को श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें सादर नमन करते है और उनके संघर्ष व विजय को पुरे दलित समाज की विजय के रूप में देखते है. प्रस्तावित लेख 200 साल पहले हुए उन वीर महारों व पेशवाओ के मध्य हुए  युद्ध  को शौर्यदिवस के रूप में  याद करने का एक छोटा सा प्रयास हैं. इस दिन के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास करेंगे की आखिर में उन 500 महार सैनिकों की भेद- भाव व शोषण के विरुद्ध  उठे जुनून की क्या पराकाष्ठा थी और इस बात का भी विश्लेषण करेंगे की उस समय की सामाजिक जातिगत भेद -भाव व शोषण से महारों की  दयनीय स्थिति की आखिर में क्या चरम सीमा थी जिसकी वजह से इन मुठ्ठी भर 500 सैनिकों ने 28000 पेशवा सैनिकों को धूल चटा दी. यह लेख  भारत के दलित इतिहास के पन्नो पर दर्ज उन शूरवीर दलित योद्धाओं व जुझारू, बुद्धिजीवी दलित महिलाओं के घोर सामाजिक तिरस्कार, पीड़ा, त्याग व महान इतिहास पर पड़ी धूल को एक बार फिर से झाड़ने और वर्त्तमान समय में आज के दलित युवा पीढ़ी को जागरूक कराने व उन्हें अपने इस महान दलित इतिहास पर गर्व करने का भी यह एक छोटा सा प्रयास है. यहाँ पर हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि आखिर क्यों नहीं हमें आज के इस पावन दिन को भी भारत में मनाए जाने वाले अन्य त्योहारों की ही भांति अति उल्लास व उत्साह के साथ मनाया जाना चाहिए।

शौर्यदिवस के इस गौरवान्वित इतिहास को खंगालना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि कहा जाता है कि इतिहास को अगर नहीं मांझा जाएगा तो इतिहास मर जाएगा और जब -जब इतिहास छुपाया या भुलाया गया है तो तब-तब उस इतिहास में मौजूद उन वीर महान योद्धाओं के संघर्ष की कहानी भी वही दफ़्न हुई है. इसलिए हमें इतिहास को लगातार पुनः जागृत और इस्सके किसी ना किसी रूप में प्रसार करते रहना चाहिए ताकि हम अपनी दलित अस्मिता को कायम रख सके। हमें अपने दलित योद्धाओ और नायक, नायिकाओं के संघर्ष को एक महान इतिहास के तौर पर हमेशा इस लिए भी अपने जहान में रखना चाहिए क्यों की जब इतिहास मरता है तो उसके नायक और नायिका भी मर जाते है. और जब  तो समाज नेस्तनाबूद हो जाता है उसकी जड़े खत्म हो जाती हैं और नायक और नायिका मरते है तो  समाज उनको भूल जाता है. तो अगर हमको अपने समाज की जड़ों को मजबूत करना है और समाज के लोगों को उत्साहित करना है तो हमें यह संघर्ष याद करते रहना चाहिए और अगर हम यह संघर्ष याद करेंगे तो चाहे वह दलित नायिकाओं में उदा देवी पासी हों , झलकारी बाई कोरी हों ,रमा बाई हों फिर हमें  उनकी वीरता अपने आप स्वता याद आ जाएगी अगर उनकी वीरता याद आएगी तो हम ना केवल अपने दलित योद्धाओ बल्कि अपनी  महान दलित महिलाओं के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर पाएंगे।

हमें  सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि आज हमारा वजूद केवल उनकी त्याग तपस्या और संघर्ष के बदौलत है.शौर्यदिवस जातिगत भेद- भाव से उपजे शोषण  व संघर्ष की ऐसी ही एक अपमान व पीड़ा की कहानी है जो आज बहुत से दलित युवाओं की संज्ञानता से परे है जो की ना केवल आश्चर्य करने वाली अपितु अफ़सोस की भी बात है.हमें शौर्य दिवस को केवल एक महान दलित पर्व के रूप में ही नहीं मानना चाहिए बल्कि हम दलितों के साथ भूत व वर्तमान समय में हो रहे हर प्रकार के भेदभाव व अपमान के कारणों को भलीभांति समझने और इसके पीछे छिपे जातिगत सामाजिक और  राजनैतिक  षड्यंत्र को समझने की भी अत्यंत आवश्यकता है. हम अपने इतिहास को सदैव ध्यान में रखें इसीलिए बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर आज के ही दिन, 1 जनवरी को कोरे गांव में जाकर शौर्य दिवस को एक दलित ऐतिहासिक पर्व दिवस के रूप में घोषित कर दिया. अतः हमें इस दिन को अपने जीवन में कभी नहीं भूलना चाहिए और हम सभी दलित भाई बहनों को विशेषकर दलित युवा पीढ़ी को शौर्यदिवस को प्रतिवर्ष उत्साह व प्रेरणा के रूप में मानना चाहिए.

लेखक – शिप्रा सिंह, जेनयू रिसर्च स्कॉलर.

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