अमृतकाल : दलित, आदिवासियों से छीनता जीवन और मौलिक अधिकार

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बीते दिन देश में आज़ादी का 75वी वर्षगांठ मनाया गया, और ये आवयश्क रूप से उत्सव की भांति मनाया भी जाना चाहिए। आखिरकार बड़े संघर्ष और बलिदान से हमे ये आज़ादी मिली है।

और देश को अपना संविधान, जो सभी नागरिको को सामान अधिकार और अवसर देता है | और सभी के सामान अधिकार और अवसर को संरक्षित, सुनिश्चित करना देश के सरकारी तंत्र, राज और केंद्र की सरकारें एवं न्यायपालिकाओं का कर्त्यव है। लेकिन क्या इतना पर्याप्त है, अवश्य ही होगा। बीते इन 75 सालो में भारत ने बहुत तरक्की की है, दुनिया भर में भारत ने परचम फहराया है। मंगलयान से लेकर दुनिया भर के टॉप टेक कंपनियों में भारतीय सीईओ का होना इस बात की तस्दीक करता है। पीएम मोदी ने आज़ादी की 75वी वर्षगांठ के अवसर पर देशवासियो से अमृतकाल उत्सव मनाने का आह्वान किया है। आये दिन भारतीय जनता पार्टी और सोशल मीडिया के ईंधन से उफान पे राष्ट्रवाद में डूबे हुए स्व घोषित चरम राष्ट्रवादी भारत को विश्वगुरु बनाने को लेकर नैतिकता का पाठ लोगो को सिखाते हुए मिल जाते है इसके लिए अभद्र भाषा के अविरल प्रयोग से लेकर दूसरी पॉलिटिकल पार्टियों और दूसरी विचारधारा के लोगो को देशद्रोही का सर्टिफिकेट देने से भी नहीं हिचकते है।

हिंदुत्व के विश्वगुरु बनने से आशय है की दुनियाभर के देशो के सामने एक ऐसे विकल्प की तरह जो किसी के साथ अन्याय नहीं करता, छोटे से छोटे देशो को भी अपनी बात रखने का अवसर देता है । लेकिन क्या ये संभव है ? ” अपने गिरेबान में झांकना ” इस कहावत का आशय यह है की किसी दूसरे का मार्गदर्शक बनने से पहले, किसी अन्य की कमियां गिनाने से पहले अपने अंदर झांक कर यह देखना की हम भी उसी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त तो नहीं है। आज़ादी के 75 साल बाद भी आये दिन दलितों, आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार की खबरे अखबार की सुर्खिया बनती रहती है। एक भी दिन दलितों, आदिवासियों के शोषण और उत्पीड़न के खबरों के बिना नहीं जाता। विश्वगुरु बनने का कपोरकल्पना देखने वालो के चेहरे पे ये किसी तमाचे से कम नहीं है।

कही शादी के लिए जाते दलित दूल्हे को घोड़ी से उताकर स्वर्णो द्वारा उसकी हत्या करना या फिर कर्णाटक के तुमाकुरु जिले में एक दलित सांसद को मंदिर में प्रवेश ना करने देना। हाल में ही राजस्थान के जालौर में पानी पीने को लेकर दलित बच्चे की बेहरमी से पीट पीट कर शिक्षक द्वारा की गयी हत्या हो या फिर महाराष्ट्र के निर्दलीय सांसद नवनीत राणा और उनके निर्दलीय विधायक पति को महाराष्ट्र के उस समय के रहे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के निवास स्थान के बाहर हनुमान चालीसा पढ़े ले जाने को लेकर पुलिस द्वारा थाने में दलित होने के कारण वाथरूम का इस्तेमाल ना करने देना। ये तो दलितों के साथ हो रही अमानवीय घटनाओ का बानगी भर है। जब जनता के चुने हुए प्रतनिधियो के साथ ये सब होना समान्य घटनाये मान कर भुला दिया जाता है, तो आम दलित, आदिवासियों की दयनीय स्थिति की बारे में सोचना ही तर्कसंगत नहीं लगता। जाति व्यवस्था ने, ना सिर्फ लोगो को, उनकी सोच को विभाजित किया है अपितु देश के मूल निवासियों के साथ हो रहे शोषण, उत्पीड़न का भी एकमात्र कारण है जो बिना किसी अपराध के जन्मजात अपराधी की भांति सजा भुगत रहे है। और ये सज़ा देश की आज़ादी की तरह 75 साल की ना होकर सदियों से अनवरत चली आ रही है।

जहा देश में अमृतकाल उत्सव मनाया जा रहा है वही देश के दलितों, आदिवासियों के उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखने का भी प्रयत्न चल रहा है। हालत ये है की पिछले कुछ सालो में दलितों, आदिवासियों पर अप्रत्याशित दर से हमले बढ़े है। उनके खिलाफ अत्याचारों में, अपराधों में काफी बढ़ोतरी हुई है। मानसून सत्र में केंद्र सरकार की तरफ से उपलब्ध आकड़ो के अनुसार, 2018 में दलितों पर 42,793 और आदिवासियों पर 6,528 अत्याचार के मामले दर्ज़ हुए जो बढ़कर साल 2020 में दलितों पर 50,000 और आदिवासियों पर 8,272 हो गए है। आये दिन दलितों और आदिवासियों पर बढ़ते हमले यही दर्शाते है की भले ही देश को आज़ादी मिले 75 साल हो गए लेकिन इन 75 साल के बाद भी दलितों को उनके साथ हो रहे भेदभाव, शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न और उनके अधिकारों के हनन से आज़ादी नहीं मिली है।

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