उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने अपना कमर कस लिया है। अगर के कई पार्टियों ने दूसरी पार्टियों के साथ अपना गठबंधन कर लिया है या कर रही हैं। ये गठबंधन सीटों को लेकर आपसी तालमेल के कारण बन रहे हैं। वास्तविक रूप से देखा जाए तो इस बार मुकाबला त्रिकोणीय है। यहां सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ एक तरफ समाजवादी पार्टी ने तो दूसरी तरफ बहुजन हिताय की बात करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने मोर्चा खोल रखा है। जहां समाजवादी पार्टी विभिन्न छोटे-मोटे दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव जीतने की योजना कर रही है तो वही सत्तारूढ़ भाजपा को बहुजन समाज पार्टी ने अकेले ही चुनौती देने का फैसला किया है।
उत्तर प्रदेश में दलित, शोषित और वंचित की कोई बात करता है तो वह बहुजन समाज पार्टी और चंद्रशेखर आजाद रावण की भीम आर्मी ही है। बीते शनिवार को एक ऐसा घटनाक्रम सामने आया जिससे यह प्रतीत होता है कि भाजपा के बागी विधायकों का साथ मिलने के बावजूद भी अखिलेश सत्ता की सीढ़ी चढ़ पाने में सफल नहीं हो पाएंगे।
देशभर में जितने दलित हैं उसकी आधी आबादी केवल उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में रहती है। उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 21% हिस्सा ऐसा है जो दलित समाज से आता है। दलितों के लिए कोई उनका नेता है तो वह मायावती और चन्द्रशेखर रावण हैं। युवा पीढ़ी का रुझान चंद्रशेखर की तरफ कुछ ज्यादा है। अब इस परिस्थिति में अखिलेश का शेखर रावण का साथ छोड़ना काफी महंगा पड़ सकता है। अंतिम समय में चंद्रशेखर का साथ छोड़ने के बाद दलितों में अखिलेश यादव के लिए सहानुभूति नहीं बल्कि क्रोध रहेगा, ऐसे में अखिलेश को वोट कांड बहुत नुकसान होगा।
उत्तर प्रदेश की कुल आबादी 25 करोड़ से ज्यादा है और उसमें से 21% आबादी दलित है। प्रदेश के हर शहर उपनगर और महानगर में उपस्थित है। जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी, उन्नाव, सोनभद्र, रायबरेली, महोबा, लखनऊ, लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, अंबेडकरनगर आदि शामिल है। यह बात सही नहीं है कि चंद्रशेखर का साथ आ जाने से अखिलेश को पूरे 21% दलित वोट ट्रांसफर हो जाते लेकिन जो भी 2-4 प्रतिशत आते उसका समाजवादी पार्टी को नुकसान हो गया।
अखिलेश यादव और चंद्रशेखर रावण के बीच हुए इस घटनाक्रम पर दलित टाइम्स ने दीवार को ही ट्विटर स्पेस का आयोजन किया था जिसमें विभिन्न लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी। इन प्रतिक्रियाओं में अधिकांश लोगों का यह कहना था कि चंद्रशेखर रावण को अपनी क्षमता और अपने प्रत्याशियों की क्षमता पर के आधार पर मैदान में अकेले उतरना चाहिए। कुछ लोगों का यह भी कहना था कि चंद्रशेखर फिलहाल अपनी राजनीतिक शुरुआत करने के बजाय बहन मायावती जी की मदद करें, जिनकी और चंद्रशेखर की विचारधारा एक ही है।
इस पूरे घटनाक्रम पर सहारनपुर के निवासी और दलित चिंतक संजय तेगवाल बताते हैं कि यह घटनाक्रम मुझे इतिहास को दोहराने वाली बात को याद दिलाता है। 1967 में भी ऐसा ही कुछ काशीराम जी के साथ हुआ था और वही घटना आज चंद्रशेखर रावण के साथ हुई है। यह बात मुझे यकीन दिलाता है कि चंद्रशेखर भी आगे जाकर के बाबासाहेब अंबेडकर, कांशीराम और मायावती की तरह दलितों का एक बहुत बड़े नेता बनेंगे। अखिलेश यादव ने चंद्रशेखर को जो हल्के में लिया है उसका उन्हें भविष्य में बहुत पछतावा होगा। बहन जी के बाद दलितों में चंद्रशेखर ही ऐसा नाम है जो सिर्फ अपने चेहरे के दम पर किसी भी पार्टी को 2 से 4% का वोट ट्रांसफर करवा सकता है।
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