पूना समझौता जिसे पूना पैक्ट के नाम से भी जाना जाता है, जोकि 24 सितंबर 1932, को शाम पांच बजे यरवदा जेल पूना में महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के बीच समझौता हुआ था। जिसके परिणामस्वरुप इस समझौते में डॉ. अंबेडकर को कम्यूनल अवॉर्ड में दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा और इसके साथ साथ संयुक्त निर्वाचन जोकि वर्तमान समय में भी चल रहा है, इसी पद्धति के लिए सहमति देनी पड़ी। मसलन, कम्यूनल अवॉर्ड से प्राप्त 71 आरक्षित सीटों की अपेक्षा पूना समझौते में आरक्षित सीटों की संख्या को बढ़ाकर 148 कर दिया गया। इसके अतिरिक्त, अस्पृश्य वर्ग हेतु हर प्रांत में शिक्षा अनुदान के लिए पर्याप्त धन राशि नियत करवाने के साथ- साथ सरकारी नौकरी बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के सुनिश्चित कराया गया।
दूसरे गोलमेज सम्मेलन में चर्चा के बाद कम्यूनल अवार्ड का ऐलान किया गया। कम्यूनल अवार्ड के अंतर्गत डॉ. अंबेडकर के द्वारा उठाए गए राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग को पूरा करते हुए दलित समुदाय को दो वोटों के अधिकार प्राप्त हुए, जैसे एक वोट से दलित वर्ग अपना प्रतिनिधि चुनेंगे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे। आसान शब्दों में कहें तो जो उम्मीदवार होगा वह भी दलित समुदाय का होगा और जो मतदाता हैं वह भी दलित समुदाय का होगा। मसलन, दलित प्रतिनिधि का चुनाव सिर्फ़ और सिर्फ़ दलितों के द्वारा ही चुना जा सकता था।
16 अगस्त 1932 के दिन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड द्वारा सांप्रदायिक पंचांट का ऐलान किया गया, जिसके अनुसार दलित वर्ग के साथ- साथ और दूसरे ग्यारह समुदायों को अलग निर्वाचन मण्डल प्रदान किया गया। महात्मा गांधी द्वारा दलित समुदाय के लिए की गई पृथक निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था का ही विरोध किया। अस्पृश्य समुदाय को अलग चुनाव क्षेत्र मिलने से पहले दूसरे समुदाय जैसे मुस्लिम और सिख को मिलता था, परंतु गांधी जी ने इसका विरोध नहीं किया जो एक विचारणीय सवाल है। महात्मा गांधी 20 सितंबर 1932 इस व्यवस्था के खिलाफ़ अनशन पर बैठ गए, पूरा देश अकचका गया और डॉ. अंबेडकर के खिलाफ़ आक्रोशित हो उठा। यरवदा जेल में महात्मा गांधी से मिलने आए सर तेजबहादुर सप्रू द्वारा डॉ. अंबेडकर को मुंबई टेलीफोन करके पूना आने के लिए सूचित किया।
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वहां महात्मा गांधी से मुलाकात के बाद डॉ. अंबेडकर ने कहा, “देश में भिन्न भिन्न विचारधारा वाले लोग हैं, ये हमें सोचकर चलना होगा और मुझे मेरा हिस्सा मिलना चाहिए। चुकादे में मुझे 72 सीटें मिलती हैं। वह मेरा वाजिब हिस्सा है। तदुपरांत सामान्य मतदार मंडल में मत देने का और उम्मीदवार के तौर पर खड़ा रहने का मुझे हक़ मिलता है एवं मजदूरों के मतदान मंडल में भी मुझे मत मिलता है। हम इतना समझ सकते हैं कि आप हमारे बहुत मददगार हो लेकिन आप के साथ मेरा एक ही विवाद है। आप सिर्फ़ हमारे लिए नहीं, लेकिन कहे जाने वाले (कथित) राष्ट्रीय हितों के लिए कार्य करते हो। मुझे तो मेरी कौम के लिए राजनीतिक सत्ता चाहिए । हमें जीवित रहने के लिए वो अनिवार्य है।
इसलिए हमारे समग्र उत्थान के लिए हमें हमारे उचित हक मिलने ही चाहिए” 18 सितंबर 1932 को परेल, मुम्बई के दामोदर हॉल में डॉ. अंबेडकर ने कहा, मुझे आशा है गांधी जी अपने किए हुए निश्चय त्याग देंगे। जबकि हम अलग मतदार की मांग कर रहे हैं, उसका अर्थ हिन्दू समाज को नुकसान करने का नही। हम इसलिए अलग मतदार मंडल की मांग करते हैं कि हिन्दुओं की दया पर निर्भर नहीं रहना पड़े। महात्मा गांधी जी की दृष्टि से हम गलती ज़रूर कर रहे होंगे, लेकिन उनसे आशा रखते हैं कि वह हमको हमारे अधिकार से वंचित न करें। उनका आमरण अनशन का उद्देश्य किसी अच्छे कार्य के लिए सिद्ध करें।
उनका यह उपवास हिंदू मुसलमान झगड़े को शांत करने एवं हिंदुओं द्वारा दलितों पर होते अत्याचारों को रोकने या राष्ट्र के किसी महत्वपूर्ण हित की पूर्ति के लिए किया गया होता तो उनका सदलक्षण होता। महात्मा जी के इन कार्यों से दलितों की प्रगति नहीं होगी। उनको ख्याल हो या नहीं हो, लेकिन उसकी कोई फलश्रुति मिले, ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। इतना ही नहीं समग्र देश में दलितों के खिलाफ़ आतंक फैल जाएगा। इसके बावजूद अगर दलित हिन्दुओं से अलग होने का कोई पक्का निर्णय कर लेंगे, तो उनको कोई भी आमरण उपवास नहीं रोक सकेंगे।
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अगर महात्माजी दलितों को ऐसा कहेंगे कि वो ‘हिन्दू धर्म’ और ‘राजनीतिक शक्ति’ में से एक को चुनें, तो मेरा विश्वास है कि दलित अवश्य ही ‘राजनीतिक शक्ति’ को ही पसंद करेंगे और गांधीजी को उनकी आहुति से बचा लेंगे। अगर महात्मा जी दिखावे के लिए ऐसा करते हों, तो उनकी जीत की सार्थकता में मुझे संदेह है। दूसरा यह भी ध्यान में रखने जैसा है कि महात्मा के उपवास के चलते दलितों एवं हिन्दुओं में घृणा और द्वेष की भावना बढ़ जाएगी एवं उनके बीच गहरी खाई हो जाएगी। जब मैं गोलमेज परिषद में गांधीजी के इस विवाद का विरोध कर रहा था, तब मेरे खिलाफ समग्र देश में ऊहापोह मचा दिया गया। राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों ने षड़यंत्र करके मेरे राष्ट्रीय कार्य के खिलाफ मुझे ‘देशद्रोही’ से नवाज़ा गया।
इतना ही नहीं, उन्होंने मेरे द्वारा भेजे गए समाचारों को दबाकर मेरे और मेरे मित्रों के खिलाफ ऐसे समाचार तोड़-मरोड़कर छापे, जो कभी बने ही नहीं थे। दलित वर्ग एवं हिन्दुओं के बीच कहीं बड़े संघर्ष भी हुए। इसलिए, अगर महात्मा गांधी ऐसी घटनाओं को दूसरी बार दोहराना नहीं चाहते हों तो भगवान के लिए अपने निर्णय पर एक बार फिर से सोचें, और आने वाले भयंकर परिणामों से देश को बचाएं। मुझे विश्वास है कि महात्माजी ऐसा होने नहीं देंगे। लेकिन चाहने के बावजूद भी वो ऐसा नहीं कर सके तो परिणाम रात को दिन में बदलने के समान होगा। इस निवेदन को समाप्त करने से पहले मैं देश की जनता को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मेरी ओर से यह प्रकरण बंद होने के बावजूद मैं गांधीजी के द्वारा रखे हुए प्रस्ताव पर सोचने लिए तैयार हूं।
मैं आशा रखता हूं कि महात्मा जी अपने जीवन और हमारे दलित वर्गों को मिले हुए अधिकारों में से किसी एक की पसंदगी करने के लिए मुझे नहीं खींचेंगे। क्योंकि मैं अपने दलित वर्गों को आने वाले हिन्दुओं की पीढ़ियों के सामने उनके हाथ-पैर बांधकर उनको कभी नहीं दूंगा। सामान्य वर्ग का दलित प्रतिनिधि के चुनाव में किसी भी तरह का कोई दख़ल नहीं था लेकिन दलित वर्ग द्वारा उन्हें प्राप्त दूसरे वोट के इस्तेमाल से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चयनित करने कर सकते थे। इस दौरान महात्मा गांधी जेल में थे । जब कम्यूनल अवॉर्ड का एलान किया गया था उसी समय महात्मा गांधी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हुए इस व्यवस्था को परिवर्तित करने की कोशिश की।
बहारहाल, जब उन्हें यह अनुभव हुआ कि यह फ़ैसला नहीं बदला जा रहा तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी। उनके द्वारा छह दिनों के उपवास से सम्पूर्ण हिंदुस्तान में चेतना की लहर दौड़ गई। और भारतवासियों को पूना जेल में होने वाली गतिविधियों ने अपनी ओर आकर्षित करने लगीं। वहीं, पूना करार के समझौते में हो रही देरी के कारण तथा डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण ज़िद्दी मालूम होने का कारण अख़बार और पत्रकारों उनकी निंदा करते हुए खबरें छपने लगें इसके साथ ही उन्हें जान से मारने की धमकी भरा पत्र मिला जिसे,1-10- 1932 के ‘जनता’ में जारी किया गया है। बहरहाल, मदन मोहन मालवीय और राजेंद्र प्रसाद द्वारा की गई कोशिशों के कारण 26 सितंबर 1932 को महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के दरमियान पूना समझौता किया गया।
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जिसके अंतर्गत संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के तहत् दलित वर्ग के लिए स्थान आरक्षित रखने पर सहमति बनी। इस तरह डॉ. आंबेडकर द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर करके महात्मा गांधी को जीवनदान दिया। अतः 1942 में अंबेडकर ने स्टेट ऑफ माइनॉरिटी नामक अपने ग्रंथ में भी पूना समझौते संबंधी नाराजगी व्यक्त करते हुए इस समझौते का धिक्कार किया। क्योंकि आरक्षण की व्यवस्था ने दलित समाज से अपेक्षित कुशल और ईमानदार नेतृत्व पैदा करने के बजाय चमचा ही पैदा किया। जिससे दलित समाज का ऐतिहासिक क्षति हुई जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
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