दिल्ली चुनाव: आरक्षित सीटों की जंग और दलित वोटों का खेल, इस बार दलित वोटर किसके साथ?

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दिल्ली चुनाव में दलित वोटों और आरक्षित सीटों पर तीखी प्रतिस्पर्धा देखने को मिल रही है। अरविंद केजरीवाल ने वाल्मीकि मंदिर में चुनावी प्रचार शुरू किया, जबकि दलित समुदाय अपनी बुनियादी समस्याओं—सफाई, आवास, बिजली और पानी—के समाधान की मांग कर रहा है। बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सभी दलित मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए विभिन्न वादे और रणनीतियाँ अपना रही हैं।

दिसंबर के आख़िर में दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सेंट्रल दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर का रुख किया था, जहाँ पूजा-अर्चना के साथ-साथ नई दिल्ली विधानसभा सीट पर अपने प्रचार अभियान की शुरुआत की गई थी। केजरीवाल, जो चौथी बार नई दिल्ली सीट पर चुनावी चुनौती का सामना कर रहे हैं, हर बार नामांकन से पहले इसी मंदिर का रुख करते हैं, क्योंकि यह मंदिर नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। मंदिर के पास स्थित वाल्मीकि बस्ती में दलित समाज के लोग अपनी चुनावी चर्चा में लगे हुए नजर आए। एक युवा पुष्पेंद्र ने आशा जताई कि “अबकी बार वाल्मीकि वोट कटेगा—चाहे कांग्रेस हो, बीजेपी हो या आम आदमी पार्टी, दलित वोट सभी दलों के साथ जा रहा है।” वहीं, एक बुज़ुर्ग ने बच्चों के रोज़गार के अभाव को सबसे बड़ी समस्या बताते हुए अपने मत प्रकट किए।

दलित मतदाताओं की आवाज़ और झुग्गी-झोपड़ी की दास्तां

वाल्मीकि बस्ती की वह वही धरती है जहाँ 2013 में केजरीवाल ने झाड़ू लेकर चुनावी चिह्न का लॉन्च किया था, जिसने पिछले दो चुनावों में दलित मतदाताओं का खूब साथ पाया। इस वर्ग के लिए झाड़ू का प्रतीकात्मक महत्व है, खासकर उन लोगों के लिए जो साफ-सफ़ाई के काम से जुड़े हैं। वहीं, करोल बाग में आंबेडकर बस्ती के पास, जहाँ पर झुग्गियों और कच्ची कॉलोनियों की भीड़ है, दलित मतदाताओं ने साफ-सफ़ाई, बिजली, पानी और जल निकासी जैसे मूल मुद्दों पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की। ओमवती, जो एक झुग्गी के बाहर ओवरफ़्लो हो रही नाली को साफ़ कर रही थीं, ने स्पष्ट किया कि “आए दिन हमें खुद नाली साफ करनी पड़ती है। अगर हमारी पक्की नाली बन नहीं पाई तो हम वोट ही नहीं डालेंगे।” 75 साल की सीमा देवी ने भी अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई और कहा कि “जहाँ झुग्गी वहीं मकान मिले, क्योंकि हम दूर नहीं जा सकते।”

राजनीतिक दलों के वादे और दलित प्रतिनिधित्व का सवाल

दिल्ली में कुल 600 से अधिक झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनियाँ और 1700 से ज़्यादा कच्ची कॉलोनियाँ हैं जहाँ दलित आबादी की गहरी पैठ है। आरक्षित सीटों पर बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच तेज़ी से मुकाबला देखने को मिल रहा है। बीजेपी ने पिछले दो चुनावों में 12 में से एक भी आरक्षित सीट नहीं जीती, लेकिन इस बार एनडीए गठबंधन ने 14 दलित उम्मीदवार उतारकर अपनी रणनीति में बदलाव किया है। वहीं, कांग्रेस ने 13 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया है और मंच पर आंबेडकर की तस्वीर prominently दिखाई जा रही है। आम आदमी पार्टी ने भी अपने कार्यक्रमों में दलितों के मुद्दों को अहमियत देते हुए सिर्फ़ आरक्षित सीटों पर 12 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया है। अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में दलित छात्रों के लिए आंबेडकर स्कॉलरशिप की घोषणा की, जिसके तहत विदेश की यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों का पूरा खर्च दिल्ली सरकार उठाएगी। धोबी समाज के नेताओं से बात करते हुए केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली सरकार गठन के पश्चात धोबी समाज कल्याण बोर्ड का गठन किया जाएगा जिससे उनके समस्याओं का समाधान निकलेगा।

दलित नेताओं की मांग और चुनावी आंकड़े

दिल्ली में दलित आबादी 17 प्रतिशत के करीब है जिसमें 36 विभिन्न जातियाँ शामिल हैं, जिनमें जाटव सबसे बड़ी और वाल्मीकि दूसरी सबसे बड़ी जाति है। जबकि उत्तर प्रदेश जैसी जगह जहाँ दलित आबादी 20 प्रतिशत है, वहाँ मायावती चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं, वहीं दिल्ली में अब तक कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना है। दलित मतदाताओं की आवाज़ राजनीति में भी झलकती है। करोल बाग से बीजेपी उम्मीदवार दुष्यंत कुमार गौतम ने कहा कि “अमित शाह के बयान से चुनाव पर कोई असर नहीं होगा, क्योंकि हम दलितों के बीच में ही रहते हैं।” दूसरी ओर, कांग्रेस के उम्मीदवार राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में संविधान की प्रति दिखाकर दलित मतदाताओं से अपील की थी। दया बस्ती के निवासी ब्रह्मानंद ने भी आरोप लगाया कि “दलित चेहरा तो पेश करो, दलित का नाम भी आना चाहिए। दलित के वोटों से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनते हैं, लेकिन उनका प्रतिनिधित्व कहाँ है?”

राजनीतिक मंच पर आंबेडकरवाद का मुद्दा और आने वाले चुनावों की धुन

जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा बाबासाहेब आंबेडकर पर टिप्पणी ने विवाद खड़ा किया, तो केजरीवाल ने पलटवार करते हुए कहा, “मैं आंबेडकर जी का सिर्फ़ फै़न नहीं हूं, मैं उनके भक्त भी हूं।” इसी बीच, दलित नेता राखी बिड़लान, जो 2013 से मंगोलपुरी सीट से विधायक रही हैं, ने भी पार्टी में दलित नेतृत्व के सवाल पर कहा कि अगर दलित हमारी पार्टी में नहीं रहते तो उन्हें मंत्री भी नहीं बनाया जाता। उनके अनुसार, “दलित टॉप पोस्ट पर हैं और अगर दलितों की आवाज़ को उचित मंच नहीं दिया जाता तो हमारी सरकार में उनकी उपेक्षा जारी रहेगी।” पंजाब में 32 प्रतिशत दलित आबादी के मुकाबले दिल्ली में 17 प्रतिशत होने के बावजूद दलित नेतृत्व की कमी को कई बार सवालों के घेरे में लाया गया है।

निष्कर्ष

दिल्ली चुनाव में आरक्षित सीटों और दलित वोटों की जंग न केवल दलित समाज के मूल मुद्दों—सफाई, बिजली, पानी, और आवास—से जुड़ी है, बल्कि राजनीतिक दलों की रणनीति और वादों का भी परिदृश्य बदल रही है। जहाँ एक ओर केजरीवाल ने अपने आंबेडकरवादी रुख के साथ वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है, वहीं बीजेपी और कांग्रेस भी दलित मतदाताओं के आकर्षण के लिए नए वादे और रणनीतियाँ लेकर मैदान में उतरे हैं। इस बीच, आम आदमी पार्टी ने दलित छात्रों के लिए स्कॉलरशिप और धोबी समाज कल्याण बोर्ड जैसी पहलों से दलित समुदाय का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। राजनीतिक मंच पर दलितों का प्रतिनिधित्व और उनकी आवाज़ को बल देने की मांग आज भी जारी है, और आने वाले चुनाव इस संघर्ष की असली कसौटी साबित होंगे।

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