भारत का संविधान: संशोधन, विकेंद्रीकरण, और नागरिक अधिकारों की वास्तविकता

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संविधान किसी भी राष्ट्र के लोकतांत्रिक ढांचे का आधार होता है. भारत के संविधान में 75 वर्षों में 100 से अधिक संशोधन हुए हैं, जबकि अमेरिका का संविधान जो 1789 में लागू हुआ मात्र 27 संशोधन हुए. फिर क्या कारण है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अप्रतिम दस्तावेज होने के बावजूद व्यक्तियों पर अपराध बढ़ रहे हैं? पढ़िए लेखिका सविता आनंद का ये लेख…..

भारत का संविधान, जिसे “हम भारत के लोग” द्वारा स्वीकृत किया गया था, एक जीवंत और प्रगतिशील दस्तावेज है जिसमें एक सरकार को न्यूनतम शक्तियां और नागरिकों को अधिकतम शक्तियां प्रदान हैं. यह अपनी विस्तृत संरचना और नागरिक अधिकारों की गारंटी के लिए विश्व प्रसिद्ध है. बावजूद इसके, संशोधनों की बढ़ती संख्या और विकेंद्रीकरण की अवधारणा को वास्तविकता में लागू करने की धीमी गति पर गंभीर प्रश्न उठते हैं.

संविधान में 75 वर्षों में 100 से अधिक संशोधन होना यह दिखाता है कि भारतीय राजनीति और समाज तेजी से बदलते समय के साथ किस प्रकार प्रतिक्रिया देता है. हालांकि, यह प्रक्रिया कई बार नागरिकों की इच्छाओं और सहमति के बिना हुई प्रतीत होती है, क्योंकि संविधान में किए गए संशोधनों में लोगों की सहभागिता को नज़र अंदाज़ किया जाता रहा है.

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संविधान संशोधन: समस्या और समाधान

संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संशोधन करने का अधिकार दिया गया है. यह अधिकार भारतीय लोकतंत्र को लचीला बनाता है, लेकिन इसे नागरिकों की सहमति के बिना उपयोग करना संविधान की मूल भावना के विपरीत प्रतीति होता है. संविधान लोकतंत्र के आदर्शों को बनाए रखने के लिए नागरिकों की व्यापक भागीदारी और सहमति की अपेक्षा करता है. कई संशोधन राजनीतिक उद्देश्यों या केंद्र सरकार की शक्ति को बढ़ाने के लिए किए गए हैं, जो विकेंद्रीकरण की भावना के खिलाफ है.

संविधान का विकेंद्रीकरण और अनुच्छेद 40

अनुच्छेद 40, जो राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का हिस्सा है, ग्राम सभाओं को स्वायत्तता और अधिकार प्रदान करने की बात करता है. बावजूद इसके, देश में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया अभी भी अधूरी है. पंचायतों और ग्राम सभाओं को अधिकार देने की बजाय, संसद और केंद्र सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया है. इसका जीवंत उदाहरण है केंद्र शासित प्रदेशों की संख्या में वृद्धि और राज्यों की घटती स्वायत्तता.

*अनुच्छेद 1 और संघीय ढांचा*

संविधान के अनुच्छेद 1 के अनुसार, भारत राज्यों का संघ है. हालांकि, यह संघीय ढांचा धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है. क्योंकि केंद्र शासित प्रदेशों की बढ़ती संख्या और राज्यों के अधिकारों को सीमित करने वाले कानून भारत के संघीय चरित्र को प्रभावित करते हैं.

भारत का संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अप्रतिम दस्तावेज है, जो जीवन, स्वतंत्रता, और समानता की गारंटी देता है. फिर भी, अपराधों में वृद्धि यह दिखाती है कि संवैधानिक प्रावधानों का प्रभाव जमीन पर कितना सीमित है.

संसद और नागरिक अधिकार

भारत की संसद, जिसे जनता का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, कई बार ऐसा लगता है कि उसने संविधान को “बंधक” बना लिया है. संशोधन प्रक्रिया में नागरिक भागीदारी का अभाव: बड़े निर्णय बिना व्यापक चर्चा और सहमति के लिए जा रहे हैं.

नागरिकों के अधिकारों और इच्छाओं को प्राथमिकता नहीं दी जा रही. संविधान “हम भारत के लोग” से शुरू होता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में लोगों की भागीदारी सीमित है, यह चिंता का विषय है.

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विकेंद्रीकरण की राह

सच्चे लोकतंत्र के लिए विकेंद्रीकरण की आवश्यकता है.

पंचायतों और ग्राम सभाओं को अधिक स्वायत्तता और वित्तीय अधिकार दिए जाने चाहिए.

संविधान में संशोधन करने से पहले, ग्राम सभा, पंचायत, और स्थानीय इकाइयों की राय ली जानी चाहिए.

भारत का संविधान एक आदर्श दस्तावेज है, लेकिन इसके सही मायनों में कार्यान्वयन में कई चुनौतियां हैं. संशोधनों की प्रक्रिया में नागरिकों की सहभागिता बढ़ाई जानी चाहिए. विकेंद्रीकरण को मजबूत करते हुए राज्यों और ग्राम सभाओं को अधिकार दिए जाने चाहिए. संसद को नागरिकों की सेवा और उनके अधिकारों की रक्षा का माध्यम बनना चाहिए, न कि केवल सत्ता का केंद्र.

“हम भारत के लोग” के आदर्शों को पुनः जीवंत करने के लिए यह आवश्यक है कि संविधान को केवल एक कानूनी दस्तावेज न मानकर, इसे हर नागरिक की आकांक्षाओं और अधिकारों का प्रतीक माना जाए. यही भारतीय लोकतंत्र को सशक्त और प्रगतिशील बनाएगा.

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