दलित महिलाओं के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह बेहद कठिन होती है। उन्हें रोजगार के सीमित अवसर ही मिलते हैं, और यदि वे किसी नौकरी में जाती भी हैं, तो वहाँ भेदभाव की दीवार उनका रास्ता रोक लेती है।
जब हम भारत में महिलाओं की स्थिति पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि वे पहले से ही अनेक कठिनाइयों का सामना कर रही हैं। लेकिन दलित महिलाओं की स्थिति और भी अधिक जटिल है। वे दोहरे भेदभाव का शिकार होती हैं एक ओर वे पितृसत्ता की बंदिशों में जकड़ी हैं, तो दूसरी ओर जातिगत भेदभाव के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक असमानताओं का सामना करती हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक सम्मान और न्याय की दृष्टि से दलित महिलाओं को निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उनके अधिकारों के लिए किए जा रहे प्रयासों के बावजूद, उन्हें समाज में बराबरी का स्थान पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। ऐसे में, महिला सशक्तिकरण की बात तभी सार्थक होगी जब समाज की हाशिये पर खड़ी इस बड़ी आबादी की चुनौतियों को समझकर, उनके समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाए जाएँ।
आज यह जरूरी है कि हम न केवल दलित महिलाओं के संघर्षों को पहचानें, बल्कि उनके सशक्तिकरण के लिए किए जा रहे प्रयासों को भी और मजबूत करें, ताकि वे भी समान अवसरों और गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार पा सकें।
दलित महिलाओं की स्थिति: एक दोहरा संघर्ष
1-शिक्षा में असमानता
शिक्षा हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, लेकिन दलित महिलाओं को इस अधिकार से अक्सर वंचित रखा जाता है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, दलित लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर अन्य समुदायों की लड़कियों की तुलना में अधिक है।
उदाहरण: उत्तर प्रदेश के एक गाँव की दलित छात्रा अनीता कक्षा 8 तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हो गई क्योंकि उसके परिवार को यह समझाया गया कि पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं है और उसे घरेलू कामों में मदद करनी चाहिए।
यदि ध्यान दें, तो आए दिन स्कूलों में जातिगत भेदभाव की घटनाएँ सुनने और देखने को मिलती हैं, जिसके कारण दलित समाज के बच्चे/बच्चियाँ खुद ही पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। शिक्षकों और सहपाठियों द्वारा भेदभाव किए जाने के कई मामले सामने आते हैं।
उच्च शिक्षा में भी उनकी भागीदारी बहुत कम होती है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दलित महिलाओं की संख्या नगण्य है।
2-आर्थिक पिछड़ापन और रोजगार के अवसरों की कमी
दलित महिलाओं के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह बेहद कठिन होती है। उन्हें रोजगार के सीमित अवसर ही मिलते हैं, और यदि वे किसी नौकरी में जाती भी हैं, तो वहाँ भेदभाव की दीवार उनका रास्ता रोक लेती है।
अधिकांश दलित महिलाएँ आज भी कृषि मजदूरी, घरेलू कार्य, सफाई कर्म या ईंट-भट्टों पर श्रमिक के रूप में काम करने को मजबूर हैं। उन्हें न केवल कम वेतन मिलता है, बल्कि कार्यस्थल पर भी उनके साथ सामाजिक और आर्थिक भेदभाव किया जाता है।
उदाहरण: महाराष्ट्र की 32 वर्षीय कमला, जो एक दलित महिला है, ने एक निजी कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन किया। लेकिन केवल उसके उपनाम के कारण उसे काम नहीं दिया गया, क्योंकि वह उसकी जाति को दर्शाता था। कमला ने कई जगह आवेदन किया, पर हर बार उसे निराशा ही मिली। यहाँ तक कि सरकारी नौकरियों में भी दलित महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है, क्योंकि उन्हें बेहतर शिक्षा और संसाधनों तक पहुँच नहीं मिलती।
ऐसी घटनाएँ आए दिन घटती हैं, जो हमारे समाज के लिए एक शर्मनाक सच्चाई हैं। समानता और सामाजिक न्याय के वादों के बावजूद, दलित महिलाओं को आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
3- जातिगत भेदभाव और सामाजिक हिंसा
दलित महिलाओं के प्रति भेदभाव और हिंसा आम बात है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड आदि राज्यों में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध लगातार होते रहते हैं, लेकिन उन्हें न्याय मिलना अत्यंत कठिन होता है। उच्च जाति के लोगों द्वारा शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण का शिकार होने के बावजूद, कई बार उनके मामले दर्ज ही नहीं किए जाते, और यदि दर्ज होते भी हैं, तो न्याय की प्रक्रिया इतनी लंबी और पक्षपातपूर्ण होती है कि वर्षों तक इंतजार करना पड़ता है।
उदाहरण: 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित युवती के साथ हुई बर्बरता ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। जहां पीड़िता को न्याय मिलना चाहिए था, वहां न्याय प्रक्रिया ही जटिल और पूर्वाग्रह से ग्रसित रही, और अंततः न्याय नहीं मिल सका।
दलित महिलाओं की विभिन्न क्षेत्रों में भागीदारी की कमी
1. शिक्षा क्षेत्र में भागीदारी
हालाँकि देश में अनेक महिला शिक्षण संस्थान हैं, लेकिन उनमें दलित छात्राओं की उपस्थिति न्यूनतम रहती है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में उनका प्रतिशत बेहद कम होता है, जिसका मुख्य कारण उनकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक भेदभाव है। सीमित संसाधनों और अवसरों के अभाव में उनकी शिक्षा का आधार सुदृढ़ नहीं हो पाता, जिससे वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाती हैं।
2. राजनीतिक क्षेत्र में भागीदारी
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पहले से ही सीमित रही है, लेकिन जब बात दलित महिलाओं की होती है, तो स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है। संसद और अन्य राजनीतिक संस्थानों में उनकी उपस्थिति लगभग नगण्य है। जहाँ महिलाओं को 50% प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, वहाँ दलित महिलाओं के लिए यह अवसर और भी कम हो जाता है। सामाजिक संरचनाओं और राजनीतिक समीकरणों के कारण वे निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया से अक्सर बाहर रह जाती हैं।
3. स्वास्थ्य सेवाओं में भागीदारी
दलित महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधाओं तक समान रूप से पहुँच नहीं मिल पाती। अधिकांश दलित महिलाएँ ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं, जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव होता है। सरकारी अस्पतालों की कमी और आर्थिक सीमाओं के कारण वे निजी चिकित्सा सेवाएँ भी नहीं ले पातीं। परिणामस्वरूप, उनकी मातृ मृत्यु दर अन्य वर्गों की महिलाओं की तुलना में अधिक होती है। उचित स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में वे गंभीर बीमारियों और कुपोषण का शिकार होती रहती हैं।
समाज में वास्तविक समानता लाने के लिए दलित महिलाओं की शिक्षा, राजनीति और स्वास्थ्य क्षेत्रों में भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है। इसके लिए न केवल नीतिगत बदलाव की आवश्यकता है, बल्कि सामाजिक सोच में भी परिवर्तन लाना अनिवार्य है।
दलित महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आवश्यक कदम
1. शिक्षा के क्षेत्र में सुधार
दलित महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण साधन है। हालांकि सरकार द्वारा कई योजनाएँ चलाई जाती हैं, जैसे पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप, लेकिन इनका लाभ सही मायने में दलित लड़कियों तक नहीं पहुँच पाता। उनके लिए विशेष स्कूल और कॉलेज स्थापित किए जाने चाहिए, जहाँ गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा उपलब्ध हो और उनकी फीस नाममात्र हो।
उत्तर प्रदेश में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहनजी के द्वारा बहुजन समाज पार्टी की सरकार के दौरान दलित एवं आर्थिक रूप से कमजोर छात्राओं को बीएड, इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसी उच्च शिक्षा के लिए समाज कल्याण विभाग द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती थी। इसके अलावा, दसवीं और बारहवीं पास करने वाली छात्राओं को ₹25,000 और एक साइकिल प्रदान की जाती थी। यह योजना भारत की प्रथम महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई फुले के नाम पर संचालित की गई थी, जिससे शिक्षा को प्रोत्साहन मिला। इसी तरह, ऐसी योजनाएँ पूरे देश में लागू की जानी चाहिए ताकि दलित छात्राएँ बिना किसी आर्थिक बाधा के शिक्षा प्राप्त कर सकें।
2. आर्थिक सशक्तिकरण
आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना सशक्तिकरण अधूरा है। दलित महिलाओं को स्वरोजगार और उद्यमिता के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए विशेष योजनाएँ चलाई जानी चाहिए। उन्हें छोटे व्यवसायों और स्टार्टअप में सहयोग मिलना चाहिए, जिससे वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर अपने भविष्य का निर्माण कर सकें। इसके लिए सस्ती दरों पर ऋण, प्रशिक्षण कार्यक्रम और सरकारी प्रोत्साहन योजनाएँ लागू की जानी चाहिए।
3. कानूनी सहायता और न्याय व्यवस्था में सुधार
दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को और अधिक सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। उनके लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिए, ताकि उनके मामलों की सुनवाई तेजी से हो सके और उन्हें शीघ्र न्याय मिले। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को भी इस विषय में संवेदनशील बनाया जाना चाहिए, ताकि वे दलित महिलाओं की शिकायतों को गंभीरता से लें और उचित कार्रवाई करें।
4. सामाजिक जागरूकता
दलित महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए समाज में व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्कूलों और कॉलेजों में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। समाज के हर वर्ग को इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभानी होगी, तभी जातिगत भेदभाव समाप्त होगा और दलित महिलाओं को उनका उचित सम्मान एवं अधिकार प्राप्त होगा।
सशक्त समाज की नींव समानता और न्याय पर टिकी होती है। जब दलित महिलाएँ शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, न्याय और सामाजिक सम्मान प्राप्त करेंगी, तभी सच्चे अर्थों में उनका सशक्तिकरण संभव होगा।
निष्कर्ष
दलित महिलाओं का सशक्तिकरण केवल एक सामाजिक मुद्दा नहीं, बल्कि न्याय, समानता और गरिमा से जुड़ा एक गंभीर प्रश्न है। वे पितृसत्ता और जातिगत भेदभाव की दोहरी जंजीरों में जकड़ी हुई हैं, जो उनके शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक उत्थान में बाधा बनती हैं। शिक्षा से लेकर रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाओं से लेकर कानूनी न्याय तक, हर क्षेत्र में उन्हें संघर्ष करना पड़ता है।
हालाँकि, दलित महिलाओं के उत्थान के लिए विभिन्न सरकारी योजनाएँ और कानून मौजूद हैं, लेकिन इनका प्रभाव तभी व्यापक होगा जब वे जमीनी स्तर तक प्रभावी रूप से लागू हों। शिक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण से लेकर कानूनी संरक्षण तक, हर स्तर पर ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। समाज को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी और दलित महिलाओं को समान अवसर और अधिकार देने की दिशा में सक्रिय योगदान देना होगा।
जब तक दलित महिलाओं को समान अवसर, गरिमा और न्याय नहीं मिलेगा, तब तक समाज में सच्ची समानता स्थापित नहीं हो सकती। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस केवल उत्सव का दिन नहीं, बल्कि एक अवसर है यह सोचने का कि हम अपने समाज को अधिक न्यायसंगत और समावेशी कैसे बना सकते हैं। एक सशक्त समाज तभी संभव है जब उसमें दलित महिलाओं को भी समान अधिकार और सम्मान मिले, और वे भय और भेदभाव से मुक्त होकर अपने भविष्य का निर्माण कर सकें।
लेखिका : दीपशिखा इन्द्रा
*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *
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