अम्बेडकर के जीवन का सबसे दुखद समझौता क्यों था पूना पैक्ट?

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भारत में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को मिल रहे आरक्षण पर राजनीतिक घमासान और आए दिन कोर्ट कचहरी में बहस होना आम बात सी हो गई है। मोदी सरकार ने EWS (आर्थिक आधार पर कमजोर वर्ग) को 2019 में आरक्षण देकर एक नयी बहस छेड़ दी है, और बहस हो भी क्यों ना? 10 प्रतिशत आरक्षण उन चंद लोगों को दे दिया गया जिनकी पूरी आवादी ही महज़ 10 प्रतिशत के आस पास है।  हालाँकि सही आबादी का अनुमान लगाना तब तक मुश्किल है जब तक जातिगत जनगणना नहीं हो जाती। हालांकि मोदी सरकार जातिगत जनगणना के पक्ष में  फ़िलहाल नहीं दिख रही है।

अब बात करते हैं राजनीतिक आरक्षण पर। भारत में राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था संविधान में है। संविधान के अनुच्छेद 330 और अनुच्छेद 332 क्रमशः लोकसभा एवं राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में सीटों को आरक्षित करते हैं। यह व्यवस्था बाबा साहब डॉ. बीआर. अम्बेडकर और दलितों के हितों का गला घोटने के लिए आमरण अनशन पर बैठे गांधी के बीच 24 सितम्बर, 1932 में यरवदा जेल में हुई थी। इसे पूना पेक्ट के नाम से जाना जाता है जो 32 लोगों के हस्ताक्षर से पूरा हुआ। लेकिन अम्बेडकर द्वारा माँगे गए प्रथक निर्वाचनके बदले में यह एक छोटी सी व्यवस्था थी, छोटी सी कहने का असली मतलब क्या है यह आप पूरा लेख पढ़ कर समझ जाएँगे…

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इसको समझने के लिए आपको एक सच्ची घटना बताते हैं। घटना उत्तरप्रदेश के हरदोई की तहसील बिलग्राम के छोटे से ग्राम सभा विषमपुर (बदला हुआ नाम) की है। इस ग्राम सभा में कुल 823 मतदाता थे, जिनमे से 172 मतदाता अनुसूचित जाति के, 626 पिछड़ा वर्ग के, और 25 सामान्य वर्ग के मतदाता थे। मतदाताओं की जातिगत संख्या से देखा जा सकता है कि पिछड़ा वर्ग के मतदाता ही निर्णायक हैं क्योंकि इनकी संख्या सबसे अधिक है। इस सीट पर कुल 9 उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे, सभी अनुसूचित जाति के थे चूँकि सीट अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित थी, 9 उम्मीदवारों में से 2 मुख्य उम्मीदवार थे, 2 डमी उम्मीदवार थे और शेष 5 उम्मीदवार ऐसे थे जिन्हें आम बोलचाल में वोट कटवा उम्मीदवार कहते हैं, हालाँकि इनका कोई वजूद नहीं होता है, ये कभी भी कहीं भी पाला बदल लेतें है।

मुख्य दो उम्मीदवारों में एक उम्मीदवार वीर सिंह (बदला हुआ नाम) ऐसा था जो एक शिक्षित और सम्माजनक, सफल परिवार से था, अनुसूचित जाति के समाज की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति और आरक्षण से भली भाँति परिचित। यह परिवार अनुसूचित जाति के साथ-साथ सम्पूर्ण ग्राम सभा के लोगों में अच्छी पकड़ और सम्मान के साथ परंतु राजनीति से दूर जीवन व्यतीत करने वाला था।

दूसरा उम्मीदवार राजपाल (बदला हुआ नाम) शिक्षा के मामले में सिर्फ़ प्राइमरी एजुकेशन वाला था, समाज में कोई ख़ास पकड़ नहीं, अपने परिवार के वोट छोड़कर उसके समाज के कुछ चंद वोटों को छोड़कर उसकी झोली में और कोई वोट नहीं था। लेकिन उसके साथ अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के विरोध में, पिछड़ा वर्ग का एक दबंग, शिक्षित, सफल व्यक्ति था। जिसे चाहिए था एक ऐसा चमचा जो किसी की पकी पकाई खिचड़ी में काला नमक छिड़क सके।

अब क्या था, जो लड़ाई सिर्फ़ अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के बीच में होनी थी वो लड़ाई अब बदल चुकी थी, अब लड़ाई वीर सिंह बनाम राजपाल ना होकर वीर सिंह बनाम दबंग पिछड़ा व्यक्ति के उम्मीदवार की हो गयी थी। रिज़ल्ट अभी से साफ़ हो गया था, जातिगत वोटों के समीकरण से आसानी से समझा जा सकता था कौन सा उम्मीदवार चुनाव जीतेगा। हुआ भी ऐसा ही चुनाव में वीर सिंह को कुलपड़े 708 वोटों में से 286 वोट मिले (40.40%) वहीं रामपाल एवं पार्टी को 337 वोट मिले (47.60%)। इसके अलावा 76 (10.73%) वोट रद्द हुए, जो की अशिक्षा, अनपढ़, नासमझ लोगों के वोट होने चाहिए, यदि ये वोट वैध होते तो शायद चुनाव का परिणाम बदल सकता था।

इस उदाहरण से आप पूरी तरह समझ चुके होंगे की आरक्षण व्यवस्था राजनीति में आरक्षित लोगों को कितना लाभ पहुँचा पा रही है या आरक्षण सिर्फ़ दिखावा है, और चमचों को चुनाव जीता रहा है।

अगर ना हुआ होता पूना पैक्ट :

अगर पूना पैक्ट ना हुआ होता और गांधी ने बाबा साहेब की “प्रथक निर्वाचक मंडल” की मांग मान ली होती तो देश की तस्वीर पूरी तरह बदली हुई होती। मसलन अगर आरक्षण की जगह प्रथक निर्वाचन लागू हुआ होता तो उपर वाले उदहारण में वीर सिंह को हराना असंभंव होता। क्योंकि इस व्यवस्था में अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए वोट देने का हक भी सिर्फ अनुसूचित जाति के ही लोगों को होता।

इसमें आरक्षित सीट के आरक्षण का गणित बिगाड़ने वालों को दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं होता। और इस तरह एक हकदार को उसका असली हक मिल पाता। दिन रात आरक्षण का विरोध करने वालों को यह कहानी सुननी  चाहिए, तभी जाकर इन्हें समझ आएगा कि बाबा साहब ने अपने लोगों और सवर्ण हिंदू लोगों के बीच कितना बड़ा समझौता किया था । बाबा साहब ने पूना पैक्ट का समझौता रोते हुए बेमन से किया था, उन्हें पता था की ये उनके जीवन का सबसे दुःखद समझौता है।

सिर्फ़ नाम का है राजनीतिक आरक्षण:

बहुजन समाज के बड़े नेता, बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने पूना पैक्ट के बाद के युग को चमचा युग कहा। इस समझौते ने दलितों को राजनीतिक हथियार बना दिया। जिसके बाद हुआ ये कि हर राजनीतिक पार्टी दलितों के हिमायती बनने का दिखावा करते-फिरते हैं। संयुक्त निर्वाचन ने वास्तविक दलितों को हराकर, हिंदू जाति के संगठनो को एजेंट बना दिया और सिर्फ़ उन दलितों की चुनावी जीत को पक्का किया जो इन हिन्दूवादी संगठन के हिस्सा थे। ब्रह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था से लड़ने वाले दलितों के वास्तविक एवं स्वतंत्र नेतृत्व को पूरी तरह से बर्बाद करके समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित एक आदर्श समाज के सामने बाधा खड़ी कर दी। इस प्रकार आरक्षित सीट पर चुनकर आने वाले तथाकथित चमचा नेता अनुसूचित जातियों, जन जातियों के पक्ष में बोलने के लिए मुँह खोलना तो दूर सर भी नहीं उठा पाते। चाहे कितना भी अत्याचार इन जातियों के साथ हो रहा हो, चाहें कोई भी क़ानून इनके ख़िलाफ़ पारित किए जा रहे हो, पर इन चमचों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन्हें सिर्फ़ चमचागीरी करनी आती है।

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