भारत में लोकतंत्र की नींव विविधता और सभी वर्गों के समान मताधिकार पर आधारित है। इसमें दलित समाज, जो भारतीय जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण और बड़ा हिस्सा है, की भूमिका अत्यंत अहम रही है। सदियों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण सहने के बावजूद, दलित समाज ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का निरंतर प्रयास किया है।
लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारतीय राजनीति में जो प्रवृत्ति उभरकर सामने आई है, वह चिंता का विषय है। भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और सपा जैसे दल, जिनकी राजनीति अक्सर जातिवादी मानसिकता और वोट बैंक की रणनीति पर आधारित रही है, ने दलित समाज को केवल एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया है। इन दलों ने बड़े-बड़े वादे, झूठी उम्मीदें, और अल्पकालिक लाभ देकर दलित समाज को गुमराह किया है।
एक दलित वोटर के रूप में, मैं देख रही हूँ कि कैसे हमारे लोग इन राजनीतिक दलों के खोखले वादों, चमक-दमक और कुछ मामूली राहतों, जैसे पांच-दस किलो राशन, के झांसे में आकर इनके पीछे दौड़ रहे हैं। यह हमारे समाज के लिए एक चिंतन का समय है। हमें समझना होगा कि इन दलों की नीतियों और वादों का उद्देश्य केवल सत्ता पाना है, न कि हमारे समाज की वास्तविक प्रगति।
भाजपा और दलित राजनीति का यथार्थ
भारतीय जनता पार्टी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देकर सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की बात कही, लेकिन व्यवहारिक रूप में इसकी सच्चाई कुछ और ही नजर आती है। हिंदुत्व की राजनीति के तहत दलितों को हिंदू समाज का अभिन्न अंग मानते हुए उन्हें समान रूप से जोड़ने की कोशिश जरूर की गई, लेकिन यह प्रयास जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता को समाप्त करने में सफल नहीं रहा।
आज भी दलित समाज के खिलाफ अत्याचार और भेदभाव की घटनाएं आम हैं। गौरक्षा के नाम पर भीड़ हिंसा, मंदिरों में प्रवेश पर रोक, सामाजिक बहिष्कार, और भूमि विवादों में दलितों को निशाना बनाए जाने जैसी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि भाजपा के नेतृत्व में भी सामाजिक न्याय की स्थिति में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया। इसके अलावा, आरक्षण को कमजोर करने, शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में दलितों के अधिकारों को सीमित करने की कोशिशें यह साबित करती हैं कि भाजपा की नीतियां दलितों के सशक्तिकरण के बजाय प्रतीकात्मक राजनीति तक सीमित हैं।
भाजपा ने कुछ दलित नेताओं को ऊंचे पदों पर अवश्य बैठाया, लेकिन यह महज एक दिखावटी प्रयास साबित हुआ। ये नेता किसी ठोस सामाजिक बदलाव के वाहक बनने के बजाय केवल पार्टी की नीतियों का समर्थन करने तक सीमित रहे। उन्हें वह स्वतंत्रता और अधिकार नहीं दिया गया जिससे वे दलित समाज के लिए ठोस नीतिगत निर्णय ले सकें।
सत्ता में हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व का प्रश्न
जब सही मायने में सत्ता में हिस्सेदारी और उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व की बात आती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि दलित समुदाय को राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में वास्तविक भागीदारी नहीं मिलती। आज भी नीति-निर्माण, सरकार के प्रमुख पदों और प्रभावशाली मंत्रालयों में दलितों की मौजूदगी नाममात्र की ही है। अगर कोई दलित नेता महत्वपूर्ण पद पर पहुंच भी जाता है, तो उसके पास स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं होती, जिससे वह सामाजिक परिवर्तन की दिशा में प्रभावी कदम उठा सके।
इसके विपरीत, भाजपा की राजनीति दलितों को केवल एक वोट बैंक के रूप में देखने तक सीमित रही है। चुनावों के समय दलित समुदाय को लुभाने के लिए नारे दिए जाते हैं, योजनाओं की घोषणाएं की जाती हैं, और कुछ प्रतीकात्मक निर्णय लिए जाते हैं, लेकिन सत्ता के ढांचे में उनकी वास्तविक हिस्सेदारी सुनिश्चित करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं होती।
इसका मतलब साफ हैं भाजपा ने दलित समुदाय को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन वे प्रयास दलितों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के बजाय केवल चुनावी रणनीति तक सीमित रहे। सत्ता और नीति-निर्माण में उनकी वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित किए बिना ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा अधूरा ही प्रतीत होता है। अगर भाजपा सच में दलितों के विकास और उत्थान को लेकर गंभीर है, तो उसे प्रतीकात्मक राजनीति से आगे बढ़कर उनके अधिकारों, सामाजिक न्याय और सत्ता में वास्तविक हिस्सेदारी सुनिश्चित करनी होगी। तभी दलित समुदाय को स्थायी और वास्तविक लाभ मिल सकेगा।
कांग्रेस और दलित उत्थान की राजनीति: वास्तविकता और विरोधाभास
कांग्रेस का इतिहास दलित समाज के संघर्षों में जुड़ा आता है, लेकिन यह जुड़ाव केवल सतही और राजनीतिक लाभ तक सीमित रहा। संविधान निर्माण के दौरान बाबा साहेब अंबेडकर की भूमिका कांग्रेस शासन में सुनिश्चित हुई, लेकिन उनकी विचारधारा को कांग्रेस ने कभी पूरी तरह आत्मसात नहीं किया। इसके विपरीत, कांग्रेस शुरू से ही दलित विरोधी मानसिकता रखती आई है और हमेशा आरक्षण विरोधी फैसले लेती रही है।
बाबासाहेब अंबेडकर जब दलितों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात कर रहे थे, तब कांग्रेस ने महात्मा गांधी के साथ मिलकर इसे कमजोर करने का काम किया और सफल भी रही। कांग्रेस ने पूना पैक्ट के जरिए दलितों के स्वतंत्र राजनीतिक अधिकारों को छीन लिया, जिससे दलित समाज को अपनी वास्तविक राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने का अवसर नहीं मिल सका। इतना ही नहीं, जब बाबा साहेब ने चुनाव लड़ा, तो कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस दलित नेतृत्व को कभी स्वीकार नहीं करना चाहती थी।
सत्ता में लंबा कार्यकाल, लेकिन दलितों के लिए कोई ठोस काम नहीं
कांग्रेस 60-70 वर्षों तक सत्ता में रही, लेकिन इस लंबे कार्यकाल में उसने बाबासाहेब के संविधान द्वारा निर्धारित सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को पूरी तरह लागू नहीं किया। कांग्रेस ने केवल दिखावे के लिए कुछ दलित नेताओं को छोटी-मोटी राजनीतिक जगह दी, लेकिन वे भी ऐसे लोग चुने गए जो कांग्रेस नेतृत्व के प्रति पूरी तरह वफादार रहें और स्वतंत्र रूप से दलितों के हक की आवाज न उठा सकें। यह पूरी व्यवस्था कांग्रेस की जातिवादी सोच को उजागर करती है, जो केवल सत्ता में बने रहने के लिए दलितों का इस्तेमाल करती रही।
अगर कांग्रेस वास्तव में दलितों के उत्थान को लेकर गंभीर होती, तो इतने वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद दलित समाज के खिलाफ अत्याचार और शोषण की घटनाएं इतनी व्यापक न होतीं। राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां हाल ही में कांग्रेस की सरकारें थीं, वहां भी दलितों का प्रतिनिधित्व न के बराबर रहा। दलित समाज पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ती गईं, लेकिन कांग्रेस सरकारें इसे रोकने में पूरी तरह विफल रहीं।
महिला सशक्तिकरण और खोखले नारे
महिलाओं की भागीदारी को लेकर कांग्रेस ने ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ जैसे नारे दिए, लेकिन यह भी सिर्फ खोखले राजनीतिक प्रचार तक सीमित रहा। कांग्रेस सरकारों ने न तो महिलाओं को वास्तविक राजनीतिक भागीदारी दी, न ही समाज में उनके लिए सुरक्षित माहौल बना सकीं। दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के मामलों में भी कांग्रेस की सरकारें पूरी तरह असंवेदनशील रहीं, जिससे यह साफ होता है कि महिला सशक्तिकरण का उनका एजेंडा सिर्फ वोट बैंक की राजनीति तक सीमित था।
बाबासाहेब को भारत रत्न देने में कांग्रेस की उदासीनता
कांग्रेस अगर सच में बाबासाहेब के संविधान को मानती और उनके योगदान का सम्मान करती, तो आखिर उन्हें भारत रत्न पहले क्यों नहीं दिया गया? इतने दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस ने बाबासाहेब अंबेडकर को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे।
बाबासाहेब को भारत रत्न दिलाने के लिए बहुजन समाज पार्टी ने अथक संघर्ष किया। मान्यवर कांशीराम और बहन मायावती ने इस मुद्दे को उठाया और वी.पी. सिंह सरकार से स्पष्ट रूप से शर्त रखी कि जब तक बाबासाहेब को भारत रत्न नहीं मिलेगा, तब तक समर्थन नहीं दिया जाएगा। तब जाकर 1990 में बाबासाहेब को मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया। यह कांग्रेस की दलित विरोधी मानसिकता को दर्शाता है कि उसने इतने लंबे समय तक इस विषय पर कोई पहल नहीं की। जब कुछ महीनों पहले ही भाजपा सरकार में संविधान और आरक्षण पर लगातार हमले हो रहे हैं, तब कांग्रेस सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित रही। हाल ही में भाजपा सरकार ने संविधान में बदलाव कर आरक्षण को कमजोर करने वाले नियम पास किए, लेकिन कांग्रेस ने इस पर कोई ठोस विरोध नहीं किया।
अगर कांग्रेस सच में दलितों की हितैषी होती, तो वह संसद और सड़कों पर खुलकर भाजपा के खिलाफ आंदोलन करती। लेकिन उसने सिर्फ राजनीतिक चुप्पी साधे रखी, क्योंकि कांग्रेस स्वयं भी हमेशा से आरक्षण विरोधी नीतियों को बढ़ावा देती रही है। यह इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस और भाजपा,दोनों ही दलितों के मुद्दों पर सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए बोलते हैं, लेकिन असल में उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते।
आम आदमी पार्टी: नई राजनीति का भ्रम
आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और पारदर्शी राजनीति का वादा कर जनता को नई उम्मीद दी थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद यह भी अन्य दलों की तरह केवल वोट बैंक की राजनीति कर रही है।
केजरीवाल पहले से ही आरक्षण के विरोधी रहे हैं, और आज भी उसी विचारधारा पर चल रहे हैं, बस अब इसे राजनीति की चालाकी से ढक दिया गया है। दिल्ली में सरकार होने के बावजूद दलितों को राजनीति में उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया, न ही उच्च पदों पर उनकी भागीदारी सुनिश्चित की गई।
बाबासाहेब का नाम लेकर दलितों की भावनाओं से खेला गया, लेकिन उनके हक की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए। फ्री बिजली-पानी देकर जनता को निर्भर बनाया गया, जिससे उनकी आत्मनिर्भरता कमजोर पड़ गई। आम आदमी पार्टी का असली चेहरा अब सामने आ चुका है—एक जातिवादी, दलित-विरोधी मानसिकता।
अब वक्त आ गया है कि दलित समाज अपनी राजनीतिक चेतना को पुनर्जीवित करे और उन पार्टियों तथा नेताओं का समर्थन करे, जो केवल वादे नहीं, बल्कि ठोस नीतियों के साथ उनके अधिकारों और सम्मान की रक्षा करें।
दलित समाज को अपने संगठनों (स्डो बामसेफ) और मूल विचारधाराओं (बहुजन समाज पार्टी) को फिर से सशक्त करना होगा। जब तक वे राजनीतिक(बहुजन समाज पार्टी) रूप से संगठित नहीं होंगे, तब तक वे बड़े दलों की राजनीति में केवल मोहरे बने रहेंगे। वास्तविक बदलाव तब आएगा, जब वे अपनी ताकत को पहचानकर अपने नेतृत्व(बहनजी) को मजबूत करेंगे और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई को एक नई दिशा देंगे।
दीपशिखा इन्द्रा
नमो बुद्धाय जय भीम
*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *
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