मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों (zoonotic diseases) का खतरा बढ़ गया है। ज़ूनोटिक रोग वे रोग हैं जो पशुओं से मानवों में बैक्टीरिया, वायरस या अन्य परजीवियों या रोगवाहकों के माध्यम से फैलते हैं…
Climate change effect on human : मार्च 2023 में जारी अपनी नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने एक गंभीर चेतावनी से आगाह कराया है। IPCC ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन से संक्रामक रोगों का वैश्विक खतरा बढ़ गया है।उदाहरण के लिये, मच्छर-जनित रोगों के फैलने की संभावना बढ़ गई है।
डेंगू अब किसी ख़ास मौसम में नहीं बल्कि सालों भर प्रकट होता है। तापमान, वर्षा और आर्द्रता में बदलाव रोगों के फैलने के चक्र(disease transmission cycles) को बाधित कर रहे हैं।ये परजीवी को आश्रय देने वाले रोगवाहकों (vectors) और एनिमल रेज़र्वोयर (animal reservoirs) के वितरण को भी बदल देते हैं। इससे स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय बहुत बढ़ जाता है।यह वर्ष 2030 तक सालाना 2-4 बिलियन डॉलर के बीच होने का अनुमान है।
जलवायु परिवर्तन का रोगों के प्रकोप से संबंध
ज़ूनोटिक रोग: चूँकि जलवायु परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र को बदलता है, पर्यावास की क्षति अधिक होने लगती है। यह रोग फैलाने वाले पशुओं को उपयुक्त पर्यावास और संसाधनों की तलाश में मानव क्षेत्रों पर अतिक्रमण करने के लिये विवश करता है। मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों (zoonotic diseases) का खतरा बढ़ गया है। ज़ूनोटिक रोग वे रोग हैं जो पशुओं से मानवों में बैक्टीरिया, वायरस या अन्य परजीवियों या रोगवाहकों के माध्यम से फैलते हैं।
निपाह वायरस (Nipah virus):
इसका एक प्रमुख उदाहरण निपाह है, जो इस तरह की घटनाओं के कारण केरल में प्रकोप का ज़िम्मेदार है।
तापमान और रोग संचरण: बढ़ता तापमान मच्छरों और किलनी (ticks) जैसे रोगवाहकों के वितरण और व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। ये रोगवाहक मलेरिया, डेंगू बुखार और लाइम डिजीज जैसी बीमारियों के संचरण/संक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गर्म तापमान इन रोगवाहकों की भौगोलिक सीमा का विस्तार कर सकता है, जिससे उन्हें उन क्षेत्रों में पनपने की अनुमति मिलती है जो पहले उनके लिये अत्यंत ठंडे होते थे।
वर्षा के बदलते पैटर्न: जलवायु परिवर्तन वर्षा के पैटर्न को बदल सकता है, जिससे कुछ क्षेत्रों में अधिक तीव्र और लंबे समय तक वर्षा हो सकती है, जबकि अन्य किसी क्षेत्र में सूखा पड़ सकता है। ये परिवर्तन रोगवाहकों के लिये उपयुक्त प्रजनन वातावरण का निर्माण कर सकते हैं।
बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि जल स्रोतों को सीवेज और रोगजनकों से दूषित कर सकती है, जिससे हैजा और पेचिश जैसी जलजनित बीमारियों का प्रकोप हो सकता है। भारी वर्षा जलजमाव की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जो मलेरिया और ज़ीका वायरस (Zika virus) रोग जैसी बीमारियों को फैलाने वाले मच्छरों के लिये आदर्श प्रजनन स्थल होते हैं।
रोगवाहकों में व्यवहार परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन रोगवाहकों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है।गर्म तापमान रोगवाहकों के भीतर रोगजनकों के विकास को तीव्र कर सकता है, जिससे उनकी ऊष्मायन अवधि (incubation period) कम हो जाती है और बीमारियों का तेज़ी से संचरण होता है।
खाद्य सुरक्षा: जलवायु परिवर्तन कृषि प्रणालियों को बाधित कर सकता है, जिससे खाद्य उत्पादन और वितरण में बदलाव आ सकता है। ये व्यवधान कुपोषण में योगदान कर सकते हैं और प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर सकते हैं, जिससे आबादी बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती है।
चरम मौसमी घटनाएँ: जलवायु परिवर्तन चक्रवात, हीटवेव (heatwaves) और वनाग्नि (wildfires) जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता से संबद्ध है। इन घटनाओं से आघातों, विस्थापन और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों में व्यवधान की स्थिति बन सकती है, जिससे रोगों के प्रसार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं।
बदलता रोग परिदृश्य: जलवायु परिवर्तन ने मानवों को खतरे में डालने वाले संक्रामक एजेंटों का दायरा बढ़ा दिया है। मानवों को प्रभावित करने वाली सभी ज्ञात संक्रामक बीमारियों में से आधे से अधिक जलवायु पैटर्न में बदलाव के साथ बदतर हो जाती हैं। (हील इनिशियेटिव)
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