ऐसा विवाह जिसमें पंडितों की ज़रुरत नहीं, हाई कोर्ट ने भी माना था सही…पढ़िए

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ज्योतिबा फुले ने पुणे में 24 सितंबर 1873 को सत्य़शोधक समाज की स्थापना की थी। सत्यशोधक समाज का मतलब है “सत्य की खोज करने वाला समाज” जिसका उद्देश्य दलितों और शोषितों को दासता से मुक्त करना, उन्हें शिक्षित करना, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना और दलितों में एकता की भावना विकसित करना था। सत्यशोधक समाज के तहत ही “सत्यशोधक विवाह” की स्थापना हुई थी। इसे आज ही के दिन 8 जनवरी को कानूनी मान्यता भी मिली थी।

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महिला और पुरुष सभी क्षेत्र में समान:

सत्यशोधक समाज के तहत यह कहा गया था कि इसके द्वारा आयोजित विवाह कानूनी है। और इस विवाह को “सत्यशोधक विवाह” कहा गया था। जिसका फैसला 8 जनवरी 1880 में मुंबई उच्च न्यायालय ने सुनाया था। मुंबई उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि इस विवाह में गैर-ब्राह्मण लोग भी भाग ले सकते हैं। सत्यशोधक विवाह पद्धति के मूल में यह बात भी शामिल थी कि महिला और पुरुष सभी क्षेत्र में समान है। दोनों के अधिकार भी समान है।

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ज्योतिबा फुले, इमेज : सोशल मीडिया

बिना किसी पाखंड के विवाह:

 

सत्यशोधक समाज द्वारा आयोजित विवाह में यह भी शामिल था कि इसके द्वारा आयोजित विवाह बिना दहेज, बिना किसी ब्राह्मण पुजारी और बिना किसी मंत्र के होंगे। यानी बिना किसी पाखंड के यह विवाह संपन्न होंगे। ऐसा भी कहा जाता है कि ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक विवाह पद्धति के तहत ही फरवरी 1889 को अपने बेटे यशवंत का विवाह कुमारी राधा से करवाया था।

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जातिसूचक गालियां दी गई:

 

हालांकि इस विवाह पद्धति ने समाज मे एक हलचल भी पैदा कर दी थी। क्योंकि यह पद्धति लोगों की पारंपरिक सोच पर गहरा प्रहार थी। जिसकी वजह से ज्योतिबा फुले को ब्राह्मणों की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। उन्हें जातिसूचक गालियां भी दी गई थी। इसके अलावा यह भी कहा गया था कि इस पद्धति के तहत विवाह अवैध हैं। और जो युगल इस पद्धति तहत विवाह करेंगे वह पाप के भागी होंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और मुंबई उच्च न्यायालय ने भी इस विवाह पद्धति को वैध घोषित किया।

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ज्योतिबा फुले की किताब, इमेज: गूगल

 

सार्वजनिक सत्यधर्म:

 

आपको बता दें कि ज्योतिबा फुले ने अपनी अंतिम पुस्तक “सार्वजनिक सत्यधर्म” में भी सामाजिक बदलाव के बारे में कहा है। इस पुस्तक में विवाह पद्धति पर एक अध्याय भी है। जिसमें कहा गया है कि यह विवाह पद्धति “रुढ़िवादी धारणाओं से भिन्न है। जिसमें सात फेरे, मंगलसूत्र और ब्राह्मणों के मंत्रजाप जैसे आडम्बरों के लिए कोई स्थान नहीं है। सत्यशोधक समाज को मानने वाले ही विवाह को संपन्न कराते हैं। इसमें महिलाओं और पुरूषों की समान भागीदारी होती है।”

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सत्यशोधक समाज विवाह की परंपरा:

 

“फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट” के मुताबिक महाज्ञानी सम्राट बलिराजा, तथागत बुद्ध, जोतीराव फुले, कबीर और बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाले राहुल सावले ने भी सत्यशोधक समाज विवाह परंपरा के अनुरूप विवाह किया था। उनका विवाह बगैर दहेज़, बगैर ब्राह्मण और बगैर किसी आडंबर के ज्योतिबा फुले द्वारा स्थापित सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक में वर्णित विवाह संस्कार के हिसाब से संपन्न हुआ था।

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राहुल सावले और मौसमी चैटर्जी, इमेज: फॉरवर्ड प्रेस

खास रस्म:

 

इस विवाह में खास रस्म भी अदा की गई थी जिसमें वर ने वधू के पैर धोकर स्वागत किया था। इस रस्म का उद्देश्य पुरुष प्रधान समाज द्वारा स्थापित स्त्री-विरोधी व्यवस्था को तोड़ा जा सके। राहुल सावले ने भी इसी विधि का अनुसरण किया। पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के पैर धोना दोनों की बराबरी का प्रतीक है। इससे दांपत्य जीवन में स्त्री-पुरुष के बीच रिश्ते की शुरूआत बराबरी के भाव के साथ होती है।

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कम खर्च में विवाह:

आज भी य़े विवाह होते हैं इसमें धन नहीं लगता कम खर्च में शादी हो जाती है। इस पद्धति को वह सब अपना सकते हैं जो फुले की समता और सम्मान आधारित विचारों को मानते हैं। आज भी सत्यशोधक समाज द्वारा इस परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है।

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