आरक्षण के बाद दलितों के कितने बदले हालात

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आधुनिक पूंजीवाद और साम्राज्यवादी शासन ने भारत की जातीय व्यवस्था पर तगड़े हमले किए। फिर भी, दलितों को इस व्यवस्था की बुनियादी ईंट की तरह हमेशा हिफ़ाज़त से रखा गया, ताकि जाति व्यवस्था ज़िंदा रहे।

1850 से 1936 तक ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार इन्हें दबे-कुचले वर्ग के नाम से बुलाती थी। भारत में दलितों की कुल आबादी करीब 20 करोड़ है। ये भारत की कुल आबादी का एक चौथाई के करीब है।

भारत में सभी दलितों के साथ भेदभाव होता है, उन्हें उनके हक से वंचित रखा जाता है। करीब से नजर डालें, तो दलित, ऊंच-नीच के दर्जे में बंटे हिंदू समाज का ही आईना हैं.

1931-32 में गोलमेज सम्मेलन के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने समाज को सांप्रदायिक तौर पर बांटा तो, उन्होंने उस वक्त की अछूत जातियों के लिए अलग से एक अनुसूची बनाई, जिसमें इन जातियों का नाम डाला गया। इन्हें प्रशासनिक सुविधा के लिए अनुसूचित जातियां कहा गया। आज़ादी के बाद के भारतीय संविधान में भी इस औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखा गया। इसके लिए संवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया, जिसमें भारत के 29 राज्यों की 1108 जातियों के नाम शामिल किये गए थे।

बीसवीं सदी की शुरुआत में दलितों की हालत, सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक तौर पर एक जैसी ही थी। गिने-चुने लोग ही थे, जो दलितों की गिरी हुई हालत से ऊपर उठ सके थे। डॉक्टर आम्बेडकर की अगुवाई में दलित आंदोलन ने दलितों को कई फ़ायदे मुहैया कराए।

आज़ादी के बाद बने भारत के संविधान में दलित हितों के संरक्षण के लिए ये व्यवस्थाएं की गई हैं। हालांकि उन्हें लागू करने की प्रक्रिया आधी-अधूरी ही रही है।

1990 के दशक से उदार आर्थिक नीतियां लागू हुईं, तो दलितों की हालत और ख़राब होने लगी। डार्विन के योग्यतम की उत्तरजीविता और समाज के ऊंचे तबक़े के प्रति एक ख़ास लगाव की वजह से नए उदारीकरण ने दलितों को और भी नुक़सान पहुंचाया है.

इसकी वजह से आरक्षित नौकरियों और रोज़गार के दूसरे मौक़े कम हुए हैं। 1997 से 2007 के बीच के एक दशक में 197 लाख सरकारी नौकरियों में 18.7 लाख की कमी आई है. ये कुल सरकारी रोज़गार का 9.5 फ़ीसद है।

इसी अनुपात में दलितों के लिए आरक्षित नौकरियां भी घटी हैं. ग्रामीण इलाक़ों में दलितों और गैर दलितों के बीच सत्ता का असंतुलन, दलितों पर हो रहे ज़ुल्मों की तादाद बढ़ा रहा है।

उदार आर्थिक नीतियों की वजह से हिंदुत्व के उभार और फिर इसके सत्ता पर क़ाबिज़ होने की वजह से दलितों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म बढ़ रहा है। 2013 से आज तक के बीच ऐसी घटनाओं में 33 फ़ीसद की बढ़ोतरी देखी गई है। रोहित वेमुला, उना, भीम आर्मी, हाथरस, आजमगढ़ और भीमा कोरेगांव इत्यादि की घटनाओं से ये बात एकदम साफ़ है.

दलितों के मौजूदा हालात से एकदम साफ़ है कि संवैधानिक उपाय, दलितों की दशा सुधारने में उतने असरदार नहीं साबित हुए हैं, जितनी उम्मीद थी। यहां तक कि छुआछूत को असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद ये आज तक क़ायम है।

आरक्षण का मक़सद दलितों की भलाई और उनकी तरक़्क़ी था, लेकिन इसने गिने-चुने लोगों को फ़ायदा पहुंचाया है। इसकी वजह से ज़ाति-व्यवस्था के समर्थक इस ज़ातीय बंटवारे को बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, जो कि दलित हितों के लिए नुक़सानदेह है।

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