महापुरुष मर जाते है लेकिन उनके विचार नहीं मरते और महापुरुष तब तक जिन्दा रहते है जब तक उनके विचार जिन्दा रहते है !
बाबा साहब आंबेडकर की मृत्यु के पश्चात उनके विचारो को मारने के भरसक प्रयास किये गए, देश मे दक्षिणपंथी आंदोलन के उभार ने आंबेडकर के विचारो को दबाने और उनके विचारो को मारने के साथ अंबेडकर को भी पुनः मारने के प्रयास किये ! जिनमे उन्हें महत्वकांक्षी दलित चमचो का भी साथ मिला !
महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादियों और दलित से बौद्ध बने दलित बोद्धो ने आंबेडकर को न केवल महाराष्ट्र तक सिमित रखा बल्कि उनके विचारो को भी सीमित कर दिया था !
लेकिन ये कोई नहीं जानता था की पुणे मे सहायक वैज्ञानिक के पद पर काम रहा एक शख्स आंबेडकर को पुरे देश मे पुर्नर्जीवित कर देगा, जी हां हम बात कर रहे है कांशीराम की जिन्होंने दलित और पिछड़े वर्ग के लिए एक ऐसी जमीन तैयार की, जहां पर वे अपनी बात कह सकें और अपने हक के लिए लड़ सकें। आजीवन अविवाहित रहे कांशीराम ने पूरा जीवन पिछड़े वर्ग के लोगों की उन्नति के लिए और उन्हें एक मजबूत और संगठित आवाज देने के लिए समर्पित कर दिया। अछूतों और दलितों के उत्थान के लिए उन्होंने जीवनभर कार्य किया और बहुजन समाज पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टी की स्थापना की।
आंबेडकरवाद को कांशीराम ने जिस तरह से पुनर्स्थापित किया, उनके आसपास भी कोई दूसरा नहीं दिखता। दरअसल, सामाजिक परिवर्तन व्यापक फलक पर कांशीराम जैसे समर्थ चेहरों की ही जरूरत थी। कांशीराम का जीवन देखें तो इस आंदोलन को लेकर उनका समर्पण दिखता है।
” स्वाभिमान लोग ही संघर्ष की परिभाषा समझते हे,जिनका स्वाभिमान मारा होता हे वे गुलाम होते है “
लेकिन कांशीराम का ये सफर इतना आसान नहीं था, इसके लिए सबसे पहले उन्होंने 1971 मे अपनी नौकरी छोड़ी और अपना पूरा जीवन बहुजन समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया !
1965 में कांशीराम ने डॉ. अम्बेडकर के जन्मदिन पर सार्वजनिक अवकाश रद्द करने के विरोध में संघर्ष किया। इसके बाद उन्होंने पीड़ितों और शोषितों के हक के लिए लड़ाई लड़ने का संकल्प ले लिया। उन्होंने संपूर्ण जातिवादी प्रथा और डॉ. बीआर अम्बेडकर के कार्यों का गहन अध्ययन किया और दलितों के उद्धार के लिए बहुत प्रयास किए। 1971 में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपने एक सहकर्मी के साथ मिलकर अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संस्था की स्थापना की।
“जिस कौम को मुफ्त में खाने की आदत हो,वो क्रांति नहीं कर सकती,जो क्रांति नहीं करेंगे वो कभी शासक नहीं बनेगे और जो शासक नहीं बनेंगे उनकी बहन बेटी सुरक्षित नहीं रह सकती”
सन् 1973 में कांशीराम ने अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर बामसेफ (बैकवार्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉई फेडरेशन) की स्थापना की।
इसके पश्चात कांशीराम ने अपना प्रसार तंत्र मजबूत किया और लोगों को जाति प्रथा, भारत में इसकी उपज और अम्बेडकर के विचारों के बारे में जागरूक किया। वे जहां-जहां गए, उन्होंने अपनी बात का प्रचार किया और उन्हें बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ।
सन् 1980 में उन्होंने ‘अम्बेडकर मेला’ नाम से पद यात्रा शुरू की। इसमें अम्बेडकर के जीवन और उनके विचारों को चित्रों और कहानी के माध्यम से दर्शाया गया। 1981 में कांशी राम ने बामसेफ के समानांतर दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की।
” दलित एक प्रकार का भिखमंगापन है,जिस प्रकार कोई भिखारी शासक नहीं बन सकता उसी प्रकार बिना अपना दलितपन छोड़े कोई समाज शासक नहीं बन सकता “
कांशीराम ने नौकरी छोड़ने के बाद यह प्रण लिया था की वह आजीवन अविवाहित रहेंगे, कभी सम्पत्ति अर्जित नहीं करेंगे और न कभी घर जायेंगे
कांशीराम अपने सिद्धांतो पर जीवन अडिग रहे यहाँ तक की अपने पिता की मृत्यु व् अपनी बहन की शादी मे भी घर नहीं गए !
बाबा साहब आंबेडकर के बाद कांशीराम साहब एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होने अपनी पांच प्रतिज्ञा कभी नही तोङी वो हैं :-
1- मैं कभी शादी नहीं करूंगा ।
2- मैं कभी घर नहीं जाऊँगा ।
3- मैं अपने लिए कोई सम्पत्ति नहीं बनाऊंगा ।
4- मैं आगे कोई नौकरी नही करूँगा ।
5- मैं किसी सामाजिक समारोह, जन्मोत्सव, विवाह, मृत्यु आदि में नहीं जाऊँगा ।
” राजनीती चले न चले,सरकार बने न बने लेकिन ये सामाजिक परिवर्तन की गति किसी भी कीमत पर रुकनी नहीं चाहिए “
यह कांशीराम का त्याग ही था की आंबेडकर के बाद दलित आदिवासी पिछड़े व् अल्पसंख्यक एक बार फिर आशा भरी निगाहो से कांशीराम को देख रहे थे ! कांशीराम ने जीवनपर्यन्त बहुजन समाज के उत्थान के लिए कार्य किये !
कांशीराम ने दलितों मे सामाजिक व् राजनैतिक चेतना जाग्रत करने के उद्देश्य से देशभर मे 42000 किमी की साईकिल यात्रा की ! कांशीराम का कहना था की ”मै सीमित साधनो मे भी आगे बढ़ने मे माहिर हु”
एक बार एक पत्रकार ने जब साहब से सवाल किया की ‘पार्टिया चलाना और चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल काम है क्योकि आपके पास कोई टाटा बिरला नहीं है जो आपको पैसा दे सके’ इस पर साहब कांशीराम का जवाब था की ‘मै हर महीने एक टाटा-बिरला पैदा कर सकता हु, मेरे समाज की आबादी 80 करोड़ है अगर एक एक व्यक्ति भी मुझे दस-दस रूपये तो मेरे पास 800 करोड़ हो जाये और इस तरह मै हर महीने एक टाटा-बिरला और हर साल 12 टाटा बिरला पैदा कर सकता हु, टाटा बिरला पैदा करता मेरे लिए बाए हाथ का खेल है, बशर्ते मेरा समाज इकट्ठा हो जाये
“चमचे को अपने वर्ग के सच्चे व् वास्तविक नेता को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है,चमचो की मांग तभी होती हे जब सामने सच्चा और वास्तविक संघर्षकर्ता मौजूद हो”
दलित राजनीति के सक्रिय होने का श्रेय बिना किसी संदेह कांशीराम को जाता है.
कांशीराम अक्सर अपनी पेन से इस देश मै व्यापत ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बारे मै समझते थे और कहते थे की इस खड़ी व्यवस्था को हमे आड़ी करना है
कांशीराम समाज को राजनितिक तौर पर जाग्रत करने के लिए अक्सर अपने भाषणों मै ‘गुरुकिल्ली’ शब्द का इस्तेमाल करते थे मतलब ताला खोलने के लिए चाहिए चाबी. पंजाबी में कहें तो किल्ली. और हर किस्म का ताला खोले जो चाबी. वो कहलाये गुरकिल्ली. यानी मास्टर की.
”सत्ता ही वो मास्टर चाबी है जिसमे साड़ी समस्याओं का हल है” कांग्रेस ब्राह्रमणों, दलितों और मुसलमानों के वोट पाकर सत्ता में पहुंचती थी. सत्ता के शीर्ष पर कोई ब्राह्मण या ठाकुर बैठता था. कुछ दलितों को कैबिनेट में एडजस्ट कर लिया जाता था.
इसलिए कांशीराम कहते थे की हमें इस देश का हुक्मरान बनना है ”जिस समाज की शासन और प्रशासन में भागीदारी नही होती, वह समाज जिंदगी के हर पहलू में पिछड़ जाता है..
क्योंकि, शासन और प्रशासन हुकूमत के दो अंग है.. जिस समाज का हुकूमत में हिस्सा नही होता, वह समाज जिंदगी भर दूसरे पहलू में भी अपना हक हासिल नही कर शकता..
”जिस समाज की गैर राजनैतिक जड़े मजबूत नहीं होती वह समाज राजनीति में कभी टिक नहीं सकता ”
जब कांशीराम को समझने मै वाजपेयी भी चूक गए :
कांशीराम के जीवन की एक घटना और उद्देश्य दोनों से गहरा संबंध है. कहते हैं कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कांशीराम ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देने वाले कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे. वे राष्ट्रपति बनकर चुपचाप अलग बैठने के लिए तैयार नहीं हुए.
यह क़िस्सा पहले भी बताया जाता रहा है. लेकिन इस पर खास चर्चा नहीं हुई कि आख़िर अटल बिहारी वाजपेयी कांशीराम को राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहते थे. कहते हैं कि राजनीति में प्रतिद्वंद्वी को प्रसन्न करना उसे कमज़ोर करने का एक प्रयास होता है. ज़ाहिर है वाजपेयी इसमें कुशल होंगे ही. लेकिन जानकारों के मुताबिक वे कांशीराम को पूरी तरह समझने में थोड़ा चूक गए. वरना वे निश्चित ही उन्हें ऐसा प्रस्ताव नहीं देते.
वाजपेयी के प्रस्ताव पर कांशीराम की इसी अस्वीकृति में उनके जीवन का लक्ष्य भी देखा जा सकता है. यह लक्ष्य था सदियों से ग़ुलाम दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना. उसे ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’ बनाना.
लगभग हजारो सालोंं से चले आ रहे बहुजन महापुरुषो के मिशन को पूरे देस मे फैलाने वाले मान्यवर कांशीराम जी का ये समाज कर्जदार है।
साथियो मान्यवर जी का मानना था की राजनीतिक सत्ता को समाजिक परिवर्तन के लिए प्रयोग किया जा सकता है इसीलिए उन्होंने अंतिम छोर पर खडे दबे कुचले पिछड़े हुुुए इंसान को ऊपर उठाने के लिए संघर्ष किया।
“हमारा संघर्ष हमारे महापुरुषों के संघर्ष के आगे शून्य है, इसके बावजूद भी हम अपने समाज को जगाने की कोशिस भी न करे तो धिक्कार है !”
जिस आंबेडकरवाद ने देश के बड़े हिस्से को प्रभावित किया, आज उसका कोई राष्ट्रीय चेहरा न होना, इससे जुड़े बड़े तबके में अचरज से ज्यादा चिंता पैदा करता है। डॉ. आंबेडकर के सामाजिक परिवर्तन के प्रारूप को राजनीतिक धरातल पर उतारने वाले कांशीराम के बाद आंबेडकरवाद की सर्वमान्य अगुवाई आखिरकार कौन कर रहा है? कांशीराम इस विचारधारा के आखिरी वटवृक्ष के रूप में क्यों दिखते हैं?
यह सच है कि बड़ी शख्सियतों के बाद उनकी जगह बमुश्किल ही भरी जा पाती है। डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक परिवर्तन की जितनी बड़ी मुहिम की नींव रखी, उसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए उनके 65 वर्ष की आयु बहुत कम थी। उनके निधन के बाद इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए कोई सर्वमान्य विश्वसनीय राष्ट्रीय चेहरा, कांशीराम के उभार से पूर्व पूरे परिदृश्य में नहीं दिखा।
*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *
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