मनुस्मृति दहन दिवस: समानता के पथ पर आंबेडकर का ऐतिहासिक कदम

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केन्द्रीय मंत्री अमित शाह द्वारा बाबा साहब आंबेडकर पर दिए गए बयान से बहुजनों में जो रोष उत्पन्न हुआ है वह जल्द थमता दिखाई नहीं दे रहा. इसी बीच आंबेडकर से जुड़ी हर वो बात जो सभी नागरिकों को नागरिक होने का सम्मान देती है, सबके सामने लाई जा रही है क्योंकि यह विवाद केवल एक बयान तक सीमित नहीं है, बल्कि उस व्यापक विचारधारा से जुड़ा है जो भारतीय संविधान और मनुस्मृति के बीच जारी वैचारिक संघर्ष को दर्शाता है.

कर्मण्येवाधिकारस्ते के कर्म प्रधान भारत को आंबेडकर ने जो अधिकार प्रधान दस्तावेज दिया वो स्वयं में क्रांतिकारी पहल थी. सोचिये जिस देश में करोड़ों लोग जीवनभर अछूत रहते हुए अपना कर्तव्य करने पर बाध्य थे, उन्हें अचानक समान अधिकार मिल जाए तो वह कितने बड़े सांस्कृतिक बदलाव का दौर रहा होगा.

मनुस्मृति पर बहस

हाल ही में एक लाइव टीवी डिबेट में प्रियंका भारती ने मनुस्मृति पर जो बहस छेड़ी वह हजारों सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी सताए हुए उस समाज की व्यथा है जिसे हमेशा से ही हाशिए पर धकेला जाता रहा. उसे अगर किसी ने मान सम्मान और नागरिक अधिकार दिए तो वह उनके आराध्य रूपी महामानव बाबा साहब आंबेडकर ने. आंबेडकर ने ख़ुद उस दर्द और यातना को जीवन भर झेला और प्रण किया कि वह अपने समाज को इस गैर बराबरी और असामनता से मुक्त कराकर रहेंगे.

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बाबा साहब के संविधान ने लिखने पढ़ने का अधिकार दिया

आज से 97 साल (लगभग एक सदी) पहले, 25 दिसम्बर 1927 को बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर को पहली बार मनुस्मृति का प्रतीकात्मक रूप से दहन करना पड़ा? उस दौर में भारतीय समाज में जो कानून चल रहा था वह मनुस्मृति के विचारों पर आधारित था. यह एक ब्राह्मणवादी, पुरुष सत्तात्मक, भेदभाव वाला कानून था, जिसमें ना तो महिलाओं के कोई अधिकार थे ना ही अछूतों के क्योंकि ऊंची जातियों को इसमें हमेशा अपना स्वामित्व ही नजर आता रहा? शूद्र को हमेशा ही शारीरिक श्रम के ज़रिए होने वाले ऐसे सभी कामों में डाल दिया ताकि वह मुख्यधारा में शामिल ना हो सके और खुद को मजबूर और असहाय मानकर इसे अपनी नियति समझता रहे. ऐसा सदियों से चलता आ रहा है लेकिन जब से बाबा साहब के संविधान ने लिखने पढ़ने का अधिकार दिया तब से जागरूकता बढ़ने के कारण निचला तबका भी नौकरियों में व्यापार में आगे बढ़ने लगा. वह खुद को मजबूत महसूस करने लगा और नए कीर्तिमान स्थापित करने लगा और यही बदलाव संघी मानसिकता वाले लोग पचा नहीं पा रहे.

संविधान पर भाजपा द्वारा लगातार प्रहार करना

ध्यान रहे कि जब से केंद्र की सत्ता में भाजपा की सरकार आई है संविधान बनाम मनुस्मृति पर चर्चा लगातार जारी है और इसका एकमात्र कारण है बाबा साहब के संविधान पर भाजपा द्वारा लगातार प्रहार करना. आज भाजपा केंद्र और कई राज्यों में सरकार चला रही है. वह कभी खुद को गोलवलकर के विचारों से अलग नहीं कर पाई.

गोवलकर की बंच ऑफ थॉट्स में लिखा है, ‘प्राचीन काल में भी जातियां थीं और हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन का वे लगातार हिस्सा बनी रहीं….हर व्यक्ति की, समाज की उचित सेवा करने के लिए उसकी उस कार्य प्रणाली में, जिसके लिए वह सबसे अधिक उपयुक्त हैं, वर्ण-व्यवस्था मदद करती है.

हिंदू धर्म शास्त्रों एवं मनुस्मृति में महिलाओं और अछूतों को संपत्ति के तौर पर दर्शाते हैं. मनुस्मृति में महिलाओं से संबंधित कुछ निर्देश इस तरह हैं:

पुत्री, पत्नी, माता या कन्या, युवा, वृद्धा-किसी भी स्वरूप में नारी स्वतंत्र नहीं होनी चाहिए-मनुस्मृति, अध्याय-9 श्लोक-दो से छह.

पति पत्नी को छोड़ सकता है, गिरवी रख सकता है, बेच सकता है, पर स्त्री को इस प्रकार के अधिकार नहीं हैं-मनुस्मृति, अध्याय-9, श्लोक-45.

ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है. इसके अतिरक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है. अध्याय- 10, श्लोक 123-124.

शूद्र धन संचय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करे क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है. अध्याय- 10 श्लोक 129-130.

मनुस्मृति के अनुसार

मनुस्मृति के अनुसार, एक ही अपराध के लिए अपराधी की जाति और जिसके साथ अपराध हुआ है, उसकी जाति देखकर सजा दी जानी चाहिए. जिन धर्म शास्त्रों में समान अधिकारों की बात ना हो उस को बढ़ावा देने से इस तरह की घटनाओं में और इजाफा होगा.

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इन्हीं रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक विचारों को ख़ारिज करने के लिए, सभी नागरिकों को समानता का दर्जा देने के लिए बाबा साहब आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 में मनुस्मृति का सार्वजनिक तौर पर दहन किया. उनका मानना था कि मनुस्मृति भारतीय समाज के लिए एक घातक दस्तावेज है, जो समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है.

डॉ. आंबेडकर के विचार हमें एक समतावादी समाज की ओर ले जाते हैं. उनका संविधान हर व्यक्ति को समानता, स्वतंत्रता, और गरिमा का अधिकार देता है. मनुस्मृति जैसे ग्रंथों का विरोध तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक जातिवाद और असमानता का खात्मा नहीं हो जाता.

मनुस्मृति दहन दिवस केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई का प्रतीक है. डॉ. आंबेडकर का संघर्ष हमें याद दिलाता है कि असमानता के खिलाफ खड़ा होना हर नागरिक का कर्तव्य है. हमें उनके आदर्शों पर चलते हुए एक ऐसा समाज बनाना होगा, जहां सभी को समान अवसर और अधिकार मिलें.

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