बोधगया स्थित महाबोधि विहार विश्वभर के लोगों के लिए एक धार्मिक और सांस्कृतिक आस्था का केंद्र है। यह वही भूमि है जहाँ सिद्धार्थ गौतम ने आत्मबोध प्राप्त किया और बुद्ध बने। यह केवल एक ऐतिहासिक स्मारक नहीं, बल्कि ज्ञान, करुणा और आत्ममुक्ति का प्रतीक स्थल है। इस स्थल की सार्वभौमिकता के बावजूद, इसके नियंत्रण, प्रतीकों और अनुष्ठानों में जो बदलाव आए हैं, वे किसी सामान्य धार्मिक व्यवस्थागत प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बल्कि एक सधे हुए सांस्कृतिक पुनर्गठन और विरूपण का परिणाम प्रतीत होते हैं।
पवित्र भूमि पर ब्राह्मणीकरण
1949 में बिहार सरकार द्वारा बनाए गए बोधगया मंदिर प्रबंधन अधिनियम के अंतर्गत, महाबोधि मंदिर एक प्रबंधन समिति के अधीन किया गया। इस समिति में बहुसंख्यक सदस्य हिन्दू समुदाय से होते हैं और अध्यक्ष का हिन्दू होना अनिवार्य है। विडंबना यह है कि यह वही स्थल है जहाँ बौद्ध धर्म की उत्पत्ति मानी जाती है, लेकिन इसके प्रशासन पर आज बौद्धों का कोई निर्णायक नियंत्रण नहीं है।
यह एक प्रश्न नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है — ऐसी प्रक्रिया जो किसी धर्म के आध्यात्मिक केंद्र को उस धर्म के अनुयायियों से ही दूर कर देती है। प्रशासनिक संरचना से लेकर पूजापद्धति और सांस्कृतिक प्रतीकों तक, महाबोधि विहार धीरे-धीरे उस परंपरा से अलग होता गया जिसकी आत्मा में यह उत्पन्न हुआ था।
बौद्ध धर्म का विरूपण और ब्राह्मीकरण की प्रक्रिया
महाबोधि विहार में कई ऐसे संकेत मिलते हैं जो बौद्ध परंपरा की उपेक्षा और ब्राह्मीकरण की ओर इशारा करते हैं। मंदिर परिसर में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं; पूजा-पद्धतियों में वैदिक/हिन्दू अनुष्ठान जैसे आरती, घंटा-घड़ियाल आदि को प्रमुखता मिलने लगी है; और संस्कृत श्लोकों की प्रधानता बढ़ गई है, जबकि बौद्ध परंपरा पालि और प्राकृत भाषा पर आधारित है।
यह प्रक्रिया कोई नई नहीं है। ब्राह्मीकरण का यह तरीका – जहाँ किसी धर्म, सम्प्रदाय या संस्कृति के प्रतीकों, स्थलों और परंपराओं को धीरे-धीरे हिन्दू तत्वों से प्रतिस्थापित किया जाता है – भारत में पहले भी देखा गया है।
अन्य उदाहरण:
1. कुशीनगर – बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल पर अब वैदिक पद्धति से आयोजन होते हैं, और वहाँ के प्रशासन में बौद्ध भिक्षुओं की भूमिका नाममात्र है।
2. सारनाथ – जहाँ बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, वहाँ भी हिन्दू प्रतीकों का प्रवेश देखा गया है, और मंदिरों के प्रांगण में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।
3. नालंदा और वैशाली – ऐतिहासिक रूप से बौद्ध शिक्षा का केंद्र रहे ये स्थल अब पर्यटन और सांस्कृतिक उत्सवों तक सीमित होकर रह गए हैं। वहां के बौद्ध संदर्भों को शैव या वैष्णव प्रतीकों से आच्छादित किया जा रहा है।
यह केवल प्रतीकों की बात नहीं है
ब्राह्मीकरण केवल मूर्तियों और मंत्रों तक सीमित नहीं है; यह दृष्टिकोण की भी बात है। बौद्ध धर्म मूलतः कर्म, करुणा और तर्कशीलता पर आधारित रहा है — जहाँ आत्मा, ब्रह्म, वेद या यज्ञ की कोई अवधारणा नहीं है। बुद्ध ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और नारी व शूद्र को धार्मिक समता दी। लेकिन जब बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मणवादी प्रतीक, मंत्र और कर्मकांड हावी हो जाते हैं, तो वह केवल धार्मिक अपहरण नहीं होता — वह मूल दर्शन की हत्या होती है।
मौन प्रशासन, सक्रिय विरूपण
राज्य सरकारों और पुरातत्व विभाग की भूमिका इस पूरे संदर्भ में विचारणीय है। UNESCO द्वारा विश्व धरोहर घोषित होने के बावजूद, महाबोधि मंदिर को एक संरक्षित सांस्कृतिक धरोहर के रूप में नहीं, बल्कि ‘तटस्थ’ हिन्दू-मूल्य आधारित धार्मिक स्थल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। परिणामतः, बौद्ध भिक्षु केवल दर्शक बनकर रह जाते हैं।
वर्तमान आंदोलन: आत्मसम्मान की पुकार
2025 में बौद्ध समुदाय द्वारा शुरू किया गया आंदोलन इस स्थिति के विरुद्ध आत्मसम्मान की घोषणा है। यह कोई विशेषाधिकार की मांग नहीं, बल्कि अपनी परंपरा और पवित्र स्थलों के संरक्षण की मांग है। इस आंदोलन में बौद्ध अनुयायी, भिक्षु और युवा संगठनों ने शांतिपूर्ण भूख हड़ताल और प्रतिवाद के माध्यम से एक बार फिर इतिहास को चेताने की कोशिश की है।
उनकी माँगें साफ हैं:
महाबोधि मंदिर का पूर्ण प्रशासन बौद्ध समुदाय को सौंपा जाए।
1949 का मंदिर अधिनियम रद्द या संशोधित किया जाए।
बौद्ध स्थलों को बौद्ध सांस्कृतिक परंपरा के अनुरूप पुनर्स्थापित किया जाए।
प्रश्न और भविष्य
यह प्रश्न केवल महाबोधि विहार का नहीं है। यह सवाल है — क्या भारत में बौद्ध धर्म को उसकी समुचित जगह, पहचान और अधिकार मिल पाएगा? क्या संविधान के धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी मूल्यों के अंतर्गत सभी धार्मिक समुदायों को समान सांस्कृतिक अधिकार मिलेंगे?
बौद्ध धर्म भारत की आत्मा में रचा-बसा है। यदि उसी धर्म को उसके पवित्र स्थलों से बाहर रखा जाए, तो यह केवल धार्मिक अन्याय नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विडंबना बन जाती है।
निष्कर्ष
महाबोधि विहार एक मंदिर भर नहीं — वह बौद्ध चेतना का केंद्र है। उसका प्रशासन, उसकी पूजा-पद्धति, और उसकी सांस्कृतिक पहचान उसी परंपरा के अनुरूप रहनी चाहिए जिसने उसे जन्म दिया। यदि इस स्थल को ब्राह्मणवादी प्रतीकों से ढंक दिया जाए, तो यह न केवल बौद्ध धर्म की अवहेलना है, बल्कि उस ऐतिहासिक संवाद और सांस्कृतिक विविधता की भी हत्या है जिसे भारत अपनी शक्ति मानता है।
यह समय है — जब भारत को अपनी जड़ों की ओर देखने की आवश्यकता है — बिना उसे ‘एक’ संस्कृति में समाहित किए, बल्कि हर संस्कृति को उसके अपने स्वरूप में स्वीकार कर। महाबोधि विहार को उसका आत्मा लौटाना केवल बौद्धों के लिए नहीं, बल्कि समस्त भारत के लिए सांस्कृतिक पुनर्पाठ का अवसर है।