गांधी कितने पक्के जातिवादी थे? जानिए बाबा साहब ने गांधी के बारे में क्या कहा।

Mahatma Gandhi
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महात्मा गांधी का जन्म भारत के एक गुजराती परिवार में 2 अक्टूबर सन 1869 में हुआ थ। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधानमन्त्री थे.  गुजराती भाषा में गांधी का अर्थ है पंसारी। कुछ भी हो यह कोई ऐसी नीची जाति से सम्बन्ध नहीं रखती थी। अतः जातिगतभेदभाव के दर्द गांधी का गांधी से बचपन में कोई वास्ता नहीं रहा है, विपरीत इसके अम्बेडकर का बचपन जातिगत भेदभाव से भरे ऐसे कष्टमय वातावरण में हुआ जिसकी कल्पना से ही रूह काँप जाती है।

सन 1955 में बीबीसी को दिए एक इंटर्व्यू में बाबा साहब ने गांधी के बारे में कहा था (यह इंटर्व्यू अंग्रेज़ी में था, उसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है :

मैं एक कॉमन फ़्रेंड के ज़रिए पहली बार साल 1929 में मिस्टर गांधी से मिला, उस दोस्त ने गांधी को मुझसे मिलने की सलाह दी, फिरगांधी ने मुझे पत्र लिखकर मिलने की इच्छा जताई, और मैं राउण्ड  टेबल कनफ़्रेस में शामिल होने से पहले उनसे मिलने गया था, फिर वो दूसरी राउण्डटेबल कनफ़्रेस में आए, पहली कनफ़्रेस में नही आए थे, और वो पाँच- छः महीनों के लिए वहीं थे, ज़ाहिर है दूसरी राउण्डटेबलके दौरान वहाँ मेरी उनसे मुलाक़ात भी हुई और आमना-सामना भी हुआ, फिर उसके कुछ दिनों बाद, पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर होने के बाद, उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कहा, मैं उनसे मिलने गया, उस समय वो जेल में थे। इतनी बार मैं गांधी से मिला हूँ, और हमेशा ये कहता हूँ, की मिस्टर गांधी से मैं विरोधी की तरह ही मिला हूँ, तो मुझे लगता है मैं उन्हें और लोगों के अपेक्षा ज़्यादा बेहतर तरीक़े से जनता हूँ, क्योंकि उन्होंने अपना असली ज़हरीले दांत मेरे सामने खोले हैं, और मैं उस इंसान के अंदर झांक के देख पाया, जबकि दूसरे वहाँ सिर्फ़ भक्त की तरह ही गए, तो और कुछ नहीं देख पाते थे, बल्कि वो वही बाहरी छवि देखते थे जो उन्होंने अपनी महात्मा की बना के रखी हुई थी, लेकिन मैंने उनका मानवीय चेहरा देखा है, उनके अंदर का असली आदमी, और इसलिए मैं ये कह सकता हूँ की मैंने गांधी के साथ जुड़े रहे लोगों की तुलना में कहीं बेहतर तरीक़े से उन्हें समझा है।” जो आपने देखा उसके बारे में आप क्या कहेंगे? इंटर्व्यूअर ने पूछा। अम्बेडकर : “अगर मैं साफ़ बोलूँ तो इस बात पर काफ़ी हैरानी होती है कि सभी, ख़ास तौर पर पश्चिमी जगत गांधी में इतनी दिलचस्पी लेता है, मुझे ये सब समझने में परेशानी होती है। जहां तक भारत की बात है, वो इस देश के इतिहास में एक हिस्सा भर हैं, कभी एक युगनिर्माता नहीं। गांधी की यादें इस देश के लोगों के ज़हन से जा चुकी हैं, जो यादें बची हाँ वो इसलिए क्योंकि कांग्रेस उनके जन्मदिन याजीवन से जुड़े किसी ख़ास दिन पर छुट्टी देती है और हर साल सप्ताह के सात दिन कोई ना कोई आयोजन किया जाता है जिस वजह से स्वाभाविक ही वो यादें ताजी हो जाती हैं, लेकिन मुझे लगता है अगर ये यादें बनाने का कृत्रिम तरीक़ाना अपनाया जाता तो गांधी को कबका भुलाया जा चुका होता।” …. “मैंने कभी गांधी को अपनी पूरी ज़िंदगी महात्मा नही कहा, न ही कभी महात्मा माना, मैं उन्हें महात्मा कहने से मना करता हूँ, यहाँ तक कि वो महात्मा कहलाने योग्य ही नहीं हैं, नैतिकता की दृष्टि से भी नहीं।”

गांधी कट्टर रूढ़िवादी और छुआछूत समर्थक थेः

बाबा साहब गांधी को कभी दलितों के हितैषी नहीं मानते थे, गांधी जी कभी भी दलितों को अधिकार दिए जाने के लिए नहीं लड़े, भूख हड़ताल भी की दलितों के अधिकार छीनने के लिए। दलित आंदोलन गांधी द्वारा चलाए गए आंदोलनों में गिना तो जाता है पर गांधी ने दलितों के लिए क्या किया इसका कोई ठोस जबाब किसी के पास नहीं है। अनुसूचित जाति और जनजाति के ऐसे लोग जिन्हें समाज मेंकभी सम्मान नहीं मिला था, कभी पेट भर रोटी नहीं मिली, कभी पहनने ओढ़ने के लिए अच्छे कपड़े नसीब नहीं हुए थे, कभी बैठने के लिएउचित स्थान नहीं मिला था, पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने के सभी दरबाज़े बंद थे, और ना जाने कितनी कठिनाइयों और अपमानजनक जीवन जीने को मजबूर इन जातियों के लोगों को गांधी “हरिजन” कहकर संबोधित करते थे। हरिजन यानी भगवान के बच्चे, (“हरि” का अर्थ होता है “भगवान” और “जन” का अर्थ होता है “के द्वारा पैदा हुए”)। दलित समुदाय के लोगों को ‘अस्पृश्य या अछूत’ कहकर संबोधित करने को महात्मा गांधी ने गलत बताते हुए उन्हें ‘हरिजन’ यानी ‘भगवान के बच्चे’ की संज्ञा दी, ‘हरिजन’ नाम से उन्होंने तीन पत्रिकाएं भी निकालीं थी।

सच्चाई यह है कि दलित हित के मामले कोई भी वर्तमान राजनीतिक दल ईमानदार  नज़र नहीं आता है। सबकी दिलचस्पी केवल दलितों के वोट हासिल करने में ही रही है। यही कारण है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग उत्पीड़न एवं भेदभाव का शिकार हो रहे हैं, और इनके हक़ में उन उच्च पदोंपर आरक्षण के सहारे बैठे नेताओं और सत्ताधीशों के मुख़ से दो शब्द नहीं निकलते हैं। ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ दलितों में मौजूद चमचों के सहारे अनुसूचित जाति जनजाति के लोगों को जोड़ने का प्रयास करती रहती हैं, और दलित हितैषी होने का दम भरती रहती हैं।

1925 में गुजराती भाषा में “वर्ण व्यवस्था” शीर्षक नामक पुस्तक के अनुसार गांधी द्वारा वर्णव्यवस्था की व्याख्या – मैं विश्वास करता हूँ कि वर्णों का विभाजन जन्म के आधारित है। वर्णव्यवस्था इस बात की अनुज्ञा देता है कि शूद्र धनोपार्जन के लिए अध्ययन नहीं करेगा न क्षत्रिय ही धनोपार्जन के लिए सेवा कार्य अपनायेगा। गांधीजी के अनुसार वर्ण व्यवस्था श्रम विभाजन की प्रणाली है जो समाज में श्रम की जरूरत तथा श्रम की उपलब्धता में समन्वय करती है। गांधी जी वर्ण व्यवस्था को वंशनुगत माना है अर्थात् वो मानते हैं कि वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है। गांधी जी स्पष्ट रूप से मानते है कि हर व्यक्ति को अपना पैतृक व्यवसाय अपनाना चाहिये।

इतिहास में गांधी को इतनी अच्छे तरीक़े से पेश किया गया की गांधी का नाम बच्चा बच्चा जनता है लेकिन अम्बेडकर को सिर्फ़ पढ़े लिखे और अनुसूचित जाति के अलावा जनजाति के कुछ जागरूक लोगों तक ही सीमित रखे गए, इसके पीछे एक सोची समझी साज़िश जैसीलगती है। लोग अम्बेडकर को जितना अधिक जानेंगे उतना ही अधिक अपने अधिकारों के लिए जागरूकता से लड़ सकेंगे और भारत केनिर्माण ख़ास कर सामाजिक उत्थान में अम्बेडकर के योगदान को जान सकेंगे। महिलाओं के अधिकारों के बाबा साहब के योगदान कोजनता से दूर रखा गया।

प्रकाशन संस्थान दिल्ली की किताब “मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) के लेखक “विकास मुखर्जी” जी अपनी किताब के पेज 103 पर लिखते हैं,  “मोहनदास करमचन्द गांधी के सीने में पिस्तौल सटाकर जिसने उनकी हत्या की थी वह आर.ए.एस. (RSS) नाम के एक असहिष्णु कट्टरवादी संगठन का युवा कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे नामक उन्माद हत्यारा थ। अश्वेतों के अधिकारों के लड़ाई लड़ रहे और गांधी के भावादर्श से अनुप्रमाणित शिष्य शांति के पुजारी मार्टिन लूथर किंग जूनियर की गोलियों से हत्या की, वह KKK नाम के संगठन का सदस्य था, इन दोनो घटनाओं ने प्रमाणित किया कि वर्ण, जाति, धार्मिक उन्माद इंसान को पशु के स्तर तक गिरा देता है।” आपको बता दें KKK (यानी Ku Klux Klan) जिसकी स्थापना अमेरिका में श्वेत समाज द्वारा अश्वेतों के अधिकार की रक्षा के आंदोलनों को ध्वस्त करने के लिए शारीरिक हमला करना जिसके लिए बंदूक़ और बमों का इस्तेमाल करना।

जब आयी है जाति-धर्म के कट्टरता की आँधी,
वे-मौत मारे गए हमेशा लूथर किंग और गांधी। 

इस तरह अहिंसा के पुजारी जिनके जन्म दिवस को सभी संयुक्त राष्ट्र के सदस्य ‘अंतर्राष्ट्रीय अंहिसा दिवस’ के तौर पर मनाते हैं, एक धार्मिक, जातिवादी की हिंसा के शिकार हो गए और भरी भीड़ में दुनिया को  30 जनवरी 1948 को छोड़ कर चले गए।

यह लेख जितेन्द्र कुमार गौतम (ट्विटर @ErJKGautam) द्वारा लिखा गया है, लेखक मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण, जातिवाद एवं सामाजिक मुद्दों इत्यादि पर लेख और कवितायेँ लिखते रहते हैं।

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