डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का पूरा नाम था, भीमराव रामजी अंबेडकर। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले का एक छोटा सा गांव आंबडवे बाबासाहेब के पुरखों का गांव है। माताजी का नाम भीमाबाई और पिताजी का रामजी सकपाल था। दादाजी का नाम मालोजी सकपाल था। दरअसल सकपाल इनके परिवार के कुल का नाम है जो कि उनका भूषण व गौरव माना जाता है। बाबा साहब हिन्दू धर्म में अछूत समझी जाने वाली जाति महार से थे। उनके पूर्वज गांव में धार्मिक त्योहारों के समय देवी-देवताओं की पालकियां उठाने का काम किया करते थे.
महार जाति की हकीकत?
कहा जाता है कि इस जाति के लोग काफी बहादुर होते थे, लेकिन नीची जाति कहे जाने के कारण महारों को अच्छी सरकारी नौकरियां, पुलिस विभाग या इज्जत वाले काम धंधे नहीं मिलते थे। रास्तों की सफाई करना, शौचालय साफ करना, जूते बनाना, गांव की चौकीदारी, मरे मवेशियों की खाल उतारना, बांस की चीजें बनाना आदि जो भी हेय समझे जाने वाले काम थे वह इसी जाति के लोगों से करवाए जाते थे। खेतों में भी दास व गुलामों की तरह बेगार कराई जाती थी। न कोई जातिगत व्यवसाय न खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा कुछ भी तय नहीं। हर ओर केवल अपमान व शोषण, जिसके कारण इस बहादुर व बुद्धिमान कौम का जीवन नरक या यूं कहे कि जानवरों से भी बदतर था।
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सवर्ण हिंदुओं को तो महारों की छाया से भी घृणा थी और पेशवा काल में तो इनकी दशा बहुत दयनीय हो गई। इन्हें इंसान तो समझा ही नहीं जाता था।
इनकी बस्तियां गांव से बाहर की ओर होती थी, जिसे सवर्ण लोग नफरत से ‘महारवाड़ा’ कहते थे। इतिहासकारों की माने तो महार महाराष्ट्र के मूलनिवासी थे और उन्ही के नाम पर ‘महार- राष्ट्र’ या ‘महाराष्ट्र’ नाम पड़ा। महार शब्द की उत्पति महा-अरि से मानी जाती है यानी बड़ा दुश्मन।
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महार रेजिमेंट की स्थापना
महार जाति के लोग मजबूत कद काठी वाले, रौबिली आवाज, बुद्धिमान व बहादुर लड़ाकू प्रवृति के होते थे। इसी कारण राजा-महाराजाओं द्वारा सेना में महारों को प्राथमिकता से रखा जाता था। उस समय भारत में आने वाले यूरोपीयन लोगों ने बहादुर महारों की पहचान करने में देर नहीं की और सेना को मजबूत बनाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे आर्मी में महार रेजिमेंट की स्थापना कर भर्ती की गई।
दरअसल ब्रिटिश सेना में भर्ती होना गरीब महारों की इच्छा नहीं मजबूरी थी। सवर्ण हिंदू इन्हें नीच समझकर दुत्कारते थे और पेशवाओं की सेना में भर्ती नहीं करते थे इनके पास परिवार के पालन पोषण तक के लिए कोई व्यवसाय नहीं था. इसलिए अपनी पारिवारिक स्तथि को देखते हुए महार ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए, जहां कोई जात-पांत नहीं थी। शुरू में ब्रिटिश सरकार की सेना में एक भारतीय फौजी सूबेदार मेजर पद तक पहुंच सकता था। इसी कारण कई महार फौजी सूबेदार व मेजर पद तक पहुंचे भी थे।
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कैसे अंग्रेजों ने अछूतों में शिक्षा की किरण पहुंचाई?
भीमराव के दादा मालोजी सकपाल सेना में हवलदार ओहदे से रिटायर हुए थे। मालोजीराव की चार संताने हुई जिनमें रामजी चौथी संतान थे। रामजी सकपाल भी सेना में भर्ती हो गए। उस जमाने में जवानों की फौजी छावनी में सरकार द्वारा ईस्ट इंडिया के निर्देशानुसार स्कूल खोले गए थे। जहां जवानों के बच्चों के लिए दिन में तथा बड़ों के लिए रात की स्कूल में पढ़ाई कराई जाती थी। ऐसी स्कूल में टीचर बनने के लिए पुणे में एक पंतोजी नॉर्मल स्कूल था वहां से रामजी सकपाल ने डिप्लोमा किया और बाद में यहां टीचर बन गए। ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्मी में लड़के-लड़कियों के लिए प्राइमरी एजुकेशन फ्री थी। सभी को पढ़ाई करना जरूरी होगा, इस नियम से उन महार परिवारों को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिल गया जिन्हे सवर्णो द्वारा धुत्कारा जाता था। जिनके लिए समाज में जात-पांत, छुआछूत व हिन्दू धर्म के बंधनों के कारण स्कूलों के दरवाजे बंद थे। इस किरण की वजह से महार समाज के लोग भी शिक्षित होने लगे। जिनमें से एक थे हमारे संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर।
कहा जा सकता है कि यदि अंग्रेजों ने जात-पांत को नकार कर अछूतों के घर-परिवारों में शिक्षा की यह किरण नहीं पहुंचाई होती तो स्वयं बाबासाहेब का भी यह विराट विश्व स्वरूप नहीं हो पाता और आज दलित, उपेक्षित व शोषित वर्ग पढ़-लिखकर इस खुशहाल हालत में नहीं होता ।
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लेकिन सवर्णों ने महारों की यह खुशी ज्यादा दिन टिकने नहीं दी। अछूतों को शिक्षित और हसंता खेलता देख सवर्णो को मिर्ची लगने लगी. उन्हे यह हजम ही नहीं हुआ कि अछूत फौजी अफसरों को सेल्यूट क्यों दें? उन्होंने अंग्रेजों को महारों के खिलाफ भड़काया, आखिर सन् 1892 में अछूत जातियों की सेना में भर्ती पर रोक लगा दी। सन् 1898 में गटेकर कमीशन के फैसले के बाद महार अछूतों को सेना से बाहर कर दिया और जाति के आधार पर राजपूत, मराठा, सिख, गोरखा आदि रेजिमेंट की स्थापना की गई।
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