जननायक कर्पूरी ठाकुर की जयंती पर जोहार। जननायक की यह उपाधि उन्हें जनता ने दी थी न कि किसी ने आपको गुरुदेव कह दिया और बदले में आपने महात्मा नाम का गुलदस्ता सौंप दिया।
कर्पूरी जी की सरपरस्ती ही थी जिसने जगदेव बाबू जैसे धाकड़ों का मनोबल बढ़ाया। कर्पूरी बाबू ने मुंगेरी लाल कमीशन की जिस रिपोर्ट को अपने मुख्यमंत्री रहते हुए लागू किया उसका थोड़ा ही संशोधित रूप बाद में मंडल कमीशन की रिपोर्ट में दिखा पर इस मुल्क़ का दुर्भाग्य है कि वह मंडल आयोग की रिपोर्ट अभी तक लागू नहीं की गयी।
इस रिपोर्ट का मज़ाक बनाने के लिये ही ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ जैसे घृणित चुटकुले की शुरुआत इस देश के सबसे सभ्य समाज ने ईजाद किया। कभी वक़्त निकालकर देखियेगा उस क्रांतिकारी दस्तावेज को।
आज जब हमें कर्पूरी और उनकी विरासत को जानने-समझने-सीखने और आत्मसात करने की सबसे ज्यादा ज़रूरत है तो इसी समय में हम उन्हें भुलाए बैठे हैं। एक तो कांग्रेसी और वामपंथी अकादमिक और राजनीतिक गिरोहों ने इस जननायक को सामान्य जन की चर्चा में आने नहीं दिया बाकी का काम बिहार में लालू-नीतीश जैसे राजनीतिक महंतों ने पूरा कर दिया।
एक बार प्रधानमंत्री रहते हुए चौधरी चरण सिंह जननायक के घर गए। हुआ ये कि घर की चौखट छोटी थी और चौधरी जी को सिर में चोट लग गई। चरण सिंह ने कहा, “कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ।” कर्पूरी ठाकुर जी ने कहा कि, “जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?”
वह समय बहुत पहले का नहीं है जबकि बिहार में कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री रहते हुए ही सार्वजनिक रूप से इस तरह के नारे लगाये जाते थे।
“कर्पूरी ठाकुर होश में आओ , छूरा ले कर बाल बनाओ।”
“कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तुरा।”
“ये आरक्षण कहाँ से आई , करपुरिया की माई बियाई।”
“MA-BA पास करेगें, करपुरिया को बांस करेगें।”
“दिल्ली से चमरा भेजा सन्देश, कर्पूरी बार बनावे, भैस चरावे रामनरेश।”
इतिहास, समाज विज्ञान और साहित्य, राजनीति वालों को याद होगा कि ये नारे और ऐसे विचार किन संभ्रात समुदायों के लौंडे-लफाड़ी लगाते थे। रोज-ब-रोज इस हाशिये के समाज, उस हाशिये के समाज का समाज विज्ञान लिखने वाले अपनी विद्वता का घटाटोप फैलाये हुए विद्वत मंडली ऐसे विषाक्त समुदायों और उनके लंपट काबिलों की शिनाख्त करके उनपर समाज विज्ञान काहे नहीं रचते भला !
एक बात जेहन में उतार लीजिये कि इस मुल्क़ में किसान, पशुपालक, दस्तकार, मछुआरा, दलित और आदिवासी समाजों का (भारत के 90 फीसदी लोगों के समुदाय) के हितों के लिये अगर कोई एक्शन योजना बनती है तो उसको अपनी सफ़लता के कर्पूरी बाबू के दर पर अरदास करने आना ही पड़ेगा।
आज़ाद भारत का कोई भी इतिहास कर्पूरी ठाकुर जैसे जननायकों के बिना कभी नहीं लिखा जा सकेगा। और न ही भारत का कोई सर्जनात्मक समाज विज्ञान इनके रास्तों पर नज़र टिकाये बिना रचा जा सकेगा। दिल्ली जैसी सड़ी हुई आवोहवा वाली राजधानी में बुद्धिजीवी, सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री, न्याय की मूर्तियां बतोलेबाजी चाहे जितना कर लें।
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