जयंती विशेष- आखिर क्यों देश ने बिरसा मुंडा की शहादत को भुला दिया ?

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बिरसा मुंडा को सिर्फ आदिवासी समाज का महानायक कहना बेमानी है क्योंकि बिरसा मुंडा और उनके विचारों ने न केवल आदिवासी समाज की दिशा और दशा बदली बल्कि मात्र 25 वर्ष की उम्र में उन्होंने देश के लिए अग्रेंजो से लड़ते हुए अपने प्राण त्याग दिए। लेकिन ये विडंबना ही है की आज देश ने बिरसा मुंडा को भुला दिया है।

हालाँकि आदिवासी समाज उन्हें भगवान मानता है और उनकी पूजा करता है लेकिन क्या बिरसा मुंडा सिर्फ एक वर्ग के ही है ?

आखिर क्यों देश ने और खासतौर पर देश के एलिट वर्ग ने बिरसा मुंडा की शहादत को भुला दिया ?

अंग्रेजों से देश को आज़ादी दिलाने वाले कई महापुरुष रहे। जिन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा थे जिन्हे बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ के आदिवासी लोग आज भी भगवान की तरह पूजते हैं। जिन्हे देखकर अंग्रेज सत्ता थर्राती थी। जिनकी ताकत का लोहा पुरी अंग्रेज़ी हुकूमत मानती थीं। ऐसे ही महान क्रांतिकारी महापुरुष बिरसा मुंडा की आज जयंती है। वर्तमान भारत में बसे आदिवासी समुदाय बिरसा को धरती आबा और भगवान के रुप में मानकर इनकी मूर्ति पूजा करते हैं। अपने समुदाय के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश शासन को भी अपनी ताकत का लोहा मनवा दिया था।

मुंडा जनजाति से ताल्लुक रखने वाले बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 में झारखंड के रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था।

19 वी शताब्दी के महान क्रान्तिकारी बिरसा मुंडा ने अपनें देश और आदिवासी समुदाय के हित में अपना बलिदान दिया था जिसकी याद में संपूर्ण देश बिरसा मुंडा जयंती मनाता है। 10 नवंबर 2021 में भारत सरकार ने 15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की है।

बिरसा मुंडा ने हिन्दू और ईसाई धर्म का बारीकी से अध्ययन किया और यह जाना की आदिवासी समाज मिशनरियों से तो भ्रमित हो ही रहा है साथ ही हिन्दू धर्म की अंधविश्वासी परम्पराओं की आस्था में भी भटका हुआ है। उन्होंने यह अनुभव किया की सामाजिक कुरूतियो ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है। धर्म के नाम पर कभी आदिवासी, मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते है तो कभी ढकोसलो को ही ईश्वर मान लेते है।

बिरसा मुंडा ने आदिवसियों को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए तीन स्तरों  सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक पर संगठित करना शुरू किया – ये तीनों स्तर थे…

पहला – आदिवासी समाज अन्धविश्वास और ढकोसलो के चंगुल से छूटकर पाखंड से बहार आये।

दूसरा – आदिवासी समाज को जमींदार और जागीरदारों के आर्थिक शोषण से मुक्त कर उनका आर्थिक स्तर पर सुधर किया जा सके।

तीसरा – राजनितिक तौर पर आदिवासियों को संगठित किया जाये ताकि वे समाज और देश की आजादी के लिए लड़ सके।

 

भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। मुंडा लोगों के गिरे हुए जीवन स्तर से खिन्न बिरसा सदैव ही उनके उत्थान और गरिमापूर्ण जीवन के लिए चिन्तित रहा करता था। 1895 में बिरसा मुंडा ने घोषित कर दिया कि उसे भगवान ने धरती पर नेक कार्य करने के लिए भेजा है। ताकि वह अत्याचारियों के विरुद्ध संघर्ष कर मुंडाओं को उनके जंगल-जमीन वापस कराए तथा एक बार छोटा नागपुर के सभी परगनों पर मुंडा राज कायम करे। बिरसा मुंडा के इस आह्वान पर समूचे इलाके के आदिवासी उन्हे भगवान मानकर देखने के लिए आने लगे। बिरसा आदिवासी गांवों में घुम-घूम कर धार्मिक-राजनैतिक प्रवचन देते हुए मुण्डाओं का राजनैतिक सैनिक संगठन खड़ा करने में सफल हुए। बिरसा मुण्डा ने ब्रिटिश नौकरशाही की प्रवृत्ति और औचक्क आक्रमण का करारा जवाब देने के लिए एक आन्दोलन की नींव डाली।

जमींदारों और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ बिरसा का आंदोलन-

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गई जमींदार प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ जंगल जमीन की लड़ाई छेड़ दी। उन्होंने सूदखोर महाजनों के खिलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। यह एक विद्रोह ही नहीं था बल्कि अस्मिता और संस्कृति को बचाने की लड़ाई भी थी। बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ़ हथियार इसलिए उठाया क्योंकि आदिवासी दोनों तरफ़ से पिस गए थे। एक तरफ़ अभाव व गरीबी थी तो दूसरी तरफ इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 जिसके कारण जंगल के दावेदार ही जंगल से बेदखल किए जा रहे थे। बिरसा ने इसके लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तौर पर विरोध शुरु किया।

1 अक्टूबर 1894 को बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन किया। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके 1895 में हजारीबाग केंद्रीय कारागार में दो साल के लिए डाल दिया। कम उम्र में ही बिरसा मुंडा की अंग्रेजों के खिलाफ़ जंग छिड़ गई थी। लेकिन एक लंबी लड़ाई 1897 से 1900 के बीच लड़ी गई। जनवरी 1900 में डोंबारी पहाड़ पर जब बिरसा मुंडा अपने अनुयायियों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की रणनीति बना रहे थे, तभी अंग्रेजों ने वहां मौजूद लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। इसमें सैकड़ों आदिवासी महिला, पुरुष और बच्चों ने अपनी जान गंवा दी थी।

अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। 9 जून 1900 को 25 वर्ष की आयु में रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई, जहां उन्हें कैद किया गया था।

कौन है मुंडा जनजाति: 

मुंडा एक जनजाति समूह है जो छोटा नागपुर पठार के क्षेत्रों में निवास करते है,झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र के अलावा ये लोग बिहार,उड़ीसा,पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में भी निवास करते है। इनका प्रमुख भोजन धान,मक्का,कंदमूल और जंगल के फल फूल है। मुंडा जनजाति के पुरुष साधारण धोती का प्रयोग करते है जिसे तोलांग कहा जाता है जबकि महिलाये विशेष प्रकार की साडी पहनती है जिसे हथिया कहते है। जब इन जनजाति क्षेत्रों में बाहरी लोगो ने प्रवेश कर इनका आर्थिक,सामाजिक,राजनितिक व् सांस्कृतिक शोषण करना शुरू किया तब बिरसा मुंडा के नेतृत्व में इन्होने आंदोलन करना शुरू किया जिसे ‘उलगुलान’ कहा गया।

आज भी आदिवासी अपने आंदोलनों को उलगुलान कहकर ही आंदोलित होते है।

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