दिल्ली चुनाव में जाट आरक्षण का दांव: दलित हितों की अनदेखी और राजनीति का छलावा

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दिल्ली चुनाव में जाट आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक चर्चा का केंद्र बन गया है। अरविंद केजरीवाल ने जाटों को ओबीसी आरक्षण में शामिल करने की मांग उठाई है, लेकिन बीजेपी इसे चुनावी चाल बता रही है। जाट आरक्षण का यह दांव चुनावी लाभ के लिए उठाया गया कदम माना जा रहा है, जबकि दलितों और पिछड़े वर्गों के वास्तविक मुद्दे हाशिए पर हैं। बीजेपी और आप दोनों ही इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन दलितों के उत्थान के लिए ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। इससे साफ है कि राजनीतिक दल आरक्षण के मुद्दे का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए कर रहे हैं। 

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 से पहले अरविंद केजरीवाल ने जाट आरक्षण का मुद्दा उठाकर राजनीति का एक नया खेल शुरू कर दिया है। यह कदम दिल्ली की जाट बहुल सीटों को साधने और समाज में जातीय ध्रुवीकरण का फायदा उठाने का प्रयास है। हालांकि, इस मुद्दे ने दलित समुदाय और अन्य पिछड़े वर्गों के हितों की अनदेखी के आरोपों को भी हवा दी है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर जाट समाज को आरक्षण देने के वादे से मुकरने का आरोप लगाया। लेकिन सवाल यह उठता है कि आम आदमी पार्टी (आप) ने पिछले दस वर्षों में इस पर कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया।

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जाट आरक्षण बनाम दलित अधिकार:

2014 में कांग्रेस सरकार ने जाटों को ओबीसी सूची में शामिल करने का निर्णय लिया, लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे यह कहते हुए रद्द कर दिया कि जाट समुदाय का आर्थिक और सामाजिक प्रभाव ओबीसी वर्ग की परिभाषा में फिट नहीं बैठता। यह फैसला पिछड़े वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए लिया गया था, लेकिन आज वही मुद्दा चुनावी राजनीति का एक हथियार बन गया है। जाट आरक्षण का यह दांव दलित और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित संसाधनों और अवसरों में कटौती का खतरा पैदा करता है।

बीजेपी और आप की राजनीति: दलित हित हाशिए पर

बीजेपी और आप दोनों ने जाट आरक्षण के मुद्दे को भावनात्मक रूप देकर वोटबैंक साधने की कोशिश की है। बीजेपी, जो “सबका साथ, सबका विकास” का नारा देती है, ने जाट आरक्षण के मुद्दे पर अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया। प्रवेश वर्मा और कैलाश गहलोत जैसे जाट नेताओं को सामने लाकर बीजेपी ने जाट वोटरों को लुभाने की पूरी कोशिश की है। वहीं, आप पार्टी ने दिल्ली के 70 उम्मीदवारों में आठ जाट उम्मीदवार शामिल कर अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है। लेकिन दोनों ही दलों ने दलितों की शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार से जुड़े वास्तविक मुद्दों को दरकिनार कर दिया है।

आप पार्टी का दोहरा रवैया

आप पार्टी ने जाट आरक्षण के मुद्दे को चुनावी लाभ के लिए उठाया है, जबकि केजरीवाल सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की। न तो विधानसभा में इस पर कोई प्रस्ताव पास हुआ, न ही केंद्र को कोई सिफारिश भेजी गई। यह कदम केवल चुनावी समय पर वोट बैंक को भुनाने की रणनीति का हिस्सा लगता है। इसके अलावा, आप सरकार ने दलित बहुल क्षेत्रों में विकास और रोजगार के मुद्दों पर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। मुफ्त बिजली, पानी, और शिक्षा के वादे के जरिए दलितों को संतुष्ट करने की कोशिश की गई, लेकिन यह वादे भी जमीनी हकीकत से दूर हैं।

दिल्ली की राजनीति में जाट और दलितों का प्रभाव

दिल्ली में लगभग 10 सीटें जाट बहुल हैं, जिनमें नजफगढ़, बिजवासन, और मटियाला प्रमुख हैं। 2015 और 2020 के चुनावों में इन सीटों पर आप पार्टी ने कब्जा जमाया था। हालांकि, दलित बहुल सीटों पर आप का प्रदर्शन कमजोर रहा। यह दर्शाता है कि दलितों के मुद्दों को पार्टी ने कभी प्राथमिकता नहीं दी। बीजेपी भी दलित वोटरों को लुभाने में विफल रही है, और कांग्रेस का दलित आधार पहले ही कमजोर हो चुका है।

जाट आरक्षण और दलित अधिकार: टकराव का नया अध्याय

जाट आरक्षण की मांग का सीधा असर दलित और अन्य पिछड़े वर्गों पर पड़ेगा। आरक्षण का उद्देश्य वंचित और कमजोर वर्गों को मुख्यधारा में लाना है, न कि पहले से प्रभावशाली वर्गों को और मजबूत करना। जाट आरक्षण की मांग केवल चुनावी मुद्दा बनकर रह गई है, जिसमें दलितों और पिछड़ों के अधिकारों को हाशिए पर रखा गया है।

चुनावी राजनीति का निहितार्थ

अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से ठीक पहले जाट आरक्षण का मुद्दा उठाकर अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है। लेकिन सवाल यह है कि इस रणनीति का दलित समुदाय पर क्या असर होगा। वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि यह मुद्दा केवल चुनावी माहौल को गरमाने के लिए उठाया गया है। पिछले दस वर्षों में केजरीवाल सरकार ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया, तो अब अचानक इसे प्राथमिकता देने का क्या मतलब?

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दलित अधिकारों की रक्षा बनाम जातीय राजनीति

जाट आरक्षण का मुद्दा दिल्ली चुनाव में एक बड़ा राजनीतिक दांव बनकर उभरा है। लेकिन इस दांव ने दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के अधिकारों को हाशिए पर धकेल दिया है। राजनीतिक दल केवल अपने चुनावी फायदे के लिए जातीय भावनाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए ठोस नीतियां बनाने की कोई पहल नहीं कर रहे। अब समय है कि दलित और पिछड़ा वर्ग अपनी राजनीतिक ताकत को समझे और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होकर खड़ा हो।

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