वर्ष 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक कर्पूरी ठाकुर विधायक से लेकर सांसद, उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने, राजनीति की इतनी बुलन्दियाँ छूने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर का न तो कोई अपना बंगला-गाड़ी, टेलीफोन रहा और न ही बैंक बैलेंस, रहा तो बस पितौझिया का अपना खपरैल का पुश्तैनी मकान…
कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती पर उन्हें याद कर रहे हैं वरिष्ठ दलित चिंतक एचएल दुसाध
Karpoori Thakur On 100th Birth Anniversary : 24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में अमिट छाप छोड़ी .उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोडो’ आन्दोलन से हुई थी.इस आन्दोलन को कुचलने के लिए जब अंग्रेजों ने दमनात्मक कार्यवाई की तब युवा कर्पूरी गोरिल्ला संघर्ष की नीति का अवलंबन किये.इस क्रम में उन्हें अपनी उच्च शिक्षा बी.ए.तृतीय वर्ष में ही समाप्त कर देनी पड़ी.गोरिल्ला संघर्ष के दौरान उन्होंने नेपाल की सरहद से आन्दोलन चलाया.आन्दोलन जब शांत हुआ वे पितौझिया लौटकर शिक्षक की नौकरी पकड़ लिए.
उनके शिक्षण कार्य के दौरान ही जब जय प्रकाश नारायण हजारीबाग जेल से छूटने के बाद ‘आज़ाद दस्ता ‘गठित किये विप्लवी कर्पूरी उसके सदस्य बन गए.इस दस्ते जुड़कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ अभियान चलाने के जुर्म में उन्हें 23 अक्तूबर,1943 को गिरफ्तार कर जेल भेंज दिया गया.जेल में उन्होंने अपनी मांगे मनवाने के लिए भूख हड़ताल कर दी,जो 27 दिन चली .इससे जेल में बंद राजनीतिक बंदियों के बीच उन्होंने भारी सम्मान अर्जित कर लिया था.बाद में 13 माह बाद जब कर्पूरी ठाकुर जेल से रिहा हुए,कई लोगों ने उन्हें भविष्य का नेता होने की घोषणा कर दी.मार्च 1946 में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1947 तक वे इस पार्टी के जिला मंत्री रहे.इस दौरान उन्होंने यासनगर और विक्रम पट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकारत आन्दोलन चलाकर वंचितों में 60 बीघे जमीन वितरित करवा दिया.बाद में पार्टी में उनका प्रमोशन हो गया और वे 1948 से 1953 तक सोशलिस्ट पार्टी के प्रांतीय सचिव रहकर पार्टी की विचारधारा जन-जन तक पहुचाते रहे.
स्वाधीन भारत की राजनीति में सही मायने उन्होंने अपनी उपस्थिति 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में दर्ज कराया जब वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के प्रार्थी के रूप में चुनाव जीतने सफल रहे.उसके बाद तो उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.1952 के बाद 1957 और 1962 में भी चुनाव जीतने में सफल रहे .बाद में जब लोहिया ने ‘कांग्रेस हराओ,देश बचाओं ‘का नारा उछाला,कर्पूरी 1967 के लोकसभा चुनाव में न सिर्फ जीते बल्कि बिहार के महामाया सरकार में उपमुख्य मंत्री भी बने.फिर 1970 का मध्यावधि चुनाव जीतने बाद वह 22 दिसंबर,1970 को बिहार का मुख्यमंत्री बनने जैसा असंभव सा कारनामा अंजाम दे दिए.
उसके बाद 1972 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस सत्ता पर पुनः कब्ज़ा जमाने में सफल रही, किन्तु उस प्रतिकूल राजनीतिक हालात में कर्पूरी बिहार विधासभा में पहुचने में सफल रहे. उसके बाद आया 1974 का घटनाबहुल दौर जब लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने 18 मार्च,1974 को बिहार में छात्र आन्दोलन की शुरुआत की. उनके आह्वान पर जिस शख्स ने सबसे पहले विधानसभा की सदस्यता परित्याग कर उनके साथ चलने का मन बनाया वह और कोई नहीं,कर्पूरी ठाकुर थे.
जेपी का आन्दोलन बड़ी तेजी से विस्तारलाभ करते जा रहा था,जो देश में इमरजेंसी का कारण बना.इस दौरान 26 जून को अधिकांश नेता मीसा में गिरफ्तार कर लिए गए.इस स्थिति में गोरिल्ला संघर्ष के माहिर कर्पूरी फिर नेपाल चले गए और वहां के जंगलों में रहकर आन्दोलनकारी छात्रों और आन्दोलन समर्थक दलों के कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने लगे.जल्द ही नेपाल की पुलिस को कर्पूरी ठाकुर की भूमिगत गतिविधियों की जानकारी मिल गयी जिसकी भनक लगते ही वे 5 सितम्बर,1975 को चेन्नई के लिए कूच कर गए.इस नाजुक दौर में वे तरह –तरह का वेश बदलकर मुंबई, दिल्ली, गोरखपुर,लखनऊ, बनारस इत्यादि जगहों से जेपी आन्दोलन को बल प्रदान करते रहे.आखिरकार आपातकाल का दौर ख़त्म हुआ और जेपी आन्दोलन से जुड़े बहुतों की तरह कर्पूरी ठाकुर को योग्य पुरस्कार मिला.
आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें कई गैर-कांग्रेसी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने चुनावी सफलता के नए प्रतिमान स्थापित किये.जून 1977 में ही बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ जिसमें जनता पार्टी लोकसभा चुनाव की भांति ही विजयी रही. मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सत्येन्द्र बाबू और कर्पूरी ठाकुर के बीच थी,जिसमें कर्पूरी सफल रहे .मुख्यमंत्री बनने के बाद वे फुलपरास उपचुनाव में में विजयी होकर एकबार फिर विधायक बने.मुख्यमंत्री बनने के बाद यूँ तो उन्होंने कई बड़े काम किये, किन्तु जिस तरह उन्होंने 1978 में पिछड़ी जातियों और कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, वह सामाजिक न्याय के इतिहास में मील का पत्थर बनकर रह गया.उस जमाने में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू कर कितना साहस का काम किया इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं,जिन्होंने मंडल उत्तर काल के इतिहास को चाक्षुष किया है.
स्मरण रहे 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद जहां सदियों के परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न व विशेषाधिकारयुक्त तबके की काबिल संतानों ने आत्मदाह से लेकर राष्ट्र के संपदा दाह का अभियान छेड़ा,वहीँ वर्तमान में देश की सबसे बड़ी पार्टी की ओर से रामजन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया गया,जिसके फलस्वरूप असंख्य लोगों की प्राण हानि और राष्ट्र की कई हजार करोड़ की संपदा हानि हुई.बाद में जब 2006 में पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ,सवर्णों की काबिल संताने सरफरोशी की तमन्ना लिए मंडल-2 के खिलाफ फिर सडकों पर उतर आयीं.उसके बाद 2013 में जब उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग में त्रि-स्तरीय आरक्षण लागू हुआ,जिसे यह लेखक मंडल -3 कहता है,सवर्णों का शिक्षित युवा वर्ग फिर सडकों पर उतर आया.
याद रहे 1990 के बाद दलित पिछड़ों में अधिकार चेतना का लम्बवत विकास हुआ और 2013 आते –आते वे नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग–व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि में आरक्षण का सपना देखने लगे थे.किन्तु मंडल उत्तरकाल में अधिकार चेतना से लैस बहुजनों के किसी भी प्रकार के आरक्षण के खिलाफ उग्र विरोध करने में सवर्णों को कभी दिक्कत नहीं हुई.लेकिन 1978 में स्थिति बेहद प्रतिकूल थी.तब न तो वंचित जातियों में अधिकार चेतना का पर्याप्त विकास हुआ था न ही सामाजिक न्याय की स्पष्ट अवधारणा ही सामने आई थी.वैसी प्रतिकूल स्थिति में कर्पूरी ठाकुर ने 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया.इस दुस्साहस की उन्हें कीमत भी अदा करनी पड़ी.उनके निर्णय के विरुद्ध सवर्ण सडकों पर उतरकर,’आरक्षण कहाँ से आई-कर्पूरी की मां बियाई’,’कर्पूरी कर्पूरा –छोड़ गद्दी पकड़ छुरा’ जैसी भद्दी-भद्दी गलियां देने लगे.हमेशा की तरह मीडिया भी आरक्षण विरोधी माहौल बनने में जुट गयी.फलस्वरूप 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा.ऐसा नहीं कि कर्पूरी ठाकुर इस अंजाम से नावाकिफ थे.नहीं अंजाम से भलीभांति अवगत होते हुए भी उन्होंने वंचितों के हित में उस ज़माने में आरक्षण लागू करने की जोखिम लिया.
कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया,बल्कि इमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की.काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा .बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घडी तक वह विधायक,एक बार सांसद, एक बार उपमुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने.राजनीति की इतनी बुलन्दियाँ छूने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर का न तो कोई अपना बंगला-गाड़ी –टेलीफोन रहा और न ही बैंक बैलेंस.रहा तो बस पितौझिया (वर्तमान में कर्पूरी ग्राम) का अपना खपरैल का पुश्तैनी मकान.
कर्पूरी ठाकुर का बेदाग़ जीवन आज के सामाजिक न्याय के नायक/नायिकाओं के लिए प्रेरणा का एक विराट विषय होना चाहिए.फुले,शाहूजी,पेरियार,बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर,कांशीराम,जगदेव प्रसाद,कर्पूरी ठाकुर जैसों के प्रयास से आज बहुजन समाज में इतनी राजनीतिक चेतना आ गयी है कि उसका उपयोग कर सामाजिक न्याय के नायक/नायिका बड़ी आसानी से केंद्र की सत्ता दखल कर सामाजिक बदलाव का सपना पूरा कर सकते हैं.किन्तु वंचित जातियों के विपुल समर्थन से पुष्ट सामाजिक न्याय के नायक/नायिका घपला-घोटालों में फंसकर अपना तेज खोकर खुद करुणा के पत्र बन चुके हैं.इससे भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष दम तोड़ता नजर आ रहा है.काश! बहुजन समाज के नेता सामाजिक न्याय की राजनीति के पुरोधा व इमानदारी के एवरेस्ट कर्पूरी ठाकुर का अनुसरण किये होते.
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