पर्दाफाश: दलित महिला की जमीन पर बनाया गया राजकीय महिला महाविद्यालय, सरकार और प्रशासन की मिलीभगत से छीना गया हक!

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Rajsthan: राजस्थान के लाडनूं में एक दलित महिला, सीता देवी हरिजन, की संघर्षमय कहानी आज न केवल सामाजिक न्याय के मुद्दे को उजागर करती है, बल्कि यह भी बताती है कि कैसे सरकारी मशीनरी और प्रशासनिक तंत्र दलितों के संवैधानिक अधिकारों को कुचलने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। सीता देवी की जमीन पर बनाए गए राजकीय कन्या महाविद्यालय का विवाद यह साबित करता है कि कैसे ताकतवर तबका अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए गरीबों और कमजोर वर्गों को न्याय से वंचित करता है।

विवाद की जड़: किसकी जमीन, किसका अधिकार?

लाडनूं के खसरा नंबर 1548, 1587 और 1587/1 की कुल 27 बीघा 16 बिस्वा भूमि, जो बारानी अव्वल कृषि भूमि के रूप में जानी जाती है, मूलतः सीता देवी हरिजन की संपत्ति है। इस भूमि पर खेती करते हुए उन्होंने अपना जीवन यापन किया। लेकिन एक षड्यंत्र के तहत इस जमीन को आनंदपाल सिंह का “टॉर्चर हाउस” और “बंकर” घोषित कर दिया गया। प्रशासन ने इसे जब्त कर सीता देवी और उनके परिवार को डरा-धमकाकर उनसे सादे कागजों पर जबरन हस्ताक्षर करवा लिए। यह आरोप लगाया गया कि आनंदपाल ने सीता देवी को डरा-धमकाकर जमीन अपने नाम करवा ली थी, जबकि वास्तविकता यह है कि यह जमीन कभी आनंदपाल की नहीं थी।

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महाविद्यालय निर्माण: दलित अधिकारों पर कुठाराघात

राजकीय कन्या महाविद्यालय का संचालन पहले जौहरी राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय भवन से किया जा रहा था। लेकिन 14 दिसंबर 2024 को इसे एनएच-58 पर स्थित विवादित जमीन पर स्थानांतरित कर दिया गया। यह वही जमीन है, जिसे सीता देवी अपने हक की लड़ाई में राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दे चुकी हैं। मामला अदालत में लंबित रहने के बावजूद, प्रशासन ने इस जमीन पर निर्माण कार्य शुरू कर दिया और अब वहां 251 छात्राओं के साथ महाविद्यालय संचालित हो रहा है। यह कदम न केवल दलित महिला के अधिकारों का हनन है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप भी है।

“आनंदपाल का बंकर” बताने की साजिश: सच्चाई क्या है?

इस जमीन को “आनंदपाल का बंकर” कहकर प्रचारित किया गया। आरोप लगाया गया कि आनंदपाल इस जमीन का इस्तेमाल अपने अपराधों के लिए करता था। लेकिन जांच में यह तथ्य सामने आया कि आनंदपाल का इस जमीन से कोई संबंध नहीं था। उसका पुश्तैनी मकान सांवराद गांव में है, और लाडनूं में भी उसका अलग मकान है। इस जमीन पर खड़ी फसलें और सीता देवी की वर्षों की मेहनत इस बात की गवाही देती हैं कि यह भूमि केवल एक किसान परिवार की जीविका का साधन थी। तथाकथित “यातना गृह” का आरोप केवल इस जमीन को विवादित बनाने और सीता देवी के हक को खत्म करने का एक प्रयास था।

दलित महिला के संघर्ष की कहानी: हर दरवाजे पर दस्तक

सीता देवी ने अपनी जमीन वापस पाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किया। उन्होंने तहसीलदार से लेकर संभागीय आयुक्त तक गुहार लगाई, लेकिन हर जगह उनकी बात अनसुनी कर दी गई। जब कोई रास्ता नहीं बचा, तो उन्होंने राजस्थान उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई के लिए 19 दिसंबर 2024 की तारीख तय की है। लेकिन इससे पहले ही प्रशासन ने महाविद्यालय का संचालन शुरू कर दिया।

सरकार की भूमिका: दलित विरोधी मानसिकता उजागर

राजस्थान सरकार, जो दलितों के उत्थान और अधिकारों की बात करती है, इस मामले में पूरी तरह दलित विरोधी रुख अपनाए हुए नजर आ रही है। कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि दलितों की कृषि भूमि को सवर्ण या अन्य वर्ग नहीं खरीद सकते। लेकिन इस मामले में कानून को दरकिनार कर प्रशासन ने जमीन पर कब्जा किया और इसे सरकारी संस्थान में तब्दील कर दिया।

न्यायिक प्रक्रिया और संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन

यह मामला केवल एक दलित महिला के अधिकारों का हनन नहीं है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन) और अनुच्छेद 46 (अनुसूचित जातियों की सुरक्षा) का सीधा उल्लंघन है। अदालत में मामला विचाराधीन रहते हुए जमीन की स्थिति बदलना न्यायिक प्रक्रिया का मजाक उड़ाने के समान है।

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कब मिलेगा दलितों को न्याय?

सीता देवी हरिजन का यह संघर्ष केवल उनकी जमीन तक सीमित नहीं है। यह सवाल उठाता है कि क्या भारत के दलित समुदाय को उनके संवैधानिक अधिकार और न्याय मिल पाएगा? क्या सरकार और प्रशासन उनकी आवाज सुनने को तैयार हैं? यह मामला सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई का प्रतीक बन चुका है। अदालत को इस मामले में त्वरित और निष्पक्ष निर्णय लेते हुए सीता देवी को उनका हक दिलाना चाहिए। इसके अलावा, सरकार और प्रशासन को अपनी दलित विरोधी मानसिकता को छोड़कर वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए कदम उठाने चाहिए।

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