देश में जातिगत असमानता की स्थिति चौंकाने वाली है, जहां 89% संपत्ति सामान्य वर्ग के पास है, जबकि दलित समुदाय, जो 19.59% आबादी का हिस्सा है, केवल 2.6% संपत्ति पर अधिकार रखता है। यह सामाजिक-आर्थिक असमानता न केवल संपत्ति, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसरों तक पहुंच में भी दिखाई देती है, जिससे दलित और आदिवासी समुदाय आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं।
भारत में जातिगत आर्थिक असमानता का यह तथ्य चौंकाने वाला है कि देश की कुल संपत्ति का 85% से अधिक हिस्सा ऊंची जातियों के पास है, जबकि अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय, जो देश की 19.59% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है, के पास मात्र 2.6% संपत्ति है। अनुसूचित जनजाति (एसटी) समुदाय की स्थिति और भी खराब है। उनकी 8.63% आबादी के बावजूद, संपत्ति का बड़ा हिस्सा उनके हाथों से दूर है। यह असमानता न केवल सामाजिक भेदभाव का नतीजा है, बल्कि एक ऐसी संरचना का परिणाम है जो वर्षों से दलित और आदिवासी समुदायों को आर्थिक और सामाजिक विकास से वंचित करती आई है।
जातिगत संपत्ति वितरण के आंकड़े
एनएसएसओ और अन्य शोध संस्थानों के सर्वे बताते हैं कि भारत में ऊंची जातियों के हिंदुओं, जो देश की आबादी का केवल 22.3% हैं, के पास देश की 41% संपत्ति है। दूसरी ओर, ओबीसी समुदाय, जो देश की 40.94% आबादी है, के पास केवल 9% संपत्ति है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदाय, जो वर्षों से हाशिये पर हैं, को संसाधनों और संपत्ति तक पहुंचने का समुचित अवसर नहीं मिला है। पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि सामाजिक असमानता गहरी जड़ें जमा चुकी है।
दलितों और आदिवासियों की आर्थिक हाशिये पर स्थिति
दलित समुदाय के पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी है। ज़मीन और संपत्ति में हिस्सेदारी न होने के कारण उनकी आर्थिक तरक्की रुकी हुई है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया ‘ रिपोर्ट के अनुसार, दलित और आदिवासी समुदायों के लोग अन्य वर्गों के मुकाबले बेहद कम प्रतिष्ठानों के मालिक हैं। उन्हें आर्थिक अवसर, बैंक ऋण, और व्यापारिक पूंजी तक सीमित पहुंच दी जाती है। रिपोर्ट के अनुसार, दलित समुदाय के लिए भूमि, शिक्षा और रोजगार में भेदभाव एक सामान्य समस्या है।
अरबपतियों की जातिगत पहचान
हाल के वर्षों में जो नए अरबपति बने हैं, उनमें बड़ी संख्या ऊंची जातियों से है। सामाजिक नेटवर्क, शिक्षा और संसाधनों पर बेहतर पकड़ ने इन वर्गों को आर्थिक रूप से आगे बढ़ने में मदद की है। वहीं, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को न केवल संपत्ति अर्जित करने में मुश्किल होती है, बल्कि उनकी पीढ़ियों के बीच संपत्ति और संसाधनों का हस्तांतरण भी बाधित होता है।
राहुल गांधी का मुद्दा: हिस्सेदारी और भागीदारी
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस गंभीर समस्या को अपनी चुनावी रैलियों में उठाया। उन्होंने बार-बार जातिगत जनगणना और आर्थिक सर्वे की मांग की, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि किस वर्ग के पास कितना हिस्सा है। राहुल गांधी ने कहा कि 90% आबादी एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों की है, लेकिन उन्हें उनके हिस्से के अवसर और संसाधन नहीं दिए गए हैं। उन्होंने इंडिया गठबंधन की सरकार बनने पर संपत्ति और हिस्सेदारी का निष्पक्ष सर्वेक्षण कराने का वादा किया।
ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट: अमीरी और गरीबी का अंतर
ऑक्सफैम इंटरनेशनल की रिपोर्ट ने इस असमानता को और स्पष्ट किया। इसके अनुसार, भारत के सबसे अमीर 1% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40% हिस्सा है, जबकि आधी आबादी के पास केवल 3% संपत्ति है। रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि अगर भारत के शीर्ष दस अमीरों पर मात्र 5% कर लगाया जाए, तो इतनी राशि जुटाई जा सकती है कि सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जा सके।
दलितों के लिए क्या हो सकता है समाधान?
जातिगत असमानता को कम करने के लिए नीतिगत सुधार जरूरी हैं। सबसे पहले, भूमि पुनर्वितरण की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है, जिससे दलितों को जमीनी स्तर पर संपत्ति का अधिकार मिल सके। शिक्षा और स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके अलावा, निजी और सरकारी क्षेत्रों में उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़ाए जाने चाहिए। सामाजिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए कठोर कानून और जागरूकता अभियान शुरू किए जाने चाहिए।
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आगे की राह
अगर भारत को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से समतामूलक बनाना है, तो जातिगत असमानता को समाप्त करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को बराबरी का दर्जा देने के लिए न केवल संवैधानिक उपायों की आवश्यकता है, बल्कि समाज में सोच और मानसिकता बदलने की भी जरूरत है। जब तक संसाधनों और संपत्ति का उचित वितरण नहीं होता, तब तक दलित समुदाय गरीबी के चक्र से बाहर नहीं निकल पाएगा। यह समय है कि समाज और सरकार दोनों इस दिशा में ठोस कदम उठाएं।
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