“संघर्षों से जूझतीं रहीं लेकिन पढ़ना और पढ़ाना नहीं छोड़ा” जानिए भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले के बारे में

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“संघर्षों से जूझती रहीं, लेकिन पढ़ना और पढ़ाना नहीं छोड़ा”—यह पंक्ति भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के संघर्षपूर्ण जीवन को बखूबी दर्शाती है। सावित्रीबाई फुले न केवल एक शिक्षिका थीं, बल्कि समाज सुधारक और नारी अधिकारों की प्रबल समर्थक भी थीं।

 सावित्रीबाई फुले भारतीय समाज में शिक्षा और सामाजिक सुधार की एक प्रतीक रही हैं। उनका योगदान न केवल शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए भी अद्वितीय था। आज शिक्षक दिवस के अवसर पर, सावित्रीबाई फुले की शिक्षा के प्रति समर्पण और समाज सुधार की अदम्य भावना को याद करना हमारे लिए गर्व की बात है। उनका जीवन संघर्ष, साहस और समाज को बदलने के लिए एक प्रेरणादायक संघर्ष की कहानी भी है।

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महिलाओं और दलितों की शिक्षा के लिए लड़ी लड़ाई 

सावित्रीबाई फुले का योगदान भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण क्रांति का प्रतीक है। उन्होंने न केवल महिलाओं और दलितों की शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाई, बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ भी मोर्चा खोला। 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले ने केवल 17 वर्ष की उम्र में अध्यापिका और प्रधानाचार्या बनकर इतिहास रच दिया। उनके इस संघर्ष और सफलता में उनके पति ज्योतिबा फुले का भी बड़ा योगदान था, जिन्होंने उन्हें हर कदम पर समर्थन दिया।

दलितों और महिलाओं को दिलाया शिक्षा का हक़

जब समाज में दलितों और महिलाओं के लिए शिक्षा लगभग असंभव मानी जाती थी, सावित्रीबाई ने इस व्यवस्था को चुनौती दी। एक बार जब वह अंग्रेजी की किताब पढ़ने की कोशिश कर रही थीं, तो उनके पिता ने यह देखकर उन्हें डांट दिया और किताब को फेंक दिया। उनके पिता का मानना था कि शिक्षा केवल उच्च जाति के पुरुषों का अधिकार है, और दलितों व महिलाओं का पढ़ना पाप समझा जाता था। इस घटना ने सावित्रीबाई के अंदर शिक्षा की लौ को और प्रज्वलित कर दिया।

सावित्रीबाई फुले की संघर्ष भरी कहानी

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक दलित परिवार में हुआ था। उस समय भारतीय समाज में दलितों और महिलाओं के साथ बेहद भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था। इन दोनों श्रेणियों में आकर सावित्रीबाई ने न केवल जातिगत और लैंगिक असमानताओं का सामना किया, बल्कि उन पर विजय प्राप्त की। उनका विवाह 9 वर्ष की उम्र में ज्योतिबा फुले से हुआ, जो स्वयं एक महान समाज सुधारक और दलित अधिकारों के समर्थक थे।

शिक्षा और संघर्ष

सावित्रीबाई के पति ज्योतिबा फुले ने उन्हें शिक्षा दिलाने का संकल्प लिया, जो उस समय के समाज के लिए अभूतपूर्व था। जब उन्होंने शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की, तब उन्हें अपमान, विरोध और हिंसा का सामना करना पड़ा। समाज के लोग उनके खिलाफ थे, उनके ऊपर कीचड़ और गोबर फेंकते थे ताकि उन्हें पढ़ाई से रोका जा सके। बावजूद इसके, सावित्रीबाई ने हार नहीं मानी और अपनी शिक्षा जारी रखी।

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लड़कियों के लिए पहला स्कूल

1848 में सावित्रीबाई फुले ने पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की, जो भारत का पहला स्कूल था जो विशेष रूप से लड़कियों के लिए खोला गया था। यह एक बड़ा कदम था, खासकर दलित और महिलाओं के लिए शिक्षा के क्षेत्र में। समाज के उच्च वर्गों से इस पहल का जमकर विरोध हुआ, लेकिन सावित्रीबाई और ज्योतिबा फुले ने शिक्षा की मशाल को बुझने नहीं दिया। सावित्रीबाई ने कई अन्य महिलाओं को भी शिक्षिका बनने के लिए प्रशिक्षित किया और समाज के सबसे वंचित वर्गों के बच्चों को शिक्षा प्रदान की।

सामाजिक न्याय की लड़ाई

सावित्रीबाई फुले का योगदान केवल शिक्षा तक सीमित नहीं था। उन्होंने सामाजिक भेदभाव, जाति प्रथा और महिला अधिकारों के लिए भी सक्रिय रूप से लड़ाई लड़ी। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह, बाल विवाह के खिलाफ, और दलितों को समाज में समान अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया। सावित्रीबाई का जीवन इस बात का उदाहरण है कि किस तरह एक व्यक्ति, चाहे वह कितने भी कठिन हालात में हो, समाज में बदलाव ला सकता है।

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सावित्रीबाई फुले की विरासत

सावित्रीबाई फुले का जीवन और कार्य भारतीय समाज में शिक्षा और समानता की दिशा में एक क्रांति के रूप में देखा जाता है। उनके द्वारा स्थापित स्कूल और उनके समाज सुधार के कार्य आज भी लाखों महिलाओं और दलितों के लिए प्रेरणास्त्रोत बने हुए हैं। सावित्रीबाई फुले ने यह साबित किया कि शिक्षा न केवल आत्मनिर्भरता की कुंजी है, बल्कि समाज को बदलने का सबसे सशक्त माध्यम भी है।

छुआछूत, बाल-विवाह और सती प्रथा का भी किया विरोध

सावित्रीबाई फुले न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थीं, बल्कि समाज सुधारक भी थीं। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे छुआछूत, बाल-विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध का भी विरोध किया। उनके संघर्षों और प्रयासों के कारण ही समाज में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सके, खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए।

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