माता सावित्रीबाई फुले, भारत की पहली महिला शिक्षिका, ने 19वीं सदी में महिलाओं और दलितों के लिए शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 18 स्कूल खोले, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अपने जीवन में उन्होंने समाज के वंचित तबके को सशक्त बनाने और शिक्षा का महत्व स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। उनका त्याग, साहस, और योगदान आज भी प्रेरणा का स्रोत है.
एक सभ्य समाज के निर्माण में शिक्षा की अग्रणी भूमिका होती है, और इस भूमिका में नारी का योगदान अनमोल है। वह परिवार की छोटी-छोटी इकाइयां मिलकर समाज का गठन करती हैं, और परिवार का केंद्र बिंदु भी नारी होती है। यदि एक नारी शिक्षित होती है, तो एक परिवार शिक्षित होता है, और जब एक परिवार शिक्षित होता है, तब पूरा राष्ट्र शिक्षित होता है।
जिस शिक्षा के महत्व को आज हम स्वीकारते हैं, उसे 19वीं सदी में माता सावित्रीबाई फुले ने रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ते हुए न केवल पहचाना, बल्कि महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोलकर एक नई क्रांति की शुरुआत की। उनके साहस और योगदान ने आज के सशक्त भारत की नींव रखी।
लेकिन क्या हम इस सशक्त भारत में माता सावित्री बाई फुले के योगदान को सही सम्मान दे पाए? आज अगर हम समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर कई अहम निर्णयों में अपनी राय और सुझाव रख पा रहे हैं तो वह सिर्फ़ शिक्षा के कारण संभव हुआ। सोचिए, कितना कठिन रहा होगा यह सब उस दौर में जब रूढ़िवादी परंपराओं ने देश को अपने मकड़जाल में जकड़ रखा था। जब घर से निकलने उन पर गोबर फेंका जाता था, तब भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उनके त्याग, समर्पण और निष्ठा के आगे हम नतमस्तक है।
आइए जानते हैं कौन थी माता सावित्री बाई फुले :
3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव नामक छोटे से गांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले ने अपने पति दलित चिंतक व समाज सुधारक ज्योति राव फुले से पढ़कर सामाजिक चेतना फैलाई। देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले एक मिसाल, प्रमाण और प्रेरणा हैं कि अगर दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति हो तो समाज में नई चेतना का विस्तार किया का सकता है।
19वीं सदी में जब स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवा विवाह जैसी कुरीतियों पर महिलाएं इसे नियति मानकर चुपचाप झेला करती थीं, उस समय इस वीरांगना ने अपनी आवाज़ उठाई और नामुमकिन को मुमकिन करके दिखाया।
मात्र 9 साल की उम्र में सावित्री बाई फुले का विवाह हुआ और जब उनका विवाह हुआ तब वह अनपढ़ थीं। ज्योतिबा फुले भी तीसरी कक्षा तक ही पढ़े थे। जिस दौर में सावित्री बाई फुले पढ़ने का सपना देख रही थीं, उस दौर में अस्पृश्यता, छुआछूत, भेदभाव जैसी कुरीतियां चरम पर थीं। उसी दौरान की एक घटना के अनुसार एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया। वह दौड़कर आए और उनके हाथ से किताब छीनकर घर से बाहर फेंक दी। कारण सिर्फ़ इतना था कि शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था। दलित और महिलाओं के लिए शिक्षा ग्रहण करना पाप था। बस उसी दिन से वह किताब वापस लाकर प्रण कर बैठीं कि कुछ भी हो जाए वह एक न एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी। इसी लगन से उन्होंने एक दिन ख़ुद पढ़कर अपने पति ज्योतिबा राव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले। उन्होंने 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना की थी और अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था। उन्होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की।स्कूल जाने पर झेली प्रताड़नाजब भी सावित्रीबाई फुले स्कूल जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर और गोबर फेंक दिया करते थे। ऐसा हर रोज़ होता था लेकिन वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने इसका हल भी ढूंढ लिया। वह अपने साथ एक अतिरिक्त साड़ी भी लेकर जाने लगीं।
सत्यशोधक समाज की जनक :
सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया। 1890 में ज्योतिराव फुले के निधन के बाद उन्होंने सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी संभाली और विधवा पुनर्विवाह जैसे प्रगतिशील विचारों को साकार किया। 10 मार्च 1897 को प्लेग पीड़ितों की सेवा करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनका पूरा जीवन समाज के वंचित तबक़े ख़ासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता।
सावित्रीबाई फुले को आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। वह अपनी कविताओं और लेखों में हमेशा सामाजिक चेतना की बात करती थीं। उनकी बहुत सी कविताएं हैं जिससे पढ़ने-लिखने की प्रेरणा मिलती है, जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों से दूर रहने की सलाह भी मिलती है। सावित्री बाई फुले इस देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ-साथ, समाज के वंचित तबक़े ख़ासकर स्त्रियों और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए हमेशा याद की जाएंगी।
उनकी प्रेरणा से, आज की नारी हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। यदि हम राष्ट्र को आदर्श बनाना चाहते हैं, तो हमें सावित्रीबाई फुले के योगदान को याद रखते हुए आने वाली पीढ़ियों को उनके योगदान के प्रति जागरूक करते हुए हर महिला को शिक्षित करना होगा। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सविता आनंद,
लेखिका और चिंतक
पूर्व (निजी सचिव, अनुसूचित जाति/जनजाति मंत्रालय, दिल्ली सरकार)
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