झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में पान बेचने वाले, गार्ड और मजदूर जैसे आम लोग राजनीति में उतरकर दलित समाज के हक के लिए अपनी आवाज़ उठाने का संकल्प ले रहे हैं। ये उम्मीदवार समाज के निचले वर्ग के लिए समान अधिकार और अवसर की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं, और उनका मुख्य उद्देश्य चुनावी मैदान में अपने संघर्षों को समाज के हित में बदलना है .
झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में इस बार एक नया और दिलचस्प मोड़ देखने को मिल रहा है। चुनावी रणभूमि में कुछ ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतरे हैं, जो पहले सड़कों पर पान बेचते थे, गार्ड की ड्यूटी करते थे, मजदूरी करते थे और रंगाई-पुताई का काम करते थे। अब ये सभी लोग अपने संघर्ष, मेहनत और समाज के निचले वर्ग के हक के लिए राजनीति में अपनी किस्मत आज़माने उतरे हैं। इन उम्मीदवारों का मानना है कि समाज के निचले वर्ग को मुख्यधारा की राजनीति में उचित स्थान मिलना चाहिए, और वे इस लड़ाई को खुद के संघर्ष और जीवन की कठिनाइयों से प्रेरित होकर लड़ रहे हैं। इनकी कहानी एक प्रेरणा बनकर सामने आई है, जो यह साबित करती है कि अब दलित, गरीब या निचले वर्ग को अपने हक के लिए खुद कदम उठाने होंगे।
मुकुल नायक: एक रंगाई-पुताई करने वाले का संघर्ष
कांके विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार मुकुल नायक, जो पेशे से एक रंगाई-पुताई करने वाले व्यक्ति हैं, राजनीति में कदम रखने का कारण बताते हुए कहते हैं, “मैंने हमेशा समाज के दबे-कुचले वर्ग के हक के लिए काम किया है। अगर मैं जीतता हूं, तो इस समाज की आवाज़ को और मजबूत करूंगा।” मुकुल का कहना है कि वे समाज के हर वर्ग को समान अधिकार दिलवाने के लिए कार्य करेंगे। हाल ही में, जब मुकुल ने अपना नामांकन रांची ज़िलाधिकारी के कार्यालय में किया, तो उनके घर में चावल नहीं था और खाना नहीं बना था, क्योंकि उन्हें अक्टूबर माह का राशन अभी तक नहीं मिला था। इस मुश्किल हालात के बावजूद, गांव वालों ने चंदा करके मुकुल की मदद की और किसी तरह से वह नामांकन करने के लिए रांची गए। उनका उद्देश्य दलित समाज के उत्थान के लिए काम करना और उनके अधिकारों की रक्षा करना है।
मनोज करुआ: सिक्योरिटी गार्ड से राजनीति के मैदान तक
जमशेदपुर के सिक्योरिटी गार्ड मनोज करुआ ने भी दलित समाज के अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ उठाने का निर्णय लिया है। मनोज का मानना है कि उनके इलाके में दलितों और अन्य निचली जातियों के लिए रोजगार और शिक्षा की बहुत आवश्यकता है। उनका उद्देश्य इन वर्गों को अपने हक के लिए आगे बढ़ने का मौका देना और राजनीति में उनका हिस्सा बढ़ाना है। मनोज का कहना है, “हमारे इलाके में दलितों और निचली जातियों के लिए रोजगार और शिक्षा की बहुत बड़ी आवश्यकता है। मैं चाहता हूं कि इन वर्गों को अपने हक के लिए आगे बढ़ने का मौका मिले और राजनीति में उनका हिस्सा बढ़े।”
सावित्री देवी: महिला और दलित समाज के लिए चुनावी संघर्ष
झारखंड विधानसभा चुनाव में सिर्फ पुरुष उम्मीदवार ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी चुनावी मैदान में हैं। इनमें से एक हैं सावित्री देवी, जो खूंटी ज़िले के तोरपा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार हैं। सावित्री देवी एक खेतिहर मजदूर हैं और महिलाओं एवं दलित समाज के उत्थान के लिए चुनावी मैदान में उतर चुकी हैं। उनका कहना है, “महिलाओं और दलितों के लिए मुझे काम करना है। मैं चाहती हूं कि हमारे समाज को भी सम्मान मिले, और हमें बराबरी का अधिकार मिले।” सावित्री देवी अपने चुनावी अभियान के दौरान यह संदेश दे रही हैं कि समाज के दबे-कुचले वर्ग और महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाना उनकी प्राथमिकता है।
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रविंद्र सिंह: पान बेचने वाला नेता
पान बेचने वाला एक और उम्मीदवार, जो अपनी मेहनत और संघर्ष से राजनीति में कदम रख चुका है, वह हैं 52 साल के रविंद्र सिंह। रविंद्र सिंह जमशेदपुर बस स्टैंड के पास पान की दुकान चलाते हैं और उन्हें उनके इलाके में ‘प्रभु जी’ के नाम से जाना जाता है। उनका मानना है कि राजनीति में दलित और गरीब वर्ग को सही प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। रविंद्र सिंह का कहना है, “मेरे पास पैसा तो बिल्कुल भी नहीं है। हमको अगर पाँच वोट भी मिल जाएगा तो हम अपने को सफल समझेंगे। अभी तो पैदल घूमकर प्रचार कर रहे हैं। आखिरी समय में साइकिल से प्रचार करेंगे।” रविंद्र सिंह का संघर्ष इस बात को साबित करता है कि चुनावी मैदान में पैसे से अधिक मेहनत और ईमानदारी मायने रखती है।
चुनावी मैदान में पैसे की कमी: क्या ये उम्मीदवार जीत पाएंगे?
इन उम्मीदवारों के पास प्रचार प्रसार के लिए करोड़ों रुपये नहीं हैं, न ही उनके पास महंगी गाड़ियाँ हैं। जबकि आमतौर पर चुनावों में उम्मीदवार बड़े पैमाने पर पैसे खर्च करते हैं, ये उम्मीदवार साइकिल या पैदल चलकर प्रचार कर रहे हैं। उनके पास इतना पैसा भी नहीं है कि वे अपने प्रचार के लिए किसी महंगे वाहन का इस्तेमाल कर सकें, लेकिन उनका विश्वास और संघर्ष इस बात का संकेत है कि अब दलित और गरीब वर्ग को अपनी आवाज़ उठानी होगी।
इनका चुनावी संघर्ष यह दिखाता है कि चुनाव में सिर्फ बड़े दलों के उम्मीदवार नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग को अपनी जगह बनाने का मौका मिलना चाहिए। इनकी कोशिशें न केवल दलित समाज के अधिकारों की रक्षा के लिए हैं, बल्कि यह भी साबित करती हैं कि अगर किसी वर्ग को अपनी पहचान बनानी है, तो उसे खुद सशक्त होकर आगे आना होगा।
माना चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा कि इन संघर्षपूर्ण यात्राओं का क्या परिणाम होता है, लेकिन इन उम्मीदवारों की कोशिशें प्रेरणादायक हैं।
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