महाराष्ट्र: भीमा कोरेगांव का इतिहास और राजनीति

भीमा कोरेगांव की 1818 की लड़ाई दलित अस्मिता और आत्म-सम्मान का प्रतीक है, जहां महार दलित सैनिकों ने पेशवा की सेना को हराया। इस जीत की याद में जयस्तंभ बना, जो दलित गर्व का केंद्र है। 2018 में जश्न के दौरान हिंसा हुई, जिससे दलित राजनीति और सामाजिक बहस तेज हुई। यह स्थल ऐतिहासिक गर्व और विवाद का मिश्रण बना हुआ है।

भीमा कोरेगांव की लड़ाई, जो 1 जनवरी 1818 को लड़ी गई थी, केवल एक ऐतिहासिक घटना भर नहीं, बल्कि दलित अस्मिता का प्रतीक बन चुकी है। महाराष्ट्र के कोरेगांव गांव में हुई इस ऐतिहासिक लड़ाई में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की छोटी सी सेना, जिसमें अधिकांश महार समुदाय के दलित सैनिक शामिल थे, ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की विशाल मराठा सेना को परास्त कर दिया था। यह युद्ध महज सैन्य संघर्ष नहीं था; यह एक ऐसी लड़ाई थी जो दलित समुदाय के आत्म-सम्मान और पहचान के लिए लड़ी गई थी। उस वक्त पेशवा की ब्राह्मणवादी सत्ता ने दलितों के साथ भेदभाव करते हुए उन्हें समाज में एक निम्न स्थान पर रखा था। महारों ने उस अपमान का जवाब देने के लिए ब्रिटिश सेना का साथ देने का निर्णय लिया और इस प्रकार उन्होंने मराठा सत्ता के खिलाफ अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ी।

जयस्तंभ: एक ऐतिहासिक स्तंभ

इस जीत की याद में अंग्रेजों ने कोरेगांव में एक स्मारक ‘जयस्तंभ’ का निर्माण करवाया। यह स्तंभ आज भी दलित समाज की आत्म-सम्मान की भावना का प्रतीक है। दलित समुदाय हर साल 1 जनवरी को यहां एकत्र होकर अपने पूर्वजों की वीरता का सम्मान करते हैं। यह स्तंभ दलित अस्मिता का प्रतीक बन गया है, और बाबासाहेब अंबेडकर ने भी इस स्थान का महत्व समझा। उन्होंने दलित समुदाय के लिए इसे गर्व का स्थल मानते हुए यहां परंपरा को जीवित रखा।

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भीमा कोरेगांव हिंसा: एक विवादास्पद अध्याय

1 जनवरी 2018 को जब दलित समुदाय अपनी इस जीत का जश्न मना रहे थे, तब अचानक हिंसा भड़क उठी। इसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई, कई लोग घायल हुए, और घटनास्थल पर भारी नुकसान हुआ। इस घटना के बाद महाराष्ट्र में दलित राजनीति में हलचल मच गई। इस हिंसा के बाद कई सामाजिक कार्यकर्ता, पूर्व जज और आईपीएस अधिकारी, दलित विचारक एल्गार परिषद नामक सभा में इकट्ठा हुए और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज बुलंद की। इस घटना के बाद पूरे देश में बहस छिड़ गई और महाराष्ट्र की राजनीति में भी इसका प्रभाव पड़ा।

महाराष्ट्र में भीमा कोरेगांव का राजनीतिक प्रभाव

भीमा कोरेगांव हिंसा के बाद दलित समाज में विभाजन की स्थिति पैदा हुई। प्रकाश अंबेडकर, जो भीमराव अंबेडकर के पोते हैं, ने असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। हालांकि, इस गठबंधन को अपेक्षित समर्थन नहीं मिला और इसके परिणामस्वरूप दलित वोट कांग्रेस-शिवसेना गठबंधन की ओर खिसक गया। इस घटना ने महाराष्ट्र में दलित राजनीति को और अधिक जटिल बना दिया। भाजपा के प्रवक्ता संदीप खर्डेकर का कहना है कि इस पुराने जख्म को कुरेदने से समाज में दरारें और गहरी हो सकती हैं।

भीमा कोरेगांव: दलितों के आत्म-सम्मान का प्रतीक क्यों बना

भीमा कोरेगांव की घटना ने दलित समाज में आत्म-सम्मान की भावना को जागृत किया। दलितों ने इस जंग को एक प्रतिशोध के रूप में देखा, जहां उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी। बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व में दलित समाज ने इस स्मारक को अपनी अस्मिता का प्रतीक माना। यही कारण है कि हर साल यहां दलित समुदाय बड़ी संख्या में इकट्ठा होता है और अपने पूर्वजों के संघर्षों को याद करता है।

जयस्तंभ पर क्यों है इतनी कड़ी सुरक्षा

भीमा कोरेगांव के जयस्तंभ को लेकर सुरक्षा की दृष्टि से भी यहां कड़ी निगरानी रहती है। हर साल इस स्थल पर भारी पुलिस बल तैनात रहता है, ताकि किसी प्रकार की अप्रिय घटना न घटे। यहां सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और पुलिस 24 घंटे निगरानी करती है। इस कड़ी सुरक्षा का कारण 2018 की हिंसा है, जिसने पूरे महाराष्ट्र में दलित असंतोष की लहर फैला दी थी।

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विवाद के दोनों पक्ष: ऐतिहासिक गर्व और वर्तमान राजनीति

भीमा कोरेगांव की घटना के संदर्भ में दो अलग-अलग मत हैं। एक पक्ष इसे दलितों के आत्म-सम्मान की लड़ाई मानता है, जिसमें महारों ने ब्राह्मणों के अत्याचारों का प्रतिकार किया था। वहीं, दूसरे पक्ष का मानना है कि इसे दलित अस्मिता को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। भीमा कोरेगांव की हिंसा और उसके बाद की घटनाओं ने महाराष्ट्र की राजनीति को कई बदलावों के लिए प्रेरित किया है .

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