राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले: समता, शिक्षा और चेतना के प्रतीक

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महात्मा फुले सिखाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की राह आसान नहीं होती। विरोध सहना पड़ता है, अकेले खड़ा होना पड़ता है, लेकिन अंत में वही विचार टिकते हैं जो मानवता के पक्ष में होते हैं। आज जब सुविधाओं के लिए चुप्पी साध लेना सामान्य हो गया है, तब फुले की आवाज हमें झकझोरती है और सत्य के पक्ष में खड़े होने की प्रेरणा देती है।

 

कहा जाता है कि व्यक्ति अपने कर्मों से महान बनता है, और जब उसके कर्म मानवता के कल्याण के लिए हों, तो वह इतिहास में अमर हो जाता है। उसका जीवन पीढ़ियों तक प्रेरणा बन जाता है। ऐसे ही एक युगपुरुष थे महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले, जिनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ। वे आधुनिक भारत के सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत, युगनिर्माता और समतामूलक समाज के दृढ़ समर्थक माने जाते हैं।

स्मृति नहीं, संकल्प का दिन:

11 अप्रैल केवल एक तिथि नहीं, बल्कि वह दिन है जब हमें महात्मा फुले द्वारा दलित, शोषित, वंचित और महिलाओं के अधिकारों के लिए किए गए संघर्ष और बलिदान को याद कर, उनके विचारों को आत्मसात करने का संकल्प लेना चाहिए। वे केवल विचारक नहीं थे, बल्कि कर्म की धरती पर उतरकर सामाजिक कुरीतियों जैसे जातिवाद, छुआछूत, पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव को ललकारने वाले एक साहसी क्रांतिकारी थे।

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शिक्षा – परिवर्तन की चाबी:

महात्मा फुले ने बहुत पहले समझ लिया था कि यदि समाज को बदला जा सकता है, तो उसका सबसे प्रभावी माध्यम शिक्षा है। जिस दौर में स्त्री शिक्षा को पाप माना जाता था, उस समय उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया और उनके साथ मिलकर 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। सावित्रीबाई फुले बाद में देश की पहली महिला शिक्षिका बनीं और उन्होंने महिला शिक्षा की क्रांति में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।

सत्यशोधक समाज की स्थापना – समतामूलक की नींव:

जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ महात्मा फुले ने खुलकर आवाज उठाई। 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था शूद्रों, अछूतों, महिलाओं और अन्य वंचित वर्गों को सामाजिक न्याय, शिक्षा, आत्मसम्मान और समानता दिलाना।
यह समाज समता, बंधुत्व और मानवता की विचारधारा को बढ़ावा देता था। फुले का विश्वास था कि जब तक समाज में सबको बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा, तब तक सच्ची आज़ादी अधूरी रहेगी।

स्त्री उत्थान- सबसे पहले आवाज:

महात्मा फुले महिलाओं के अधिकारों के भी पहले पैरोकारों में से एक थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया, बाल विवाह का विरोध किया और स्त्रियों की शिक्षा के लिए आंदोलन खड़ा किया।
उनका यह मानना था कि स्त्री केवल गृहस्थ जीवन तक सीमित नहीं, बल्कि समाज निर्माण में पुरुष के समकक्ष भागीदार हो सकती है। आज जब भी हम लैंगिक असमानता या महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव की बात करते हैं, तो फुले के विचार हमें नई दिशा दिखाते हैं।

विरोध की शुरुआत, बदलाव की राह:

महात्मा फुले सिखाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की राह आसान नहीं होती। विरोध सहना पड़ता है, अकेले खड़ा होना पड़ता है, लेकिन अंत में वही विचार टिकते हैं जो मानवता के पक्ष में होते हैं। आज जब सुविधाओं के लिए चुप्पी साध लेना सामान्य हो गया है, तब फुले की आवाज हमें झकझोरती है और सत्य के पक्ष में खड़े होने की प्रेरणा देती है।

विचारों की प्रस्तुति – सिनेमा का माध्यम:

महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले के संघर्षों को बड़े पर्दे पर दिखाने का प्रयास भी हो रहा है। निर्देशक अनंत महादेवन द्वारा बनाई गई फिल्म जो 11 अप्रैल को रिलीज़ होने वाली थी, अब राजनीतिक कारणों से 25 अप्रैल को प्रदर्शित होगी।
यह फिल्म सिर्फ एक जीवनी नहीं, बल्कि एक प्रेरणादायक दस्तावेज़ है, जो सामाजिक न्याय, शिक्षा और समानता की सोच को जन-जन तक पहुँचाने का सशक्त माध्यम बन सकती है। परंतु यह जरूरी है कि महात्मा फुले के विचारों को बिना किसी विकृति के प्रस्तुत किया जाए, ताकि इतिहास अपनी असलियत में जीवित रह सके।

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फुले फिल्म के माध्यम से समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ फिर से बुलंद हो सकती है। यह फिल्म हमें याद दिलाएगी कि शिक्षा, समानता और मानवाधिकार जैसे मुद्दे केवल नीतियों तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि हर नागरिक की ज़िम्मेदारी बनते हैं। इसके माध्यम से उन संघर्षों की झलक देखने को मिलेगी, जिन्होंने भारत में सामाजिक क्रांति की नींव रखी थी।

इस फिल्म का समाज पर एक और सकारात्मक प्रभाव यह हो सकता है कि यह जातिवाद, स्त्रीविरोध और रूढ़िवादी सोच के खिलाफ संवाद शुरू करने का माध्यम बने। लोगों के बीच यह चर्चा होना कि क्यों फुले आज भी प्रासंगिक हैं, समाज में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ा सकती है।

बहुजन चेतना का पुनर्जागरण – महापुरुषों को मिला सम्मान:

आज जब हम देखते हैं कि बहुजन महापुरुषों और महानायिकाओं के विचार जन-जन तक पहुँच चुके हैं, तो इसके पीछे बहुजन आंदोलन के दो महान स्तंभों मान्यवर कांशीराम साहेब और सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन मायावती जी का ऐतिहासिक योगदान है। इन्होंने ना केवल विचारों को पुनर्जीवित किया, बल्कि उन्हें सामाजिक सम्मान और संस्थागत पहचान भी दिलाई।

बहनजी के नेतृत्व में जब बहुजन समाज पार्टी सत्ता में आई, तब उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा ज्योतिबा फुले जी के सम्मान में कई ऐतिहासिक कदम उठाए। उदाहरण के लिए:

महात्मा ज्योतिबा फुले नगर: नोएडा और ग्रेटर नोएडा को मिलाकर गौतम बुद्ध नगर जिले का नाम बदलकर ‘महात्मा ज्योतिबा फुले नगर’ रखा गया था।

शैक्षिक संस्थानों के नामकरण: कई स्कूल, कॉलेज, और छात्रावासों का नाम महात्मा फुले जी के नाम पर रखा गया, जिससे युवा पीढ़ी उनके विचारों से जुड़ सके।

मूर्ति स्थापना और स्मारक निर्माण: उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर महात्मा फुले जी की प्रतिमाएँ स्थापित की गईं, जिनमें लखनऊ, नोएडा, आगरा जैसे प्रमुख शहर शामिल हैं।

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पुस्तकालयों और सभागारों का नामकरण: सार्वजनिक स्थलों, पुस्तकालयों और सामाजिक केंद्रों का नाम महापुरुषों के नाम पर रखा गया ताकि उनका योगदान हर वर्ग तक पहुँच सके।

बीएसपी ने अपने शासनकाल में महापुरुषों की स्मृति में स्मारक, मूर्तियाँ, शैक्षणिक संस्थान और जिलों के नाम स्थापित कर उन्हें वह सम्मान दिया जिसके वे हकदार थे।

भविष्य की नींव – फुले के विचार:

राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले की सोच केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा है। यदि उनके विचारों को शिक्षा नीति, सामाजिक व्यवहार और शासन-प्रशासन में स्थान दिया जाए, तो एक न्यायपूर्ण, समान और सशक्त भारत की कल्पना साकार हो सकती है।
उनका जीवन हमें सिखाता है कि बदलाव केवल विचारों से नहीं, बल्कि साहसी कदमों से आता है।

लेखिका – दीपशिखा इन्द्रा

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