“दिल्ली जलती रही, केजरीवाल छिपे रहे – दंगों में न सरकार दिखी, न इंसाफ मिला!”

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने बड़े वादे किए लेकिन हकीकत में दलितों, गरीबों और कमजोर वर्गों को केवल निराशा ही मिली। झुग्गी-झोपड़ी के लोगों को मकान देने का वादा झूठा साबित हुआ, शिक्षा और स्वास्थ्य मॉडल सिर्फ विज्ञापनों तक सीमित रहे, और भ्रष्टाचार व घोटालों ने सरकार की सच्चाई उजागर कर दी। 2020 के दिल्ली दंगों में केजरीवाल नदारद रहे, और अब चुनाव से पहले जनता को फिर से लुभाने की कोशिश हो रही है। लेकिन क्या दिल्ली की जनता इस बार केजरीवाल सरकार की नाकामियों को नजरअंदाज करेगी?

Delhi Politics: दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की बयानबाजी और रणनीतियां तेज हो गई हैं। हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पटपड़गंज में एक जनसभा को संबोधित करते हुए दिल्ली दंगों का मुद्दा उठाया और आम आदमी पार्टी (AAP) के संयोजक व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर तीखा हमला बोला। उन्होंने कहा कि जब 2020 में दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा भड़की, तब केजरीवाल नदारद थे। राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता, खासकर गरीबों और मुस्लिमों को ठगा है। हालांकि, खुद कांग्रेस की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।

केजरीवाल का असली चेहरा: दलित, गरीब और हाशिए के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित

अरविंद केजरीवाल ने जब 2013 में राजनीति में कदम रखा था, तब उन्होंने खुद को ईमानदार, भ्रष्टाचार-विरोधी और जनता का नेता बताया था। लेकिन बीते दस सालों में उनकी सरकार की सच्चाई उजागर हो चुकी है। उनकी नीतियों का सबसे ज्यादा नुकसान दलित, गरीब, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोगों को हुआ है। दिल्ली की अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले दलित समुदाय के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।

“डराने-धमकाने की राजनीति कर रही है आप,” केजरीवाल पर गुंडों के दम पर वोट हासिल करने का आरोप 

आम आदमी पार्टी की सरकार ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों के लिए ‘झुग्गी से मकान’ का वादा किया था, लेकिन हकीकत यह है कि हजारों झुग्गी बस्तियों को बुलडोज़र से उखाड़ फेंका गया, और वहां रहने वाले लोगों को सड़कों पर छोड़ दिया गया। दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल कर दिया गया, लेकिन सरकार ने कोई पुनर्वास नीति नहीं बनाई।

दिल्ली दंगों में दलितों और कमजोर वर्गों की अनदेखी

राहुल गांधी ने अपने भाषण में दिल्ली दंगों का जिक्र कर मुसलमानों को साधने की कोशिश की, लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों ही दलितों और कमजोर तबकों के लिए कोई ठोस नीति बनाने में विफल रहे हैं। 2020 के दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान कमजोर तबकों को हुआ, लेकिन केजरीवाल सरकार ने न तो पीड़ित परिवारों को मुआवजा दिया, न ही दंगों की निष्पक्ष जांच करवाई।

जब दिल्ली जल रही थी, तब केजरीवाल कहां थे? जब गरीबों की दुकानें लूटी जा रही थीं, तब आम आदमी पार्टी के नेता क्या कर रहे थे? और जब दंगा पीड़ित दलितों को न्याय की जरूरत थी, तब कांग्रेस क्यों खामोश थी?

राहुल गांधी की राजनीति भी सिर्फ दिखावा

राहुल गांधी आज मुसलमानों को दिल्ली दंगों की याद दिला रहे हैं, लेकिन उनकी अपनी पार्टी भी दलितों और पिछड़ों के मुद्दों पर चुप्पी साधे रही है। कांग्रेस ने हमेशा दलितों के अधिकारों की बात तो की, लेकिन सत्ता में रहते हुए उनके लिए कुछ नहीं किया। 2019 के लोकसभा चुनाव और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुस्लिम और दलित वोट बैंक पूरी तरह आम आदमी पार्टी की ओर शिफ्ट हो गया था, लेकिन अब कांग्रेस को अचानक इस वोट बैंक की याद आ रही है।

राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए दलितों की समस्याएं कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहीं। वे सिर्फ अल्पसंख्यकों को भावनात्मक मुद्दों में उलझाकर अपना राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं। लेकिन क्या वे यह बताएंगे कि उनकी सरकार ने दलितों के लिए क्या किया? क्या कांग्रेस सरकार ने कभी यह सुनिश्चित किया कि दलित छात्रों को उच्च शिक्षा में आरक्षण मिले? क्या उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सरकारी नौकरियों में दलितों का प्रतिनिधित्व बढ़े?

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दलितों के लिए कौन? नई राजनीति की जरूरत

दिल्ली में दलितों और पिछड़े वर्गों को अब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के जुमलों से आगे सोचना होगा। केजरीवाल सरकार की शिक्षा और स्वास्थ्य मॉडल की पोल खुल चुकी है। सरकारी स्कूलों की हालत खराब है, अस्पतालों में सुविधाएं नहीं हैं, मोहल्ला क्लीनिक सिर्फ दिखावे के लिए हैं, और दलित बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है।

अब समय आ गया है कि दलित समाज अपने राजनीतिक अधिकारों को पहचानें और ऐसे नेताओं को चुनें जो सच में उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ें। आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की राजनीति सिर्फ सत्ता के लिए है, न कि गरीबों और दलितों के उत्थान के लिए। दिल्ली के दलितों को यह फैसला करना होगा कि वे बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार हैं, या फिर वे अपनी राजनीति खुद तय करेंगे।

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