हरियाणा चुनाव में दलितों ने कांग्रेस से किया किनारा, दलितों के बिना अधूरी कांग्रेस की चुनावी रणनीति

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ये चुनाव न केवल हरियाणा की राजनीतिक परिस्थिति को बदलने वाला रहा, बल्कि इसने दलित समाज की राजनीतिक जागरूकता को भी रेखांकित किया।राहुल गांधी के बयान और कुमारी सैलजा के अपमान के बाद वाल्मीकि, धानुक और रविदासिया जैसे प्रमुख दलित समूहों ने कांग्रेस से दूरी बना ली।

हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 ने राजनीतिक समीकरणों में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया है, खासकर दलित समुदाय के राजनीतिक दृष्टिकोण में। जहां पहले दलित समाज को केवल एक वोट बैंक के रूप में देखा जाता था, अब उन्होंने अपनी शक्ति और भूमिका को बखूबी पहचान लिया है। यह चुनाव न केवल हरियाणा की राजनीतिक परिस्थिति को बदलने वाला रहा, बल्कि इसने दलित समाज की राजनीतिक जागरूकता को भी रेखांकित किया।

कांग्रेस का वर्चस्व और दलित समुदाय का मोहभंग

बीते दशकों में, हरियाणा में कांग्रेस पार्टी दलितों के लिए एक प्रमुख विकल्प रही है। पार्टी का जातिगत समीकरण, खासकर जाट और दलित गठजोड़, कांग्रेस के चुनावी गणित का एक मजबूत आधार रहा है। इस गठजोड़ ने कांग्रेस को बार-बार सत्ता के करीब लाने का काम किया। लेकिन इस बार के चुनाव में कांग्रेस को भारी झटका लगा, जब दलित समुदाय ने उससे मुंह मोड़ लिया।

यह मोड़ तब आया जब कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने आरक्षण पर एक विवादास्पद बयान दिया, जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात कही। इस बयान से दलित समुदाय में व्यापक असंतोष फैल गया। इसके अलावा, कुमारी सैलजा, जो दलित समुदाय का एक बड़ा चेहरा हैं और कांग्रेस की वरिष्ठ नेता हैं, का अपमान भी दलितों के मन में कांग्रेस के प्रति नाराजगी का एक और कारण बना। कांग्रेस पार्टी, जो दलित समाज को अपने महत्वपूर्ण समर्थन आधार के रूप में देखती थी, अब उस समर्थन को खोने लगी थी।

दलित समूहों का भाजपा और बसपा की ओर रुख

राहुल गांधी के बयान और कुमारी सैलजा के अपमान के बाद वाल्मीकि, धानुक और रविदासिया जैसे प्रमुख दलित समूहों ने कांग्रेस से दूरी बना ली। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव था, क्योंकि हरियाणा के इन प्रमुख दलित समूहों ने लंबे समय से कांग्रेस का समर्थन किया था। अब ये समूह अपने अधिकारों और भविष्य की योजनाओं के आधार पर पार्टियों का चयन करने लगे।

इस नाराजगी का लाभ भाजपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उठाया। कुछ दलित मतदाताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया, जो केंद्र सरकार के तहत चल रही योजनाओं और नीतियों को उनके हित में मान रहे थे। वहीं, अन्य दलित मतदाता, विशेष रूप से बसपा की नीतियों और मायावती के नेतृत्व को देखते हुए, बसपा के साथ खड़े हो गए।

जाट-दलित गठजोड़ में दरार

कांग्रेस के लिए जाट और दलित गठजोड़ हमेशा से एक राजनीतिक संजीवनी रहा है। इस गठजोड़ ने पार्टी को कई बार चुनावी जीत दिलाई थी। लेकिन इस बार, दलित समुदाय के कांग्रेस से दूर होने के चलते इस गठजोड़ में गहरी दरारें आ गईं। जाट समुदाय का समर्थन मिलने के बावजूद, कांग्रेस का दलित समर्थन खोने से उसकी चुनावी गणित गड़बड़ा गई।

यह बदलाव कांग्रेस के लिए न केवल एक चुनावी नुकसान साबित हुआ, बल्कि इसके कारण राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों में भी बड़ा बदलाव देखने को मिला। दलित समुदाय की नाराजगी ने कांग्रेस को उसकी कमजोरियों का एहसास दिलाया और उसे यह समझने पर मजबूर किया कि दलितों के बिना उसकी चुनावी रणनीति अधूरी है।

बसपा का उदय

बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जो हरियाणा में अब तक एक सीमित भूमिका में थी, इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण ताकत के रूप में उभरकर सामने आई। बसपा ने उन दलित समूहों को अपने साथ जोड़ा, जो कांग्रेस से नाखुश थे। मायावती के नेतृत्व में बसपा ने हरियाणा में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश की और दलित मतदाताओं को यह विश्वास दिलाया कि केवल बसपा ही उनके हितों की सही तरीके से रक्षा कर सकती है।

दलित समाज की राजनीतिक जागरूकता

इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था कि दलित समाज अब अपनी राजनीतिक ताकत को पहचान चुका है। वे अब केवल एक वोट बैंक नहीं रहे, जिन्हें राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय लुभाती थीं। अब वे राजनीतिक दलों को अपने अधिकारों, जरूरतों और भविष्य की दृष्टि से परखने लगे हैं।

यह जागरूकता न केवल हरियाणा में, बल्कि पूरे देश में दलित समुदाय के राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की शुरुआत कर रही है। दलित समाज अब उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां वह किसी भी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। उनका समर्थन या विरोध किसी भी पार्टी के जीतने या हारने में निर्णायक साबित हो सकता है।

राजनीतिक दलों के लिए संदेश

इस चुनाव ने राजनीतिक दलों के लिए एक स्पष्ट संदेश दिया है कि अब दलित समाज को नजरअंदाज करना संभव नहीं होगा। दलितों की मांगों और समस्याओं को समझे बिना, उनके अधिकारों का सम्मान किए बिना अब कोई भी पार्टी चुनावी मैदान में सफल नहीं हो सकती।

दलित समुदाय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे अब अपने हक के लिए खड़े हैं और उनकी आवाज को सुने बिना कोई राजनीतिक समीकरण पूरा नहीं हो सकता।

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दलित समाज के लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक

हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 ने यह साबित कर दिया कि दलित समाज अब राजनीतिक रूप से जागरूक और सक्रिय हो चुका है। वे अब केवल वोट बैंक नहीं हैं, बल्कि वे अपनी राजनीतिक ताकत और भूमिका को समझते हैं। उनकी ताकत अब इतनी बढ़ चुकी है कि वे किसी भी पार्टी की जीत-हार का फैसला कर सकते हैं।

यह चुनाव देशभर में दलित समाज के लिए एक नई शुरुआत का प्रतीक है, जहां वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनकी आवाज को सुने बिना कोई भी राजनीतिक दल आगे नहीं बढ़ सकता। इस चुनाव के परिणामों ने न केवल हरियाणा की राजनीति को बदल दिया है, बल्कि यह पूरे देश में दलित राजनीति के नए दौर की शुरुआत कर रहा है।

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