भारत के हेल्थ सेक्टर में आज भी असमानताओं का सामना कर रहे हैं दलित, आदिवासी

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आजादी के बाद से भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में बहुत विकास हुआ है लेकिन इसमें अभी भी सभी सामाजिक समूहों खासकर दलितों और आदिवासियों को वो सेवाएं नहीं मिली है जिसके वह हकदार हैं..

 

स्टोरी: अवनी कुलश्रेष्ठ

संपादन: सुषमा तौमर

 

भारत की आबादी का लगभग 25.2% हिस्सा दलित और आदिवासी हैं। ‘अछूत’ और ‘निम्न जाति’ माने जाने के कारण, इन समूहों को लगातार हाशिए पर रखा गया है जिसका परिणाम ये भी हुआ है कि भारतीय स्वास्थ्य सेवा के ढांचे से भी यह बाहर दिखाई देते हैं। यही कारण है कि दलित और आदिवासियों के जीवन में लगातार गरीबी और सेवाओं का अभाव बना हुआ है। 

उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, एक दलित महिला एक उच्च जाति की हिंदू महिला की तुलना में पंद्रह साल कम जीती है। यह एक खतरनाक अंतर है जो बताता है कि भारतीय समाज में असमानता की जड़ें कितनी गहरी हैं। बीते कई सालों में ऐसी कई मौतें हुई हैं जिन्हें टाला जा सकता था। लेकिन ये असमानताएँ हमारी संरचना में इस हद तक अंतर्निहित हो चुकी हैं कि भारतीय सामाजिक ताना-बाना इसी से परिभाषित होता हैं।

 

कोविड-19 महामारी ने इन स्वास्थ्य असमानताओं को और बढ़ा दिया है, जिससे हाशिए पर पड़े समुदायों पर अभूतपूर्व बोझ पड़ा है। महामारी के दौरान स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में वृद्धि हुई, सरकारी अस्पतालों में कोविड-19 उपचार की औसत लागत 1,12,179 रुपये और निजी अस्पतालों में 2,97,577 रुपये तक पहुँच गई। कोविड-19 जैसे लक्षणों के उपचार की लागत सरकारी अस्पतालों में 4,622 रुपये और निजी अस्पतालों में 28,932 रुपये थी। स्वास्थ्य सेवा में आने वाले इस खर्च में वृद्धि ने गरीबों को सबसे अधिक प्रभावित किया है, खासकर हाशिए के समुदायों के लोगों यानी दलित और आदिवासियों को।

 

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स्वास्थ्य सेवा पर भारत दुनिया में सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक है, जहाँ सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 1.25% ही स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किया जाता है। स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे और सेवाओं में इस कम निवेश के कारण एक बड़ी आबादी खासकर हाशिए के समुदायों के लिए गंभीर परिणाम सामने आए हैं। कोविड-19 महामारी ने भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के भीतर इन मौजूदा संरचनात्मक असमानताओं को उजागर किया है। ऑक्सफैम इंडिया इनइक्वैलिटी रिपोर्ट के अनुसार, महामारी का दलितों सहित हाशिए के समूहों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। वे सामाजिक दूरी (social distancing) का पालन करने या स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँचने में भी असमर्थ रहे हैं। क्योंकि दलित वर्गों की अधिक्तर आबादी ऐसे इलाकों में रहती है जहाँ स्पेस यानी जगह की बहुत कमी होती है। उदाहरण के लिए आप मुंबई की धारावी और अन्य चॉल वाले इलाकों को समझ सकते हैं।

भारत के संदर्भ में World health organization यानी डब्ल्यूएचओ (WHO) ने यह नोट किया है कि भारत अपनी आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ रहा है। डब्ल्यूएचओ ने भारत से सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के लिए खर्च बढ़ाने का आग्रह किया है खासकर हाशिए पर पड़े लोगों के लिए।

 

हमारे देश की नीतियों ने हाशिए पर पड़े लोगों को प्रभावी रूप से नज़रअंदाज़ किया है। यह दलित मुद्दों के अचेतन बहिष्कार और जातिगत मतभेदों को मिटाने वाले अमूर्त और समरूप समूहों के निर्माण के माध्यम से प्रकट होता है। इसके अलावा लोग अक्सर स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में जाति-आधारित असमानताओं के अस्तित्व को नाकार देते हैं। यह सामाजिक निर्धारक प्रवचन स्वास्थ्य असमानताओं को आकार देने में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करने में विफल रहता है खासकर केरल जैसे राज्यों में दलितों के बीच।

 

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अन्य सामाजिक समूहों की तुलना में दलितों में साक्षरता दर भी कम है  और वे आमतौर पर अकुशल श्रम में लगे रहते हैं, जो न्यूनतम आय प्रदान करता है और समाज में समान रूप से मौजूद रहने के लिए पर्याप्त नहीं है। दलितों की साक्षरता दर लगभग 66% है जबकि राष्ट्रीय औसत साक्षरता दर 73% है।

इसके अलावा, भारतीय स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में विभाजित है। सार्वजनिक प्रणाली में प्रमुख शहरों में सीमित माध्यमिक और तृतीयक देखभाल संस्थान शामिल हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्रों (PHC) के माध्यम से बुनियादी स्वास्थ्य सेवा सुविधाएँ प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। हालाँकि, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में अपर्याप्तता और निजी स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी उच्च लागत कई दलितों के लिए गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा को दुर्गम बनाती है।

 

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www.hart-uk.org के मुताबिक भारत में हर 25 में से 4 लोग दलित समिदाय से आते हैं। भारत में आज भी 20% दलितों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं होता है। वहीं दलितों को अक्सर बहुत कम या बिना वेतन के खतरनाक कामों में लगाया जाता है, जैसे मानव मल को संभालना, इसके बाद गंदा पानी पीने, सीवेज की सफाई का काम करने, कूड़ा बीनने जैसे काम करने की वजह से दलित वर्ग के लोगों में संक्रमण वाली बिमारियाँ अधिक देखी जाती है लेकिन 65% दलित बस्तियों स्वास्थ्य कार्यकर्ता (doctor) नहीं जाते। यह रिपोर्ट आगे यह भी बताती है कि भारत में दलितों की पूरी आबादी का 62% दलित आज भी अशिक्षित हैं। क्योंकि छोटी उम्र से ही दलित बच्चो के साथ कक्षाओं में भेदभाव/ अलगाव किया जाने लगता है। स्कूल व विश्वविद्यालय में होने वाले भेदभाव के कारण दलित वर्ग में स्कूल छोड़ने की दर बहुत अधिक है।  

 

वैश्विक स्वास्थ्य सेवा सूचकांक में भारत 44वें स्थान पर है। जहाँ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के अनुसार भारत का स्कोर 65.4  है। जो बाताती है कि भारत अपने सभी नागरिकों के लिए समान स्वास्थ्य सेवा अवसर प्रदान करने में असमर्थ है। भारत में दलितों के लिए स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच के लिए सरकारों को नीतीगत हस्तक्षेप करना चाहिए और इसकी तत्काल आवश्यकता भी है। जो स्वास्थ्य सेवा में संरचनात्मक असमानताओं को दूर करने के लिए जरूरी है। साथ ही सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हाशिए पर पड़े समुदायों को वह स्वास्थ्य सेवा मिले जिसके वे हकदार हैं।

 

 

*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *

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