मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की अध्यक्षता में भाजपा की नई सरकार ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में अनुसूचित जातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण को मंजूरी दी, जिसे लेकर राज्य में तीखी बहस छिड़ गई है।
हरियाणा में अनुसूचित जातियों (एससी) के आरक्षण में उप-वर्गीकरण का मुद्दा हाल ही में राज्य की राजनीति में जोर पकड़ रहा है। 18 अक्तूबर को मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की अध्यक्षता में भाजपा की नई सरकार ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में अनुसूचित जातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण को मंजूरी दी, जिसे लेकर राज्य में तीखी बहस छिड़ गई है। सरकार का कहना है कि यह निर्णय उन दलित जातियों के हित में है, जो अब तक आरक्षण का उचित लाभ नहीं उठा पाई हैं। मुख्यमंत्री सैनी ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला देते हुए इस निर्णय को सही ठहराया, जिसमें राज्यों को आरक्षण के भीतर उप-वर्गीकरण का अधिकार दिया गया था।
उप-वर्गीकरण के माध्यम से कोटे के भीतर कोटा
सरकार का तर्क है कि अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी रह गई हैं, और उनके लिए आरक्षण का लाभ सुनिश्चित करना जरूरी है। इसके लिए उप-वर्गीकरण के माध्यम से कोटे के भीतर कोटा बनाया गया है। सरकार के अनुसार, यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण प्रयास है, जिससे समाज के सबसे पिछड़े और उपेक्षित वर्गों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला, पर सर्वेक्षण का अभाव
मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए इस निर्णय को सही ठहराया, जिसमें राज्यों को आरक्षण के भीतर उप-वर्गीकरण का अधिकार दिया गया था। हालांकि, दलित संगठनों का आरोप है कि सरकार ने बिना किसी ठोस सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के यह निर्णय लिया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह फैसला राजनीतिक लाभ के लिए जल्दबाजी में लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में यह स्पष्ट किया था कि आरक्षण में उप-वर्गीकरण से पहले सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का आकलन किया जाना चाहिए।
मायावती और दलित एक्टिविस्ट का विरोध
हालांकि, इस निर्णय का पुरजोर विरोध बसपा प्रमुख मायावती और अन्य दलित नेताओं ने किया है। मायावती ने इसे दलित समाज को बांटने की साजिश करार दिया और कहा कि भाजपा सरकार यह निर्णय सिर्फ दलितों को विभाजित करने और आपस में लड़ाने के लिए ले रही है। उन्होंने इसे आरक्षण विरोधी कदम बताया और इसे ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति का हिस्सा बताया। मायावती का कहना है कि यह वर्गीकरण सिर्फ आरक्षण के मूल उद्देश्य को कमजोर करेगा और उन दलित जातियों के अधिकारों पर कुठाराघात करेगा, जो पहले से आरक्षण का लाभ उठा रही हैं।
सरकार की मंशा पर सवाल खड़े
वहीं, दलित एक्टिविस्ट और संगठनों ने भी इस निर्णय पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि सरकार ने बिना किसी विस्तृत सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षण के यह फैसला लिया है, जिससे यह साफ होता है कि यह कदम जल्दबाजी में उठाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में स्पष्ट किया था कि उप-वर्गीकरण का फैसला लेने से पहले यह सुनिश्चित किया जाए कि किन जातियों को अधिक लाभ की जरूरत है। इसके बावजूद, हरियाणा सरकार ने किसी ठोस आंकड़े या सामाजिक-आर्थिक अध्ययन के बिना ही इस निर्णय को लागू कर दिया, जो कि सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है।
सामाजिक न्याय बनाम राजनीति
हालांकि, सरकार इस निर्णय को सामाजिक न्याय की दिशा में एक आवश्यक कदम बता रही है, लेकिन इसका राजनीतिक प्रभाव भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हरियाणा में अनुसूचित जातियां एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं, और भाजपा का यह कदम इस वोट बैंक को साधने का एक प्रयास हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह फैसला वास्तव में दलित समाज के हित में है या फिर इसके पीछे राजनीतिक फायदे हासिल करने की मंशा छिपी हुई है?
दलित समाज के बीच विभाजन
सरकार का दावा है कि इससे दलित समाज के भीतर समानता आएगी और आरक्षण का लाभ सही तरीके से वितरण हो सकेगा। लेकिन विपक्षी दल और दलित नेता इस फैसले को दलित समाज के बीच विभाजन का एक प्रयास मान रहे हैं। उनका कहना है कि यह उप-वर्गीकरण दलितों के बीच पहले से मौजूद असमानताओं को और गहरा करेगा और समाज में नए तरह के विभाजन को जन्म देगा।
उप-वर्गीकरण: लाभकारी या हानिकारक?
आरक्षण में उप-वर्गीकरण का निर्णय सामाजिक और राजनीतिक दोनों मोर्चों पर बहस का विषय बन गया है। जहाँ सरकार इसे न्यायसंगत बता रही है, वहीं इसके आलोचक इसे दलितों के अधिकारों को कमजोर करने वाला कदम मान रहे हैं। इस फैसले का असली असर तभी दिखाई देगा जब यह पूरी तरह लागू होगा, और तब यह देखा जा सकेगा कि यह दलित समाज के लिए कितना फायदेमंद या हानिकारक साबित होता है।
राजनीतिक चाल या दलितों का भला?
हरियाणा में यह फैसला आरक्षण की मूल भावना पर सवाल खड़ा कर रहा है। सरकार इसे दलित समाज के भीतर वंचित जातियों को आरक्षण का सही लाभ दिलाने की दिशा में उठाया गया कदम बता रही है, लेकिन विपक्षी दल इसे राजनीतिक चाल करार दे रहे हैं। उनके मुताबिक, इससे दलित समाज के भीतर असमानता और विभाजन की खाई और गहरी होगी।
आने वाले समय में इस मुद्दे पर राजनीति और गरम हो सकती है, खासकर जब चुनाव नजदीक हैं। दलित वोट बैंक को साधने के प्रयास में यह फैसला भाजपा के लिए लाभकारी साबित हो सकता है, लेकिन साथ ही यह दलित समुदाय के भीतर असंतोष और विभाजन को बढ़ावा देने का भी कारण बन सकता है.
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