नेपाल में पुलिस-प्रशासन दलितों की रक्षा करने में बुरी तरह फेल, खतरे में महिलायें-लड़कियां, एमनेस्टी की रिपोर्ट में चौंकाने वाला सच आया सामने

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कथित तौर पर बलात्कार आरोपी युवक की मां और चाची ने मासूम बच्ची अंगिरा पासी को यह कहते हुए गाली दी कि वह “नीची जाति” से है, इसलिए उसे उनके घर में नहीं आने दिया जाएगा, उन्होंने उसके साथ मारपीट भी की, बलात्कार किये जाने के दो दिन बाद अंगिरा पासी का शव पेड़ से लटकी हुई बरामद की गयी…

प्रेमा नेगी की टिप्पणी

Systemic descent-based discrimination against Dalits needs urgent action in Nepal : मानवाधिकार, जातिगत भेदभाव समेत तमाम मसलों पर एमनेस्टी इंटरनेशनल विश्व स्तर पर तमाम रिपोर्टें प्रकाशित करता रहता है। आज 10 मई को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने नेपाल में दलितों की सामाजिक स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी की है, जो भारत से जुदा कतई नहीं है। नेपाल में लगभग 15 फीसदी दलित आबादी है, मगर बावजूद इसके उनकी आवाज अनसुनी ही है। न ही उनका संसद में प्रतिनिधित्व है और न ही समाज में। 2020 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक नेपाल की संसद में दलितों का प्रतिनिधित्व आठ फीसदी से भी कम है। यहां तक कि सामाजिक—राजनीतिक पृष्ठभूमि में तो दलित महिलाओं की संख्या नगण्य दिखती है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा आज 10 मई को जारी की गयी नई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नेपाल में प्रशासनिक अधिकारी दलितों, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों को प्रणालीगत और व्यापक जाति-आधारित भेदभाव से बचाने में विफल हो रहे हैं।

एमनेस्टी की रिपोर्ट “नो वन केयर”: दलितों के खिलाफ वंश-आधारित भेदभाव -नेपाल में प्रणालीगत जाति-आधारित भेदभाव के अनुभव और न्याय तक पहुंचने में उनके सामने आने वाली चुनौतियों का दस्तावेजीकरण करती है, क्योंकि नेपाली प्रशासनिक अधिकारियों के मौजूदा कानूनी और सुरक्षात्मक उपाय अपर्याप्त साबित होते हैं और असफल होते हैं।

रिपोर्ट जारी करने के बाद एमनेस्टी के लैंगिक और नस्लीय न्याय कार्यक्रम की अंतर्राष्ट्रीय निदेशक फर्नांडा डोज़ कोस्टा कहती हैं, “नेपाल में वंश-आधारित भेदभाव से संबंधित मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए दण्ड से मुक्ति की संस्कृति का प्रतिकार करने के लिए नेपाल के अधिकारी पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं। अधिकारियों द्वारा किए गए प्रयास अभी भी अपर्याप्त हैं, और वे केवल कागजों पर मौजूद प्रतीत होते हैं, लेकिन विशेष रूप से दलितों, दलित महिलाओं और लड़कियों के जीवन और मानवाधिकारों में वास्तविक बदलाव नहीं लाते हैं।”

जाति-आधारित भेदभाव पर रोक लगाने के लिए कानूनी सुधारों के बावजूद एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उदाहरणों का दस्तावेजीकरण किया है कि कैसे नेपाली समाज में रोजमर्रा की जिंदगी का हर पहलू जाति व्यवस्था के आधार पर विभाजित और संचालित होता है, जहां दलितों को व्यापक स्तर पर भेदभाव और हिंसा का सामनाा करना पड़ता है। उन्हें न्याय पाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है और पुलिस समेत तमाम संस्थागत भेदभाव के कारण मुआवजे का कोई सहारा नहीं है।

जाति-आधारित व्यवस्था दंडमुक्ति की संस्कृति को रखती है कायम

जाति-आधारित भेदभाव और अस्पृश्यता, (अपराध और सजा), (सीबीडीयू) अधिनियम में सीमाओं की अपर्याप्त क़ानून, न्याय प्रणाली में दलितों के प्रतिनिधित्व की कमी और पुलिस और न्याय प्रणाली में संस्थागत भेदभाव सहित कई कारणों से अपराधियों को सजा नहीं मिल पाती है, जिस कारण दलित न्याय पर भरोसा नहीं कर पाते।

पुलिस रिकॉर्ड में सीबीडीयू अधिनियम के तहत प्रतिवर्ष केवल 30-43 मामले दर्ज किए जाते हैं।दलित आमतौर पर पुलिस और न्याय प्रणाली पर भरोसा नहीं करते हैं, और उपलब्ध सीमित सरकारी स्तर के डेटा और आँकड़े भी पुष्टि करते हैं कि उनका पुलिस प्रशासन के प्रति अविश्वास बहुत गहरे पैठा है। जाति-आधारित हिंसा झेलने वालों में बड़ी संख्या में दलित महिलाएं भी शामिल हैं। इसके पीछे कारण है नेपाली अधिकारियों की निष्क्रियता या सीमित कार्रवाइयाँ, जिनमें सार्वजनिक अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने में विफल होना और विश्वास की कमी को पूरा करना, दंडमुक्ति की इस संस्कृति को मजबूत कर रही है, और समाज में एक संदेश जा रहा है कि जाति और लिंग-आधारित भेदभाव और हिंसा “स्वीकार्य” हैं और यह प्राकृतिक है। यानी जातियां ईश्वर द्वारा बनायी गयी है, इसलिए दलित जातिगत भेदभाव झेलने के लिए ही बना है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक जाति और लिंग-आधारित हिंसा के अंतर्विभागीय मामले अक्सर दर्ज नहीं किए जाते हैं, जिससे अदृश्यता, चुप्पी और दण्ड से मुक्ति की संस्कृति कायम रहती है। कई मामलों में शर्म और कलंक का बोझ गैरदलित अपराधियों के बजाय शेषा दलित लोगों पर डाल दिया जाता है।

पुलिस का रवैया घोर जातिवादी

एमनेस्टी इंटरनेशनल के दस्तावेज़ बताते हैं कि जब जाति-आधारित घटनाओं की सूचना पुलिस को दी जाती है तो पुलिस अक्सर कानून में आपराधिक कार्यवाही शुरू करने के लिए मामले दर्ज करने से इनकार कर देती है, जिसमें अस्पृश्यता और लिंग-आधारित हिंसा के अपराध या दलित महिलाओं से जुड़े बलात्कार के मामले भी शामिल हैं। पुलिस अक्सर आपराधिक जांच और अभियोजन शुरू करने के बजाय न्याय प्रणाली से बाहर अनौपचारिक मध्यस्थता पर जोर देना पसंद करती है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर दण्ड से मुक्ति मिलती है।

अंगिरा पासी केस का उदाहरण देते हुए एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बताया है, मई 2020 में, 12 वर्षीय दलित लड़की अंगिरा पासी का शव नेपाल के रूपनदेही जिले में एक पेड़ से लटका हुआ पाया गया था। सूचना के मुताबिक तथाकथित उच्च जाति के 25 वर्षीय गैरदलित व्यक्ति पर अंगिरा के साथ बलात्कार काआरोप लगाया गया था। पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बजाय वार्ड अध्यक्ष सहित स्थानीय लोगों ने फैसला किया कि अंगिरा पासी को उसके बलात्कारी से शादी करनी चाहिए, अन्यथा उसे भविष्य में कोई भी उस बच्ची से शादी नहीं करेगा। कथित तौर पर आरोपी युवक की मां और चाची ने मासूम बच्ची अंगिरा पासी को यह कहते हुए गाली दी कि वह “नीची जाति” से है, इसलिए उसे उनके घर में नहीं आने दिया जाएगा। उन्होंने उसके साथ मारपीट भी की। बलात्कार किये जाने के दो दिन बाद अंगिरा पासी का शव पेड़ से लटकी हुई बरामद की गयी।

इस मामले में पुलिस ने शुरू में पीड़ित परिवार की शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया था। नागरिक समाज के दबाव के बाद एक शिकायत दर्ज की गई और अंगिरा पासी के मामले में आरोपी, उसकी मां और उसकी चाची को संदिग्ध के रूप में हिरासत में लिया गया। 12 सितंबर 2021 को रूपनदेही जिला न्यायालय ने आरोपी को हत्या का दोषी ठहराया और 18 साल जेल की सजा सुनाई। अभी भी सजा के खिलाफ अपील उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है।

यह तो एक उदाहरण है, ऐसे कई मामले समाज में रोज दबा दिये जाते हैं या फिर उनकी कोई चर्चा ही नहीं होती और पीड़ित पक्ष डर के मारे शिकायत भी दर्ज नहीं करता। यानी जब पुलिस सीबीडीयू अधिनियम के तहत मामलों को दर्ज करने और प्रभावी ढंग से जांच करने में विफल रहती है तो न्याय तक पहुंच बाधित होती है। आरोप लगते रहे हैं कि पुलिस अक्सर ऐसे मामलों में मुकदमा अन्य कानूनों के तहत दर्ज करती है, जिसका प्रभाव अपराध के भेदभावपूर्ण मकसद को कम करने और जाति-आधारित भेदभाव की गंभीरता को कम करने में होता है।

दलित समाज की संदिग्ध मौतों की नहीं होती निष्पक्ष जांच

ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जिनमें पुलिस दलित समुदाय के पीड़ितों की संदिग्ध मौतों की गहन, निष्पक्ष, निष्पक्ष और समय पर जांच करने में विफल रही है। इसके उदाहरण के तौर पर अजीत ढकाल मिज़ार के मामले को लिया जा सकता है। 18 वर्षीय दलित युवा अजीत ढकाल मिजार की लाश पिछले आठ वर्षों से नेपाल के महाराजगंज के एक अस्पताल के मुर्दाघर में संरक्षित रखी गई है, क्योंकि उसके पिता न्याय के लिए लड़ रहे हैं।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक 14 जुलाई 2016 को अजीत जो एक गैर-दलित उच्च जाति की लड़की से प्रेम करता था, संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाया गया। अजीत की मौत को पुलिस ने तुरंत आत्महत्या के रूप में दर्ज किया और उसकी लाश को अज्ञात घोषित कर दिया। परिवार को सूचित किए बिना अधिकारियों द्वारा उसे तुरंत दफना दिया गया। जब अजीत के पिता को कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा प्रस्तुत पोस्टमार्टम रिपोर्ट से संबंधित कुछ विसंगतियाँ मिलीं, तो उनका संदेह गहराया। उन्होंने अपने बेटे की लाश को कब्र से निकालने का अनुरोध किया और न्याय मिलने तक अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने से इनकार कर दिया।

इस मामले में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अजीत के पिता और उनके वकील का साक्षात्कार लिया। उन्होंने दावा किया कि पुलिस ने अजीत की मौत के कारण की प्रभावी जांच करने में विफलता में जानबूझकर लापरवाही दिखाई। अजीत के पिता कहते हैं पुलिस ने जातिवादी आरोपियों के प्रति निष्ठा दिखाई और उनके बेटे की मौत के वास्तविक कारण को छुपाया। अजीत के पिता का दावा है कि उनके बेटे की लाश का परीक्षण या पोस्टमार्टम नहीं किया गया था, और सबूत के तौर पर एक जाली पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश की गई थी। उन्होंने यह भी दावा किया कि अगर नेपाल का सुप्रीम कोर्ट पोस्टमार्टम का निर्देश दे तो इससे यह तथ्य सामने आ जाएगा कि अजीत ने खुद को फांसी लगाई थी या उसकी हत्या की गई थी। अजीत का मामला, निचली अदालतों के दोनों फैसलों को चुनौती देता है, जिसमें उनकी संदिग्ध मौत में शामिल तीन आरोपियों को बरी कर दिया गया था, जो अभी भी शीर्ष अदालत में लंबित है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दलित महिलाओं की समाज में स्थिति जानने के लिए कई दलित महिलाओं के साक्षात्कार लिये हैं। उन महिलाओं में से एक अनीता महारा कहती हैं, ऐसा लगता है कि “किसी को दलितों की परवाह नहीं है।”

जाति आधारित भेदभाव से निपटने में पुलिस बरतती है घनघोर लापरवाही

जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए कर्तव्य की जानबूझकर लापरवाही के संबंध में पुलिस के खिलाफ आरोप लगे तो नेपाल की कानून, न्याय और मानवाधिकार संबंधी संसदीय समिति को 2020 से हर पुलिस स्टेशन में एक दलित सेल की आवश्यकता के लिए प्रेरित किया गया। इसके परिणामस्वरूप 86 दलित-विशिष्ट पुलिस का निर्माण हुआ। देशभर में सेल, प्रत्येक को जाति-आधारित भेदभाव और अस्पृश्यता के पीड़ितों के साथ रिपोर्टिंग, जांच और समन्वय करने का काम सौंपा गया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के शोधकर्ताओं ने मधेश प्रांत के तीन जिला-स्तरीय पुलिस स्टेशनों का दौरा किया और पाया कि “दलित डेस्क” लेबल वाले प्लेकार्ड को छोड़ दिया जाये तो दलित डेस्क काम नहीं कर रहा था।

कुछ उत्साहवर्धक कानूनी सुरक्षाओं के बावजूद नेपाल जाति-आधारित भेदभाव को संबोधित करने के अपने मानवाधिकार कर्तव्य को पूरा करने में विफल साबित हुआ है। इसके लिए बनाए गए विशिष्ट कानून अर्थात् सीबीडीयू अधिनियम में प्रभावी कार्यान्वयन का अभाव है और जाति-आधारित भेदभाव की ऐसी जड़ प्रणाली का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने में विफल रहता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल अपनी रिपोर्ट में कहता है, नेपाली अधिकारियों को नेपाल में जड़ें जमा चुकी जाति और लिंग-आधारित हिंसा और भेदभाव को उखाड़ने के लिए मानवाधिकार दायित्वों के आधार पर और एक अंतरविरोधी दृष्टिकोण के साथ वास्तव में परिवर्तनकारी प्रतिक्रिया के लिए एक समग्र योजना बनानी चाहिए। उत्पीड़न के अंतर-पीढ़ीगत इतिहास और जाति-पूर्वाग्रह, पितृसत्ता और भेदभाव की गहरी संस्कृति के कारण दलित महिलाओं और लड़कियों की स्थिति में सुधार के लिए विशेष उपाय करने की तत्काल आवश्यकता है।

गौरतलब है कि हिंदू राष्ट्र नेपाल और कई दक्षिण एशियाई देशों में, वंश-आधारित भेदभाव हिंदू धर्म में निहित जाति व्यवस्था के सामाजिक पदानुक्रम में प्रकट होता है। तथाकथित निचली जातियों को ‘दलित’ के नाम से जाना जाता है। जाति व्यवस्था नेपाल में दलितों के खिलाफ अलगाव और उत्पीड़न का एक रूप कायम रखती है। नेपाल में लगभग 13.8% दलित आबादी है। जातिगत भेदभाव इतनी बड़ी आबादी के जीवन के हर पहलू को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। भूमि, शिक्षा, आजीविका, विवाह, पूजास्थल, सुरक्षा और स्वास्थ्य और नागरिकता तक पहुंच में उनका रोजमर्रा का अनुभव शामिल है। वंश-आधारित भेदभाव जाति और वंशानुगत स्थिति की अनुरूप प्रणालियों को कवर करता है, और अधिकारियों का अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और मानकों के अनुसार निजी व्यक्तियों द्वारा किए गए जाति-आधारित भेदभाव के सभी रूपों को संबोधित करने का कानूनी दायित्व है।

हालांकि नेपाल का संविधान समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांतों की गारंटी देता है। इसके अतिरिक्त, 2011 में नेपाल में दलितों को समानता का अधिकार प्रदान करने, मानवीय गरिमा के साथ जीने और जाति के आधार पर अस्पृश्यता और भेदभाव पर रोक लगाने के लिए सीबीडीयू अधिनियम को अपनाया गया था, बावजूद इसके एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जो रिपोर्ट पेश की है, वह चिंताजनक है।

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