बसपा के लिए क्यूं महत्वपूर्ण है आज़मगढ़ लोकसभा उपचुनाव?

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आजमगढ़ लोकसभा में उपचुनाव का ऐलान हो चुका है,अखिलेश यादव के इस्तीफे के बाद खाली हुई इस सीट पर तीनों मुख्य दलों ने अपने -अपने  उम्मीदवार मैदान में उतार दिए हैं। समाजवादी पार्टी ने अखिलेश यादव के चचेरे भाई और बदायूं लोकसभा के पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारा है भाजपा ने भोजपुरी सिनेमा के सुपरस्टार दिनेश लाल “निरहुआ” को अपना प्रत्याशी बनाया है और बहुजन समाज पार्टी ने दो बार के विधायक शाह आलम उर्फ “गुड्डू जमाली”  को अपना टिकट दिया है।

धर्मेंद्र यादव यहां पर सपा की तरफ से पैराशूट उम्मीदवार है और सपा ने बदायूँ से लाकर उन्हें आजमगढ़ में उतार दिया है और वो अपने ताऊ और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और अपने भैया अखिलेश यादव के नाम वोट मांगते हुए नज़र आ रहे हैं। हालांकि उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि उनकी पार्टी को क्या दस की दस विधानसभा सीट जिताने वाला ये ज़िला और यहां के लोग इस क़ाबिल नहीं लगे, जो की उनमे से किसी को लोकसभा चुनाव लड़ाया जा सकता था।

वहीं सत्ता धारी भाजपा ने भोजपुरी सिनेमा के स्टार दिनेश लाल निरहुआ को मैदान में उतारा है वो 2019 में भी अखिलेश यादव के सामने चुनाव लड़ें थे लेकिन हार गए थे हालांकि उन्होनें हारने से पहले कहा था कि “उन्हें भगवान भी चुनाव नहीं हरा सकता है” जो बाद में गलत भी साबित हुआ था। 2019 के बाद उन्हें पूरे 3 साल बाद फिर से आजमगढ़ आने की फुर्सत मिली है क्योंकि चुनावी माहौल है।

तीसरे प्रत्याशी हैं जो 2007 से 2017 तक आजमगढ़ ज़िले की मुबारकपुर विधानसभा से विधायक रहे हैं और 2014 में मुलायम सिंह यादव के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले नेता हैं ।

गुड्डू जमाली जिनका आजमगढ़ लोकसभा चुनाव के बीच एक खास तरह का रिश्ता है,2014 में गुड्डू जमाली ने ढाई लाख वोट लेकर सभी को चौंका दिया था । हालांकि 2022 के चुनावों से पहले वो सपा में चले गए थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला तो ओवैसी की पार्टी में चले गए तब भी मुबारकपुर विधानसभा से चुनाव लड़ कर 35 हज़ार वोट लाने में कामयाब हुए थे।

बाहरी और क्षेत्रीय चल रही है लड़ाई।

सपा और भाजपा दोनों ही पार्टी के उम्मीदवार बाहरी हैं आजमगढ़ के लोगों के लिए वो क्षेत्रीय नहीं हैं इसलिए आम लोग ये सवाल कर रहे हैं कि ये नेता जीतने के बाद अपने – अपने घर चले जाएंगें तो हमारा क्या होगा? हम किससे और कैसे समस्याओं को साझा करेंगें? इसलिए फिर आजमगढ़ लोकसभा के लोगों का ये सवाल करना भी बनता है कि बाहरी हमारा नेता क्यों हो क्षेत्रीय नेता  सांसद क्यों न हो?

तब पूर्व विधायक और बसपा के प्रत्याशी शाह आलम सबसे बेहतर उम्मीदवार की तरह नज़र आते हैं,जो क्षेत्र के लोगों के बीच रह कर काम करने और उनके सुख दुख में शामिल रहने की अपनी आदतों की वजह से काफी मशहूर भी हैं। समाज के हर वर्ग में उन्हें लेकर एक सकारात्मक सोच इसलिए भी बन रही है क्योंकि तीनों मुख्य उम्मीदवारों में उनका नाम क्षेत्रीय नेता की तरह से चल रहा है।

आजमगढ़ लोकसभा का गणित।

आजमगढ़ की सदर लोकसभा सीट पर सबसे ज्यादा यादवों की संख्या लगभग 4 लाख है उसके बाद मुस्लिम 3.50 लाख और तीसरे नंबर पर दलित 3 लाख हैं. पिछले कुछ लोकसभा चुनावों की बात करें तो इस सीट पर समाजवादी पार्टी का कब्ज़ा रहा है जबकि बहुजन समाज पार्टी भी इस सीट पर तीन बार विजय प्राप्त कर चुकी है वहीं 2009 का लोकसभा उपचुनाव भाजपा भी यहां से जीत चुकी है।

आजमगढ़ लोकसभा को लेकर एक अजीब तरह का गणित भी है, 2014 में मुलायम सिंह यादव यहां से चुनाव लड़ रहे थे तब उनके सामने रमाकांत यादव भाजपा से और शाह आलम बसपा से उम्मीदवार थे। शाह आलम को उस समय कुल 2 लाख 66 हज़ार वोट मिले थे। 2019 में जब बसपा और सपा का गठबंधन हुआ था बसपा का उम्मीदवार यहां नहीं था तब अखिलेश यादव यहाँ से विजयी हुए और उनकी जीत का आंकड़ा था कुल 2 लाख 59 हज़ार से वोट।

इस आंकड़े को समझें तो हार और जीत के बीच एक बड़ा नाम शाह आलम खड़े हुए है  जिनको मुलायम सिंह यादव जैसे नेता के सामने भी ढाई लाख वोट मिलते हैं, तो कुल मिलाकर आजमगढ़ लोकसभा चुनाव की हार और जीत की धुरी बसपा के इस उम्मीदवार पर आकर टिक जाती है जो अपने साथ- साथ बसपा के ताकतवर वोट बैंक को साथ मिलाकर इस बार शायद इतिहास रचता हुआ नज़र आ सकता है।

क्या हो सकता है गणित?

आजमगढ़ लोकसभा सीट का ये उपचुनाव कुछ खास वजहों से काफी दिलचस्प नज़र आ रहा है दरअसल ये सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ है, 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद भी भाजपा ये सीट जीत नहीं पाई थी। 2014 में मुलायम सिंह यादव और 2019 में अखिलेश यादव यहां से जीत कर सांसद बने थे।

लेकिन इस सबके बावजूद गौर करने वाली बात ये है कि बसपा का वोट यहाँ बराबर बना हुआ है 2019 में गुड्डू जमाली के चुनाव न लड़ने ही की वजह से अखिलेश यादव ढाई लाख वोटों से चुनाव जीते थे। समाजवादी पार्टी 2022 विधानसभा चुनाव में इस जिले की दस की दस  विधानसभा सीट यहां से जीत चुकी है और वो अपनी इस बढ़त को बरकरार रखना चाहती है।

बसपा 2022 के चुनावों में हुई अपनी करारी हार को भुलाकर अपना उदय इस सीट को जीत कर करना चाहती है क्योंकि अगर बसपा यहां से जीत जाती है तो 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने कार्यकर्ताओं में जोश भर सकती है और नई रणनीति बना सकती है।

वहीं भाजपा राज्य में सरकार और केंद्र में सरकार होने के बावजूद ये लोकसभा सीट न जीत पाने की अपनी लगातार कोशिश को इस बार कामयाब करना चाहती है और आजमगढ़ में सालों के सूखा खत्म करना चाहती है।

अब देखना ये है कि यहां की जनता क्या चाहती है,  क्या वो यहां अखिलेश यादव के नेतृत्व को चुनेंगीं या योगी आदित्यनाथ और नरेन्द्र मोदी के साथ को या सबसे अलग नज़र आ रही मायावती को जिन्हें कभी भी हल्के में लिया जाना राजनीति के मैदान में खतरे से खाली नहीं रहा है।

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