होली को रंग, उमंग और भाईचारे का त्योहार कहा जाता है, लेकिन क्या यह वास्तव में सभी के लिए समान रूप से आनंददायक और सुरक्षित है, विशेष रूप से महिलाओं और वंचित तबकों के लिए? यदि हम इतिहास और वर्तमान को साथ रखकर देखें, तो यह पर्व पितृसत्ता और ब्राह्मणवादी सोच के इर्द-गिर्द घूमता हुआ एक ऐसा अवसर बन जाता है, जहाँ स्त्री अस्मिता का हनन छिपे रूप में ही सही, लेकिन होता ही है।
जहाँ एक ओर यह प्रेम और सौहार्द का संदेश देता दिखता है, वहीं दूसरी ओर यह दलित, बहुजन, आदिवासी और आम महिलाओं के प्रति हिंसा और उत्पीड़न की घटनाओं से भी जुड़ा रहा है। यह रंगों से ढका हुआ एक ऐसा सच है, जिसे अनदेखा करने की आदत हमारी सामाजिक व्यवस्था में गहरे तक समाई हुई है।
इतिहास के पन्नों में होली और स्त्री उत्पीड़न
इतिहास गवाह है कि होली केवल रंगों और उमंग का पर्व नहीं रहा, बल्कि यह कई महिलाओं के लिए भयावह अनुभव भी रहा है। भारत के विभिन्न हिस्सों में उत्सव और परंपराओं के नाम पर महिलाओं का शोषण कोई नई बात नहीं है। कर्नाटक में प्रचलित ‘ओकली’ (Okali) नामक उत्सव इसका एक उदाहरण है।
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यह उत्सव रंग पंचमी के समान था, लेकिन इसकी सच्चाई बेहद अमानवीय थी, विशेष रूप से देवदासी प्रथा से जुड़ी महिलाओं के लिए। ऊँची जातियों के लड़के मंदिरों के सामने इकट्ठा होकर देवदासियों पर रंगीन पानी उड़ेलते थे। उनके वस्त्र इतने पतले होते थे कि वे वस्तुतः नग्न कर दी जाती थीं। यह एक ऐसा रंगीन खेल बन जाता था, जिसमें देवदासियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता था, और समाज इसे हंसी-मज़ाक का हिस्सा मानकर चुप्पी साध लेता था। यह प्रथा 1987 तक चलती रही।
यह केवल एक पुरानी कुप्रथा नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि कैसे होली की आड़ में महिलाओं के प्रति हिंसा को सामान्य बना दिया गया। आज भी कई इलाकों में होली, रंग पंचमी और अन्य धार्मिक उत्सवों के दौरान दलित और वंचित महिलाओं पर हिंसा होती है। धार्मिक स्थलों के आसपास यौन तस्करी और शोषण के मामले सामने आते हैं। ‘ओकली’ केवल एक बीती हुई प्रथा नहीं, बल्कि एक मानसिकता का प्रतीक है, जहाँ महिलाओं को उत्सव, धर्म और परंपरा के नाम पर वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
होली में आज भी महिलाओं के प्रति हिंसा क्यों आम है?
समाज की मानसिकता अब भी नहीं बदली है। आज भी गली-मोहल्लों में “बुरा न मानो, होली है” का नारा लगाकर महिलाओं पर जबरन रंग फेंका जाता है, उनके शरीर को छूने और पकड़ने की कोशिश की जाती है, और कई बार तो उनके कपड़े तक फाड़ दिए जाते हैं।
अगर गौर करें, तो यह सब होली पर इतने सामान्य रूप से होता है कि इसे गलत मानने तक की जहमत नहीं उठाई जाती। क्या यह त्योहार सच में महिलाओं के लिए है? या यह पुरुषों के लिए एक ऐसा अवसर बन गया है, जिसमें वे स्त्रियों पर अपनी दमनकारी प्रवृत्ति को “मस्ती” का नाम देकर थोप सकते हैं?
होलिका दहन: एक स्त्री के जलाए जाने का उत्सव
हर साल होली की शुरुआत होलिका दहन से होती है, जिसे अच्छाई पर बुराई की जीत का प्रतीक माना जाता है। लेकिन क्या यह विचारणीय नहीं है कि इस कथानक में जलाया जाने वाला पात्र होलिका है—एक स्त्री?
पौराणिक कथाओं के अनुसार, होलिका को हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करे, क्योंकि उसे आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। किंतु अंततः वह स्वयं जल गई और प्रह्लाद बच गया। यह कथा स्त्री के बलिदान को सहज मानने वाली मानसिकता को उजागर करती है।
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अगर इतिहास में झाँकें, तो यह परंपरा कहीं न कहीं सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं से जुड़ी दिखती है, जहाँ स्त्रियों को धर्म और परंपरा के नाम पर अग्नि के हवाले कर दिया जाता था। उनकी चीखें न सुनाई दें, इसके लिए ढोल बजाए जाते थे। यह वही मानसिकता है, जो स्त्रियों को वस्तु समझती है और उनके अस्तित्व को केवल पुरुषों के इर्द-गिर्द परिभाषित करती है।
इतिहास से लेकर आज तक, इस सोच के उदाहरण हमें बार-बार देखने को मिलते हैं। दलित महिलाओं को जलाकर मार डालने की घटनाएँ, और हाल ही में हाथरस कांड जैसी भयावह घटनाएँ इसी परंपरा का आधुनिक रूप हैं।
हाथरस कांड: रातों-रात जलाई गई एक दलित बेटी
हाथरस की घटना ने इस देश की न्याय व्यवस्था और समाज की संवेदनशीलता दोनों पर सवाल खड़े कर दिए। एक दलित युवती को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया, उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी गई, उसकी जुबान काट दी गई, ताकि वह कुछ कह न सके। वह कई दिनों तक तड़पती रही, लेकिन अंततः दम तोड़ दिया।
क्रूरता यहीं खत्म नहीं हुई। बिना परिवार की सहमति के, पुलिस ने रातों-रात उसका अंतिम संस्कार कर दिया। जिस आग में होलिका को जलाया गया था, उसी आग में इस दलित बेटी को भी झोंक दिया गया, ताकि यह मामला समाप्त हो जाए। क्या यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर नहीं करती कि होलिका दहन आज भी अलग-अलग रूपों में जारी है?
होली और मीडिया: हिंसा को दबाने की साजिश
जब भी दलित, बहुजन, आदिवासी महिलाओं के साथ अत्याचार होता है, तो मीडिया में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। हाथरस कांड, उन्नाव केस जैसी घटनाएँ आए दिन होती हैं, लेकिन इन्हें अखबारों के पहले पन्ने पर जगह तक नहीं मिलती। वहीं, बॉलीवुड सितारों की होली पार्टियाँ “ब्रेकिंग न्यूज़” बना दी जाती हैं। यह वही मीडिया है, जो दलित लड़कियों पर होने वाले अत्याचारों को दबाने में माहिर है, ताकि समाज की असली सच्चाई कभी सामने न आ सके।
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समाज को नई दृष्टि अपनाने की ज़रूरत
होली को अगर सच में ‘उत्सव’ बनाना है, तो इसे स्त्रियों के लिए भी सुरक्षित और गरिमामयी बनाना होगा। लेकिन क्या यह संभव है, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी? हमारी परंपराएँ, त्योहार और इतिहास हमें इस ओर इशारा करते हैं कि होली केवल रंगों का नहीं, बल्कि दमन का भी त्योहार है। जब तक यह बदलता नहीं, तब तक यह एक स्त्री-विरोधी तमाशा बना रहेगा। अब यह हमारे ऊपर है कि हम इस परंपरा को बनाए रखना चाहते हैं, या इसे एक ऐसा रूप देना चाहते हैं, जहाँ हर व्यक्ति—चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, किसी भी जाति, धर्म या वर्ग से हो—बिना किसी भय के इसे मना सके। लेकिन जब तक दलित, बहुजन, आदिवासी और आम स्त्रियाँ डर के साए में जीती रहेंगी, तब तक होली केवल एक महिला अस्मिता के हनन का प्रतीक बनी रहेगी।
अतः होली केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि समाज की रूढ़िवादी परंपराओं और पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी मानसिकता का प्रतीक है, जो विशेष रूप से महिलाओं, खासकर दलित समाज की महिलाओं के अस्तित्व और अस्मिता के हनन को दर्शाता है। जब तक इस मानसिकता और व्यवस्था में परिवर्तन नहीं आता, तब तक होली एक महिला-विरोधी त्योहार बना रहेगा, जहाँ स्त्री को बराबरी का अधिकार नहीं, बल्कि दमन और अपमान ही मिलता है।
लेखिका – दीपशिखा इन्द्रा
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