भाजपा का डर, कांग्रेस की कमजोरी, और AAP की विफलताएं: दलितों के मुद्दे सिर्फ भाषणों तक सीमित, सभी पार्टियों ने किया अनदेखा

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दिल्ली में दलित और अल्पसंख्यक मतदाता राजनीतिक दलों से नाराज हैं। भाजपा का डर, कांग्रेस की कमजोर स्थिति और AAP की विफल नीतियों ने इन समुदायों के मुद्दों को अनदेखा किया है। इन दलों के वादे सिर्फ भाषणों तक सीमित रहे, जबकि असली सुधारों की कमी ने इन समुदायों को निराश किया है।

Delhi Politics: दिल्ली में विधानसभा चुनाव नज़दीक हैं, और इस बार का चुनाव राजनीतिक समीकरणों और सामाजिक मतभेदों का केंद्र बनता दिख रहा है। आम आदमी पार्टी (आप) के दस वर्षों के शासनकाल के बाद, दलित और अल्पसंख्यक मतदाता असमंजस में हैं। 2020 के दिल्ली दंगों और उसके बाद के घटनाक्रमों ने केजरीवाल सरकार की छवि को अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच कमजोर किया है। दलित समुदायों का मानना है कि दिल्ली सरकार ने उनके लिए वादे तो बहुत किए, लेकिन ज़मीन पर उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ।

योजनाएं जीवन स्तर को सुधारने में असफल रहीं

दिल्ली की झुग्गी बस्तियों और अनियमित कॉलोनियों में रहने वाले दलित परिवारों के लिए शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाएं आज भी अधूरी हैं। हालांकि केजरीवाल सरकार ने पानी, बिजली और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर बड़े दावे किए, लेकिन दलित समुदाय का कहना है कि ये योजनाएं उनके जीवन स्तर को सुधारने में असफल रहीं। इसके अलावा, दिल्ली दंगों के समय सरकार की निष्क्रियता ने दलितों को भी प्रभावित किया, क्योंकि वे भी हिंसा और भय के माहौल में जीने को मजबूर हुए।

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अल्पसंख्यकों के पास भाजपा से बचने के अलावा कोई विकल्प नहीं

दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में एक अजीब सी बेचैनी है। लोग जानते हैं कि 2020 के दंगों के दौरान आप सरकार ने न तो दंगों को रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाए और न ही पीड़ितों को समय पर न्याय दिलाने में कोई भूमिका निभाई। मुस्तफाबाद, ओखला और बाबरपुर जैसे क्षेत्रों में मतदाता मानते हैं कि दंगों के समय केजरीवाल सरकार ने न केवल चुप्पी साधी, बल्कि उनके दुख-दर्द को सुनने से भी कतराई।

लेकिन भाजपा के प्रति डर ने उन्हें आम आदमी पार्टी को वोट देने के लिए मजबूर कर दिया है। यह स्थिति “खराब में कम खराब” के विकल्प की तरह है। डॉ. अनवर जैसे नेता, जो 2020 के दंगों के दौरान अल-हिंद अस्पताल में घायलों की मदद कर रहे थे, कहते हैं, “दंगों के समय का गुस्सा अभी भी जिंदा है, लेकिन भाजपा को सत्ता से दूर रखना हमारी प्राथमिकता है।”

कांग्रेस की मजबूती, लेकिन भरोसे की कमी

दिल्ली में कांग्रेस इस बार मजबूती से चुनावी मैदान में उतरी है। पार्टी ने दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कई नई रणनीतियां अपनाई हैं। लेकिन, कांग्रेस को लेकर भी दलितों में संदेह बना हुआ है। दलित और अल्पसंख्यक मतदाता कांग्रेस के पुराने रिकॉर्ड को याद करते हुए उसे पूरी तरह से भरोसेमंद नहीं मानते। वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस ने दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थायी समाधान नहीं दिया।

भाजपा की रणनीति और दलितों की असुरक्षा

भाजपा ने अब तक दिल्ली विधानसभा चुनावों में कोई मुख्यमंत्री चेहरा नहीं उतारा है, लेकिन पार्टी का पूरा जोर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और हिंदुत्व की राजनीति पर है। दलितों और अल्पसंख्यकों को डर है कि भाजपा की सत्ता में वापसी उनके लिए और मुश्किलें खड़ी कर सकती है। भाजपा का जोर एक विभाजनकारी राजनीति पर है, जो दलितों और अल्पसंख्यकों को और अलग-थलग कर सकती है।

केजरीवाल सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का भ्रम

दिल्ली सरकार की मुफ्त बिजली, पानी और स्वास्थ्य सुविधाओं ने कई वर्गों का दिल जीता है, लेकिन दलितों का मानना है कि यह केवल एक दिखावा है। झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग बताते हैं कि ये सुविधाएं केवल दिखाने के लिए हैं, जबकि असली मुद्दे जैसे कि रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दिल्ली सरकार की योजनाएं एकतरफा हैं और इनसे दलितों का समग्र विकास नहीं हो रहा है।

दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए एकजुट विकल्प की जरूरत

दिल्ली के दलित और अल्पसंख्यक मतदाता फिलहाल दोराहे पर खड़े हैं। उनके पास आम आदमी पार्टी का समर्थन करने के अलावा कोई ठोस विकल्प नहीं है, क्योंकि भाजपा के प्रति उनका डर और कांग्रेस के प्रति अविश्वास उन्हें एकजुट नहीं होने देता। दलित नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि अब समय आ गया है जब दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए एक मजबूत और वैकल्पिक राजनीतिक ताकत उभरे।

दलित और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए कई सवाल अनसुलझे

आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार के दस साल बाद भी दलित और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए कई सवाल अनसुलझे हैं। आप के समर्थकों का कहना है कि केजरीवाल ने अपने कई वादे पूरे किए हैं, लेकिन आलोचकों का मानना है कि सौ वादे करने के बाद सिर्फ पांच पूरे करना नाकाफी है। नकदी योजनाओं और अन्य कल्याणकारी नीतियों का दावा जरूर किया गया, लेकिन उनके प्रभाव को लेकर आज भी बहस जारी है।

बाबरपुर के कई दलित मतदाताओं का कहना है:

बाबरपुर जैसे क्षेत्रों में जहां आप के गोपाल राय ने 59.39% वोट शेयर के साथ जीत दर्ज की थी, वहीं भाजपा के नरेश गौड़ 36.23% पर थे। यह साफ दिखाता है कि भाजपा का प्रभाव यहां अब भी मौजूद है, जबकि कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा। बाबरपुर के कई दलित मतदाताओं का कहना है कि केजरीवाल सरकार ने उनकी रोजमर्रा की जिंदगी में सुधार के दावे किए, लेकिन रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा के बड़े वादे केवल विज्ञापनों तक सीमित रह गए।

ओखला: अल्पसंख्यक गढ़ और आप की मजबूरी

ओखला विधानसभा सीट, जो आप के अमानतुल्ला खान का गढ़ मानी जाती है, इस बार भी चर्चा में है। यहां 55% से अधिक मुस्लिम आबादी है। सामाजिक कार्यकर्ता सैयद खालिद रशीद, जो 2019 के शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे थे, मानते हैं कि “आप” ने वर्षों से नरम हिंदुत्व का रास्ता अपनाया है। इसके बावजूद, अल्पसंख्यक समुदाय के पास “आप” को वोट देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि भाजपा का डर उनकी प्राथमिकता को बदलने नहीं देता।

क्षेत्र में कांग्रेस की कमी और मुस्लिम नेतृत्व का अभाव भी एक बड़ी समस्या है। कांग्रेस के नेताओं ने खुद स्वीकार किया है कि उनके पास दिल्ली में कोई मजबूत मुस्लिम चेहरा नहीं है। “आप” के अमानतुल्ला जैसे नेता की तुलना में कांग्रेस ने इस क्षेत्र में हमेशा अपनी उपस्थिति कमजोर रखी है। 2020 में, अमानतुल्ला ने 66.03% वोट के साथ बड़ी जीत दर्ज की थी, जबकि भाजपा के ब्रह्म सिंह ने 29.65% वोट पाए थे।

मटिया महल: अल्पसंख्यकों का भरोसा और कांग्रेस का पतन

मटिया महल, जहां मुस्लिम आबादी 60% से अधिक है, एक बार फिर चर्चा का केंद्र है। यहां के छोटे विक्रेता और दुकानदार मानते हैं कि केजरीवाल सरकार के तहत उगाही और उत्पीड़न जैसे मुद्दे खत्म हुए हैं। कबाब स्टॉल चलाने वाले गुफरान सगीर बताते हैं कि पहले रात में दुकानों को खुला रखना मुश्किल था, लेकिन अब यह आसान हो गया है। स्थानीय निवासी रिज़वाना खान भी मानती हैं कि सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार हुआ है। लेकिन दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं का कहना है कि शिक्षा और स्वच्छता सुधार बड़े वादों का केवल एक हिस्सा हैं।

मटिया महल से 2020 में आप के शोएब इकबाल ने 75.96% वोट पाकर जीत हासिल की थी। भाजपा और कांग्रेस का प्रदर्शन यहां भी कमजोर रहा, और कांग्रेस के मिर्जा जावेद अली 3.85% वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे।

दलितों की नाराजगी और राजनीतिक दलों की असफलता

दिल्ली के दलित समुदाय का कहना है कि आप ने वादों की बौछार तो की, लेकिन उन पर काम नहीं किया। झुग्गी बस्तियों में रहने वाले दलितों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर सीमित ही रहे। दलित मतदाता मानते हैं कि आप ने केवल मुफ्त बिजली-पानी और स्वास्थ्य सेवाओं के जरिए छवि बनाई है, लेकिन उनके असली मुद्दों जैसे सामाजिक न्याय और आर्थिक सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया।

कांग्रेस, जो कभी दलितों का मजबूत समर्थन आधार मानी जाती थी, अब लगभग अप्रासंगिक हो चुकी है। दूसरी ओर, भाजपा के प्रति दलितों में डर का माहौल है। भाजपा के हिंदुत्व की राजनीति दलित और अल्पसंख्यक समुदायों को और अधिक असुरक्षित महसूस कराती है।

राजनीतिक समीकरण और दलित-अल्पसंख्यक गठजोड़ की आवश्यकता

दिल्ली की राजनीति में दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं की भूमिका निर्णायक है, लेकिन उनके सामने मजबूत नेतृत्व और विकल्प की कमी है। “आप” की सरकार को उनकी प्राथमिकता केवल “कम बुरी पार्टी” के तौर पर है, जबकि कांग्रेस और भाजपा जैसे दल उनके मुद्दों को समझने में पूरी तरह विफल रहे हैं।

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बदलाव की आवश्यकता

दिल्ली में दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं का कहना है कि वर्तमान राजनीतिक दल केवल वोट पाने के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। चुनावों के बाद उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। यह समय है कि एक नई और सशक्त राजनीतिक ताकत उभरे, जो वास्तव में इन समुदायों के मुद्दों पर काम करे। केजरीवाल सरकार ने कुछ वादों को पूरा किया है, लेकिन व्यापक सुधारों की कमी उनके समर्थन को कमजोर कर रही है। कांग्रेस और भाजपा की स्थिति पहले से ही इन समुदायों के बीच कमजोर है। ऐसे में दिल्ली की राजनीति में दलित और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर ध्यान देना समय की मांग है।

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