दिल्ली में 17% दलित आबादी 12 आरक्षित सीटों पर सत्ता का फैसला करती है। 2015 और 2020 में आम आदमी पार्टी ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन सवाल उठता है कि सत्ता में आने के बाद केजरीवाल सरकार ने दलितों के लिए क्या ठोस कदम उठाए।
दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य में दलितों की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है। हर चुनाव के पहले राजनीतिक पार्टियों को दलित समुदाय की याद आती है। वादों और घोषणाओं की बौछार होती है, पर चुनाव खत्म होते ही ये वादे और घोषणाएं हवा में गायब हो जाते हैं। यह सवाल उठता है कि क्या दलित समाज केवल वोट बैंक बनकर रह गया है, या उनकी वास्तविक समस्याओं पर राजनीति से ऊपर उठकर काम किया जा रहा है?
दलितों का महत्व: जिसके दलित, उसकी दिल्ली
दिल्ली में दलित आबादी 17% है, और यह विधानसभा की 12 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इन सीटों पर जिस भी पार्टी को बढ़त मिलती है, उसी का सत्ता तक पहुंचने का रास्ता साफ होता है। 2020 और 2015 के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने दलितों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर जीत दर्ज की थी। लेकिन सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल की सरकार ने इन सीटों पर जीतने के बाद दलितों के लिए क्या ठोस कदम उठाए?
चुनावी घोषणाएं: वादों की झड़ी, पर हकीकत?
2025 के चुनाव से पहले आप सरकार ने आंबेडकर स्कॉलरशिप लागू करने की घोषणा की है। अरविंद केजरीवाल ने दलितों को “भगवान” कहा और इसे सच्ची श्रद्धांजलि बताया। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह श्रद्धांजलि केवल चुनावी है?
दलित बच्चों की शिक्षा के लिए स्कॉलरशिप जरूरी है, लेकिन क्या इसके अलावा दलित बस्तियों में आधारभूत सुविधाओं का विकास हुआ है? क्या उनके सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण के लिए कोई ठोस नीति बनाई गई है?
अन्य पार्टियों का दलित प्रेम: दिखावा या हकीकत?
बीजेपी, कांग्रेस, और अन्य पार्टियां भी दलित वोटरों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहीं। बीजेपी ने आंबेडकर के नाम पर कई घोषणाएं की हैं, लेकिन दलित समाज के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की खबरें उनके दावों पर सवाल खड़े करती हैं। कांग्रेस, जो कभी दलितों का कोर वोट बैंक मानी जाती थी, अब अपनी खोई जमीन पाने के लिए संघर्ष कर रही है।
जब दलितों पर अत्याचार होते हैं, नेता कहां होते हैं?
चुनाव के समय दलितों को याद करने वाले ये नेता तब कहां होते हैं जब दलितों पर अत्याचार होता है? दिल्ली में दलित बस्तियों में पानी, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं की कमी है। मजदूरी करने वाले दलितों को उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। जमीनी स्तर पर उनके साथ होने वाले अत्याचारों पर सरकारें चुप्पी साध लेती हैं।
केजरीवाल सरकार पर सवाल: घोषणाओं से परे जमीनी हकीकत
केजरीवाल सरकार की नीतियों पर सवाल उठना लाजमी है। पिछले दस सालों में आप सरकार ने दलितों के लिए कितने रोजगार के अवसर पैदा किए? दलित बस्तियों में कितने स्कूल और अस्पताल बनाए? क्या दलितों के साथ भेदभाव मिटाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए?
पूर्वांचली और दलित: संघर्ष की एक समान कहानी
दलितों के साथ-साथ पूर्वांचल के मतदाताओं को भी केवल चुनावी मोहरा बनाकर छोड़ दिया जाता है। 19% पूर्वांचली आबादी वाली दिल्ली में उनकी समस्याओं को उठाने के लिए केवल चुनाव के समय पार्टियां सक्रिय होती हैं।
दलितों की उम्मीदें और भविष्य
दलित समाज को अब समझने की जरूरत है कि केवल घोषणाओं और वादों से उनका भला नहीं होगा। उन्हें उन नेताओं का समर्थन करना चाहिए जो उनके लिए जमीन पर काम करें, न कि केवल चुनावी समय में उन्हें याद करें।
कांग्रेस और भाजपा: दोनों के शासन में दलित समाज पर अत्याचार, कौन है असली दोषी?
दलितों के लिए असली संघर्ष: खुद की आवाज बनें
दलित समाज को संगठित होकर अपनी ताकत का अहसास कराना होगा। वे केवल वोट बैंक नहीं हैं, बल्कि इस देश के निर्माण में उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। नेताओं की घोषणाओं और वादों के पीछे की राजनीति को पहचानना और उनकी जिम्मेदारी तय करना जरूरी है।
अब वक्त आ गया है कि दलित समुदाय अपनी लड़ाई खुद लड़े और राजनीति में अपनी मजबूत स्थिति बनाकर अपने अधिकार हासिल करे।
*दलित टाइम्स उन करोड़ो लोगो की आवाज़ है जिन्हें हाशिए पर रखा गया है। *
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